जीवन सूत्र 226 विषयों का इंद्रिय संयम रूपी अग्नि में हो हवन
भगवान श्री कृष्ण ने गीता उपदेश में अर्जुन से कहा है:-
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4/26।।
इसका अर्थ है,अन्य (योगीजन) श्रवण आदि सब इन्द्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं और अन्य लोग शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं।
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने इंद्रियों का संयम करने वाले साधकों और इंद्रियों से विभिन्न कार्य संपादित करने वाले साधकों; दोनों प्रकार के मनुष्यों के लिए मार्गदर्शन किया है।मनुष्य की पांच ज्ञानेंद्रियां हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण।ये अपने विषयों क्रमशः शब्द, स्पर्श,रूप रस और गन्ध की ओर आकृष्ट होती हैं।संयम करने वाले साधक इन विषयों से नियंत्रित होने वाली इंद्रियों का संयम रूपी अग्नि में हवन करते हैं।यह एक प्रकार की साधना है।इसके लिए अभ्यास चाहिए।दूसरी स्थिति, मनुष्य को जीवन में बहुत सी चीजें ग्रहण करनी होती हैं।
जीवन सूत्र 227 जीवन में उचित ग्रहण करना विवेक पर आधारित
जीवन और शरीर निर्वाह के लिए क्या आवश्यक है और क्या नहीं,इसका ठीक-ठीक निर्धारण करना और उतना ही ग्रहण करना मनुष्य के विवेक और संतुलन पर निर्भर करता है।ऐसे में इंद्रियरूपी अग्नियों में विषयों के हवन से ही यज्ञ की स्थिति बनती है।
श्री कृष्ण द्वारा इस श्लोक में वर्णित दोनों पद्धतियों में साधकों द्वारा फल में आसक्ति और कर्मों में राग- द्वेष के अभाव का होना नितांत आवश्यक है।हम साधारण मनुष्यों के जीवन में दोनों तरह की स्थिति बनती है।उदाहरण के लिए अध्ययन काल में विद्यार्थियों के लिए पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए और अपने मन को यहां-वहां भटकने से रोकने के लिए प्रारंभ में कठिन प्रतीत होने पर भी इंद्रिय संयम आवश्यक है।
जीवन सूत्र 228 इच्छाओं पर स्वेच्छा की रोक आवश्यक
अगर स्वयं पर स्वेच्छा की रोक नहीं लगाई गई तो ये आंखें हमेशा चलचित्र और अपनी पसंद का गाना देखना चाहेंगी।
जीवन सूत्र 229 सफलता के लिए आत्म संयम है आवश्यक
परीक्षा की तैयारी कर रहे एक विद्यार्थी के लिए बस थोड़ी देर यह कार्यक्रम देख लेता हूं,फिर पढ़ लूंगा-यह दृष्टिकोण इसलिए उचित नहीं है,क्योंकि वह निर्धारित समय तक कार्यक्रम देख लेने के बाद भी थोड़ा और, थोड़ा और; के फेर में अपने अध्ययन की मेज पर वापस नहीं लौट पाता है। अतः इस तरह की स्थिति के लिए आत्मसंयम तो अत्यंत आवश्यक है।
जीवन सूत्र 230 हर तरह की अति का निषेध आवश्यक
उदाहरण के लिए श्लोक में वर्णित दूसरी स्थिति चीजों को ग्रहण करने के समय निर्मित हो सकती है।विद्यार्थियों को सुपाच्य पौष्टिक भोजन आवश्यक है।अगर इसके स्थान पर वह चटपटी अस्वास्थ्यकर चीजों को आवश्यकता से अधिक खा ले,तो यहां पर उसे इसके बदले सुपाच्य पौष्टिक भोजन का चुनाव करना होगा।चटपटे स्वाद के विषय को जिह्वाग्नि में भस्म कर बिना आसक्ति के केवल पौष्टिक पदार्थों को ग्रहण करना होगा।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय