ममता की परीक्षा - 136 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 136



जिस तेजी से धूल का गुबार उठा था, उसी तेजी से वह शांत भी हो गया। जब तक कार का दरवाजा खोलकर जमनादास बाहर निकलते अमर कार के नजदीक पहुँच चुका था। दूसरी तरफ से निकल रहे वकील धर्मदास को देखकर उसने अपने दोनों हाथ जोड़ कर उनका और जमनादास का अभिवादन किया।

तीनों ने साथ ही थाने के मुख्य कक्ष में प्रवेश किया जहाँ अभी अभी दरोगा विजय यादव अपनी कुर्सी पर विराजमान हुआ था। उसके सामनेवाली कुर्सी पर बैठा बिरजू उन्हें देखते ही उनके सम्मान में उठ खड़ा हुआ और दोनों का अभिवादन किया। उसकी तरफ अधिक ध्यान दिए बिना वकील धर्मदास ने विजय से मुखातिब होते कहा, "नमस्कार दरोगा जी ! मैं वकील धर्मदास हूँ और बसंती आत्महत्या केस के सिलसिले में आपसे मदद की आस में आपके पास आया हूँ। उम्मीद है आप मुझे निराश नहीं करेंगे।"

उनके अभिवादन का सिर हिलाकर जवाब देते हुए विजय ने उन्हें सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और बोला, " जी कहिए ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ ? वैसे आपका नाम काफी सुन चुका हूँ, लेकिन आपसे मिलने का सौभाग्य आज ही प्राप्त हो रहा है।"

जमनादास पहले ही कुर्सी पर स्थान ग्रहण कर चुके थे। मुस्कुराते हुए कुर्सी पर बैठते हुए वकील धर्मदास बोला, "आप अनुभवी थानेदार हैं और इस नाते मुझे नहीं लगता कि आपको सबकुछ बताना होगा। मेरा आशय यह है कि आप अच्छी तरह समझ रहे हैं कि मुझे आपसे किस किस्म के मदद की उम्मीद है।"
कुछ पल की खामोशी के बाद धर्मदास ने अपनी गंभीर वाणी में कहा, " बरखुरदार ! आप नहीं बताना चाहते तो न सही। लो हम ही बताए देते हैं। हम बसंती आत्महत्या केस की फाइल फिर से खुलवाना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि आप हमें उस फाइल में कैद कुछ तथ्यों से अवगत कराएं ताकि हम अपने मकसद में आसानी से सफलता प्राप्त कर सकें।"

उनकी बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि विजय अचानक ठहाका लगाकर हँस पड़ा और फिर अचानक गंभीर मुद्रा में बोला, " आप गलत दरवाजा खटखटा रहे हैं श्रीमान ! आपका नाम सुनने के बाद मुझे आपसे मिलकर वाकई बड़ी खुशी हुई थी लेकिन बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप भी उन्हीं परंपरागत काले कोटवालों में से ही निकले जिन्हें कानून को खरीदकर फैसले अपने हक में करवाने की आदत होती है।.... लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि हर चीज बिकाऊ नहीं होती।.... जाइये, कोर्ट का दरवाजा खटखटाइये श्रीमान.. और आदेश की प्रति मुझे दिखाइए, तब मैं आपको पूरी फाइल सौंप दूँगा। उससे पहले इस मामले में मुझसे किसी मदद की उम्मीद मत कीजियेगा ! अब आप जा सकते हैं।" कहने के साथ ही दरोगा विजय ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।

शायद जमनादास को विजय की बातें नागवार गुजरी थीं सो उन्होंने तल्ख लहजे में कहा, " ये आप नहीं, आपकी वर्दी का अनुभव बोल रहा है ऑफिसर ! गलती आपकी भी नहीं है । दरअसल सच्चाई यही है कि आपका जितने भी लोगों से पाला पड़ा है सब आपके खरीददार ही रहे होंगे, लेकिन आप यह भूल गए कि हर इंसान एक जैसा नहीं होता। आप जिससे बात कर रहे हैं वह शहर के सबसे जानेमाने वकीलों में से एक हैं जिनका सम्मान जज भी करते हैं। हमने आपका मानवीय चेहरा भी देखा है और आपका बहुत सम्मान करते हैं इसी नाते वकील साहब आपसे मिलने आये हैं। आदेश तो हम अदालत से ले ही आएँगे। नमस्कार !" और मुड़कर वकील धर्मदास से मुखातिब होते हुए बोले, " अब ...चलें ?"

अपनी कुर्सी से उठते हुए वकील धर्मदास विजय की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोले, "दरोगा साहब ! तुम्हें देखकर हमें अपना बेटा याद आ गया इसलिए माफ करना, चाहकर भी मैं तुम्हें आप का सम्बोधन नहीं दे पा रहा हूँ। .." धर्मदास कुछ और कहते कि तभी दरोगा विजय बोल पड़ा, " कोई बात नहीं ! आप बड़े हैं व श्रेष्ठ हैं। आप मुझे तुम कहकर ही बुलाइए। बड़ी खुशी होगी। ऐसे संबोधनों में जो अपनापन व रिश्तों की मिठास है वह औपचारिकताओं के रंगों से रंगे आदरसूचक संबोधनों में कहाँ ?" कहते हुए विजय मुस्कुरा पड़ा।

उसकी मुस्कुराहट का मुस्कुराहट से ही जवाब देते हुए धर्मदास बोले, " बात तो तुमने सही कही है बरखुरदार ...क्या नाम है तुम्हारा ? हम तो भूल ही गए।"

उनके रुकने से पहले ही विजय का जवाब हाजिर था, "विजय ! ...विजय यादव नाम है हमारा !"

धर्मदास खुशी का इजहार करते हुए बोले,"हाँ तो मिस्टर विजय ! तुम्हें हमसे मिलकर भले ही खुशी नहीं हुई होगी, लेकिन हम तुमसे मिलकर बहुत खुश हुए। वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए बता दें कि हम आम तौर पर पाए जानेवाले काले कोटवालों से जरा हटके हैं। वकालत हम पैसों के लिए ही नहीं करते, अपने मन की शांति के लिए भी करते हैं और जब हमारे जरिये किसी बेगुनाह को इंसाफ मिलता है तो उसके चेहरे पर छलक रही खुशी को देखकर हमारे मन को असीम शांति का अनुभव होता है। अपने पेशे पर नाज हो उठता है। हम जानते हैं कि सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित कभी नहीं हो सकता इसलिए हमने अपने पेशे के लिए एक उसूल बना रखा है,... किसी भी कीमत पर झूठा केस न लेने का सख्त उसूल।... बड़ी से बड़ी रकम का लालच भी हमें झूठे केस लेने को बाध्य नहीं कर सकती। हम सच्चाई के पक्षधर हैं बरखुरदार और तुम्हें शेठ जमनादास जैसे रईस के प्रभाव में भी न आते देखकर हमें महसूस हो रहा है कि तुम भी अपने उसूल के पक्के हो, इसीलिए हमें तुमसे मिलकर बहुत बहुत खुशी हुई ! कीप इट अप ऑफिसर ! अब तुमसे अगली मुलाकात अदालत में ही होगी। सत्यमेव जयते !"
कहते हुए धर्मदास और जमनादास एक साथ ही कुर्सियों से उठ खड़े हुए और थाने के कक्ष से बाहर की तरफ बढ़ गए। अमर और बिरजू भी लपक कर उनके पीछे पीछे चल दिए।

थोड़ी देर बाद जमनादास की कार थाने के प्रांगण से बाहर निकल कर शहर की तरफ बढ़ी जा रही थी। अमर और बिरजू भी कार में सवार हो गए थे।

कुछ देर बाद कार न्यायालय के प्रांगण में खड़ी हुई। जमनादास के साथ ही दूसरी तरफ से वकील धर्मदास भी कार से बाहर निकले। धर्मदास को देखते ही करीब से गुजर रहे वकीलों के एक समूह ने धर्मदास जी का अभिवादन किया। मुस्कुरा कर उनके अभिवादन का जवाब देते हुए धर्मदास जी न्यायालय की इमारत की तरफ बढ़ ही रहे थे कि काले कोट पहने एक जूनियर वकील उनके साथ साथ चलते हुए बोलने लगा, "सर ! जहाँ तक मैँ समझ रहा हूँ आज आपकी कोई हियरिंग तो नहीं है। कोई छोटा मोटा काम हो तो बताइए ,मैं करके ला देता हूँ। आप सामने वकीलों के चैंबर में बैठ कर आराम कीजिये। प्लीज सर, हमें भी अपनी खिदमत का एक मौका दीजिये।" कहते हुए उसने हाथ जोड़ लिए थे।

मुस्कुरा कर उसे जवाब देते हुए धर्मदास बोले, " बहुत बहुत शुक्रिया बेटे ! यही विनम्रता हमेशा बनाये रखना। बहुत आगे जाओगे ! दरअसल काम छोटा सा ही है लेकिन तुम्हारे लिए थोड़ी मुश्किल हो सकती है और मेरे लिए कोई मुश्किल नहीं यह तो तुम जानते ही हो।"
कहने के बाद धर्मदास अमर और बिरजू की तरफ मुड़कर बोले, " तुम लोग यहीं रुको। मैं आता हूँ थोड़ी देर में !"

जमनादास और धर्मदास न्यायालय की इमारत में प्रविष्ट हो गए और आधे घंटे बाद जब दोनों बाहर आए तो हाथ में पकड़े एक कागज के साथ ही उनके चेहरे पर विजयी मुस्कान थी।

क्रमशः