ममता की परीक्षा - 135 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 135



सितारों के बीच चमक रहे चाँद को निहारते और मन में अमर की तस्वीर बसाए रजनी कब निंदिया रानी के आगोश में समा गई वह जान ही नहीं पाई।

सुबह जब उसकी नींद खुली बिरजू की माँ चूल्हे पर चाय पका रही थी। आँखें मसलते हुए उनींदी आँखों से उसने देखा, बिरजू की माँ एक बड़े से मुरादाबादी लोटे में चाय छान रही थी। लोटा चाय से लबालब भर गया। एक हाथ में चाय का लोटा और दूसरे हाथ में रात की बासी रोटी थामे वह बाहर निकल गई।

रजनी हाथमुँह धोकर जब बाहर निकली, खटिये पर बैठे चौधरी रामलाल और बिरजू कांसे की लंबी गिलास दोनों हाथों से थाम कर चाय पीने में व्यस्त थे जबकि अमर उनके सामने की खटिये पर बैठा उनकी तरफ देखता हुआ कुछ सोच रहा था। एक छोटी सी गिलास नीचे जमीन पर उसके समीप ही पड़ी हुई थी जिसे देखकर रजनी ने अंदाजा लगाया कि वह शायद चाय पी चुका है।
दोनों हाथों में गिलास थामे बिरजू व रामलाल को चाय सुड़कते हुए देखकर उसकी हँसी निकल गई। लोटे में बची खुची चाय भी बिरजू की माँ ने रामलाल की गिलास में उंडेल दिया जिसे देखकर रजनी हैरान रह गई। इसका मतलब पूरे लोटे भर चाय इन दोनों ने पी लिया था। 'चाय अमर ने भी पी थी लेकिन यकीनन उसने उस छोटी सी गिलास में बहुत थोड़ी सी ही ली होगी' रजनी ने कयास लगाया।

गाँववालों और शहरी लोगों के बीच चाय पीने का यह फर्क देखकर रजनी की मुस्कान गहरी हो गई। उसे अपने घर की चाय याद आ गई। उसे बेड टी की आदत थी और उसके जागने का समय पता होने के कारण एक नौकर बिल्कुल सही समय पर उसके लिए चाय की ट्रॉली लिए उसके कमरे के बाहर खड़ा रहता था। एक छोटे से कप में थोड़ी सी चाय जिसमें शक्कर नाम मात्र की ही होती थी उसकी दिन की सबसे पहली खुराक होती थी, और यहाँ तो पूरे डेढ़ लीटर चाय दो लोगों के लिए ....! वाकई उसके लिए यह हैरानी की ही बात थी।

रात दोनों बड़ी देर तक चौधरी रामलाल जी से ही बात करते रहे थे इसलिए रजनी को अमर से कुछ पूछने का मौका नहीं मिला था जबकि उसका मन अमर से बात करने के लिए बेचैन था। विचारमग्न अवस्था में बैठे अमर को रजनी ने टोकते हुए उससे दिन भर की घटनाओं के बारे में पूछा। संक्षेप में उसे पूरा घटनाक्रम सुनाते हुए अमर ने उसे आश्वस्त किया और चलने से पहले उससे मुस्कुरा कर जिस तरह कहा ' take care dear , see you soon . उसका दिल खुशी से कुलाँचे मारने लगा था। साथ ही उसने घर से निकलते हुए बिरजू की माँ से निवेदन किया था कि 'रजनी की तबियत ठीक नहीं है सो आप थोड़ा ध्यान रखिएगा उसका !'
अमर को अपनी परवाह करते देख रजनी का मन मयूर खिल उठा।

चौधरी रामलाल से आशीर्वाद लेकर बिरजू व अमर दोनों घर से निकल पड़े थे अपनी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी को पूर्ण करने का प्रयास करने के लिए।
उन्हें जाता देखकर रजनी का मन स्वतः ही उनके सलामती की दुआ माँगने लगा।

जब अमर और बिरजू थाने पर पहुँचे सुबह के दस बज चुके थे। कुछ सिपाही वहाँ मौजूद थे। दारोगा विजय यादव अभी वहाँ नहीं पहुँचा था। यह देखकर अमर ने राहत की साँस ली कि सिर्फ दरोगा ही नहीं बल्कि अब तक जमनादास व वकील धर्मदास भी थाने पर नहीं पहुँचे थे।

थाने में एक सिपाही से दरोगा के बारे में पूछा था अमर ने। उसे घूरकर अजीब निगाहों से देखते हुए एक मेज के पीछे कुर्सी पर बैठे उस मरियल से सिपाही ने कहा, "कहो ! क्या काम है ? ...जब तक साहब नहीं आ जाते आप हमको ही साहब समझ लो !" अंतिम वाक्य कहते हुए वह कुटिलता से मुस्कुरा उठा था।

मेज की इस तरफ रखी हुई कुर्सी खिंचकर इत्मीनान से बैठते हुए अमर ने कुछ कहना ही चाहा था कि उस सिपाही की गुर्राहट भरी आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। उसे खा जानेवाली नजरों से घूरते हुए वह सिपाही बोल रहा था, " तुमसे बैठने के लिए किसने कह दिया ? यह पुलिस स्टेशन है, तुम्हारा घर नहीं। यहाँ सब कुछ नियम व अनुशासन से होता है।

उसके घूरने से तनिक भी विचलित न होते हुए अमर मुस्कुरा उठा और किसी मसखरे की तरह पलकें झपकाते हुए बोला, "तो बड़े साहब जी ! लगे हाथ ये भी बता दीजिए कि ऐसा किस कानून में या कहें तो कानून की कौन सी धारा में ऐसा कहा गया है कि पुलिस स्टेशन में आए हुए किसी आम नागरिक का अफसर के सामने बैठना अपराध है?...और हाँ यह भी बताने की कृपा कीजियेगा कि इस अपराध के लिए क्या सजा मुकर्रर की गई है.. आपके कानून की किताब में ?"

सिपाही को शायद अमर से इस जवाब की उम्मीद नहीं थी। वह हड़बड़ा गया था लेकिन फिर तत्काल ही खुद को सहज करते हुए उसने अपना पुलिसिया धौंस दिखाया, " ज्यादा होशियार बनने की कोशिश न करो मिस्टर ...नहीं तो जानते हो न यह थाना है, जहाँ अच्छे अच्छों की अक्ल को हम पुलिसवाले ठिकाने लगाया करते हैं। तुम्हें कानून की धारा भी बता देंगे और यह भी समझा देंगे कि किस धारा में कितनी और कौन सी सजा तय किया है हमारे संविधान ने ....!"

अभी वह कुछ और कहने ही वाला था कि तेजी से आ रहे दरोगा विजय को देखकर उसके आगे के शब्द उसके हलक में ही फँसे रह गए और वह हड़बड़ी में उठकर उसे सलूट मारने लगा।

थाने के कक्ष में प्रवेश करते हुए दरोगा विजय की नजर जैसे ही अमर पर पड़ी वह सीधा उसी के पास आ गया। वह मरियल सा सिपाही अब भी सलूट करते हुए सावधान की मुद्रा में खड़ा था लेकिन उसकी तरफ ध्यान दिए बिना विजय अमर से मुखातिब होते हुए बोला, "बोलो ! क्या प्रगति हुई आपके केस में ?"

खड़े हुए सिपाही पर उपेक्षाभरी नजर डालते हुए अमर विजय को देखकर मुस्कुराया था और सिर हिलाकर पहले ही उसका अभिवादन कर लिया था। संजीदगी से विजय का जवाब देते हुए वह बोला, "आपकी सलाह के मुताबिक हमने मशहूर वकील श्री धर्मदास जी से संपर्क किया है। ईश्वर का लाख लाख शुक्र है कि उन्होंने हमारा केस स्वीकार कर लिया है। बस थोड़े ही समय में वह यहाँ आ जाएँगे। आपका सहयोग रहा तो अब बसंती को न्याय मिलने से कोई नहीं रोक सकता।"

"वकील साहब यहाँ क्या करने आ रहे हैं ? अब मुझसे और किस सहयोग की दरकार है आपको ? देखो मिस्टर ! मैं एक सरकारी मुलाजिम हूँ। किसी केस को फिर से खोलने का सीधा सा मतलब होता है कि आप सरकारी फैसले के खिलाफ हैं और एक सरकारी मुलाजिम के नाते आप मेरी सीमाएं जानते हैं। अब तक मैंने जो भी बताया है व मदद मात्र इंसानियत के नाते ही किया है। इस मुगालते में न रहना कि अदालत में भी मुझसे कोई सहायता मिल जाएगी। आप लोग यहाँ तो मेरा दोस्ताना चेहरा देख रहे हैं लेकिन अदालत में आपको एक ईमानदार सरकारी मुलाजिम नजर आएगा !" कहते हुए विजय आगे बढ़ गया था दरवाजे की तरफ, मुँह में भर आईं पान की पिक को मुँह की कैद से आजाद करने के लिए।

अमर भी उसी के अंदाज में मुस्कुराते हुए बोला, "कोई बात नहीं सर ! हमें आपके इस इंसानियत भरे चेहरे की दरकार यहीं तक है। अदालत में तो आपका सामना खुर्राट वकील श्री धर्मदास जी से होनेवाला है, और उनके बारे में कहा जाता है कि जिस केस के लिए उन्होंने हामी भर दी, समझो उस केस का फैसला उनके ही हक में हो गया ! आज तक एक भी केस न हारने का कीर्तिमान उनके ही नाम है।"

पलटकर कमरे में दाखिल होते हुए विजय बोला,"बरखुरदार ! तुम्हारा आत्मविश्वास देखकर खुशी हो रही है। दिल से मैं भी तो यही चाहता हूँ न कि उस दुखियारी बच्ची को इंसाफ मिले !" कहते हुए वह चहलकदमी करता हुआ आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया था।

यही वह समय था जब थाने के प्रांगण में शेठ जमनादास की विदेशी गाड़ी हिचकोले खाती हुई रुकी। गाड़ी के पीछे अभी तक उड़नेवाले धूल के गुबार गाँव गाँव तक पक्की सड़कें उपलब्ध होने के सरकारी दावों की पोल खोल रहे थे।

क्रमशः