गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 89 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 89

जीवन सूत्र 144 ज्ञान प्राप्ति में सहायक है ईश्वर के स्वरूप को जानने की चेष्टा


कल गीता के दसवीं श्लोक में ईश्वर के अभिमुख होने के लिए और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए कुछ अर्हताओं की चर्चा की गई। श्री कृष्ण ने कहा कि जिनके राग,भय और क्रोध समाप्त हो गए हैं,जो मुझ में ही तल्लीन हैं, जो मेरे ही आश्रित हैं,वे ज्ञान रूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।


जीवन सूत्र 145 ईश्वर को प्राप्त करने संकल्प आवश्यक



वास्तव में जो ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपनी कामनाओं, अतिरेक वस्तुओं और स्थिति को प्राप्त करने की कामना का विसर्जन करते हैं वे अपने इस संकल्प के आधार पर जीवन पथ पर उत्पन्न होने वाले भावी प्रलोभनों और भटकाव की स्थिति से स्वत: ही बचे रहते हैं।ये छद्म आकर्षण अपने वास्तविक स्वरूप में मानव के लिए जरा भी उपयोगी नहीं हैं।मानव इसका ज्ञान तब कर पाता है, जब उसमें वास्तविकता के बोध की दृष्टि विकसित हो पाती है।हम साधारण मनुष्यों के लिए ऐसा संभव नहीं हो पाता है।


जीवन सूत्र 146 निषिद्ध चीजों से अप्रभावित रहें


निषिद्ध चीजों की तरफ मानव का ध्यान स्वाभाविक रूप से चला जाता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा जिसे आग के संपर्क में आने पर जल जाने का बोध नहीं है,वह तब तक नहीं समझता जब तक अनायास उसका हाथ आग में न पड़ जाए और उससे वह जल न जाए। यही स्थिति हम मनुष्यों की भी हो जाती है। अपने अंतर्मन की गहराइयों में झांकने, आत्म अभिमुख होने और ईश्वर के पथ पर आगे बढ़ने में प्रारंभिक तौर पर वह आकर्षण दिखाई नहीं देता जो सांसारिक प्रलोभनों और आकर्षणों में सहज ही दिखाई देता है।


जीवन सूत्र 147 हर उत्सुकता का समाधान करना आवश्यक नहीं


बाल्यावस्था की बात छोड़ दें तो समझदार होने पर भी "मनुष्य एक बार अनुभव कर लेने में क्या जाता है" की सोच के कारण उन आकर्षणों को सहज ही अपना लेता है।उदाहरण के लिए नशे की बुराई को ही लें। इसे लेने के लिए बढ़ाया गया कोई भी पहला कदम धीरे-धीरे स्थाई आदत में बदल जाता है। ऐसी स्थिति में किसी निषिद्ध क्षेत्र में एक बार दलदल में पांव की तरह फंस जाने के बाद निकलना मुश्किल होता है।


जीवन सूत्र 148 अचानक बड़ी सफलता की उम्मीद ना रखें

साधना के मार्ग पर बढ़ने के लिए कुमार्ग पर धक्के खाकर लौटने से अच्छा है,धीरे-धीरे ही सही,साधना पथ पर एक-एक कदम आगे बढ़ाया जाए।किसी रोग की दवा पहले कड़वी लगती है, लेकिन जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि वह शरीर के लिए उपयोगी है तो हमारा मन सहज ही उसे स्वीकार करने लगता है। स्वयं को जानने और फिर समाज के लिए कुछ करने की इच्छा एक दिन अपने सारे कर्म करते हुए ईश्वर में हमारी लीनता और फिर हृदय और आत्मा में एक संगीत के निरंतर बजते रहने की पात्रता उपलब्ध करा देती है।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय