ममता की परीक्षा - 137 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 137



कुछ देर बाद जमनादास और वकील धर्मदास दरोगा विजय के सामने कुर्सी पर बैठे हुए थे। उन्हें देखते हुए विजय चेहरे पर हैरानी के भाव लिए हुए बीच बीच में सामने की मेज पर पड़े हुए कागज पर भी निगाह फेर लेता।
कुछ देर बाद उठकर दरवाजे से बाहर पान की पिक थूककर वह पुनः अपनी कुर्सी पर आसीन हुआ और धर्मदास जी से बोला, " मान गए श्रीमान आपको ! आप अवश्य यह मुकदमा जीत जाएँगे और अत्याचार की शिकार बसंती की आत्मा को अब इंसाफ दिलाने से कोई नहीं रोक सकता।"

धर्मदास मंद मंद मुस्कुराते हुए बोला, " बहुत बहुत शुक्रिया बरखुरदार ! शुक्र है कि तुमने मेरी काबिलियत को पहचाना तो सही। अब लाओ फटाफट फाइल मुझे सौंप दो।"

"मुझे इतना भी भोला समझने की भूल न कीजिए श्रीमान ! इस आदेश के मुताबिक 'बसंती बलात्कार केस' को पुनर्विचार के लिए खोला जाना है और आप इस केस में अभियोजन पक्ष के वकील हैं इसलिए इस मुकदमे से सम्बंधित सारी जानकारी आपको मुहैया कराने की जिम्मेदारी अदालत ने मुझे सौंपी है। मैं आपको हर वो जानकारी दूँगा जिसकी आपको जरूरत है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपको इस केस की फाइल ही सौंप दूँ। श्रीमान, आप तो वरिष्ठ वकील हैं सो इतनी मामूली सी बात आप जानते ही होंगे कि किसी भी सरकारी दफ्तर में मौजूद फाइल सरकार की संपत्ति समझी जाती है जिसकी रक्षा का भार संबंधित अधिकारी पर होता है.. और चौकी इंचार्ज के नाते इस फ़ाइल को संभालना मेरी जिम्मेदारी है।"
कह कर कुर्सी पर बैठे बैठे पहलू बदलते हुए विजय ने आगे कहना शुरू किया, "लेकिन मैँ तो चमत्कृत हूँ आपके हाथ में न्यायालय का यह आदेश देखकर ! वाकई आप बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हैं। .....अमूमन किसी बंद केस को फिर से खुलवाने की एक प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया के तहत अदालत को संबंधित केस में दर्ज क्लोजर रिपोर्ट में नजर आनेवाली खामी जो कि अभियोजन पक्ष द्वारा बताई जाती है उसपर विश्वास होने के बाद ही इस तरह का आदेश न्यायालय द्वारा पारित किया जाता है। कई बार तो दोनों पक्षों में जमकर बहस होती है व अपने अपने वक्तव्य के समर्थन में दलीलें दी जाती हैं और तब कहीं अदालत किसी निर्णय पर पहुँचती है। कई बार केस फिर से खोलने की याचिका को ही खारिज कर दिया जाता है। ऐसे में आज ही इतनी तत्परता से आपको यह आदेश मिलना बसंती की आत्मा को न्याय मिलने की दिशा में एक शुभ संकेत ही है भले यह आपके प्रभाव में ही क्यों न हुआ हो !"
कहने के बाद विजय ने अपनी निगाहें धर्मदास के चेहरे पर गड़ा दीं मानो पूछ रहा हो ' अब आगे क्या ?'

उसकी बातें सुनकर मंद मंद मुस्कुराते हुए धर्मदास बोले, "बहुत जीनियस हो बरखुरदार ! थ्योरी के साथ साथ जिसे जीवन के प्रैक्टिकल का अनुभव हो वही शख्स अपने क्षेत्र में कामयाब हो सकता है और फिर मेरी तो जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा इस क्षेत्र में थ्योरी के आधार पर प्रैक्टिकल करते हुए बीता है सो मेरे लिए कोई मुश्किल थी ही नहीं,लेकिन चूँकि तुम भी इस बात को समझते हो इसलिए तुम भी अपने क्षेत्र में बहुत आगे जाओगे। शुभकामनाएं व आशीर्वाद है मेरा हमेशा तुम्हारे साथ ! अब लाओ, मुझे इस फाइल में से सिर्फ क्लोजर रिपोर्ट और पोस्टमार्टम की जो भी रिपोर्ट हो वो और डॉक्टरों के बयान की कॉपी का नकल निकाल कर दे दो। अब तुम ये मत कहना कि इसके लिए भी मुझे बाकायदा लिखित स्वरूप में अर्जी देनी पड़ेगी।" कहते हुए धर्मदास खुलकर हँस पड़े थे।

मुस्कुराते हुए विजय ने कहा, "यह औपचारिकता तो आपको निभानी ही पड़ेगी श्रीमान ! मैं आपकी जरूरत के इन सभी पन्नों की नकल तैयार करवाता हूँ। तब तक आप मुझे इन दस्तावेजों को प्राप्त करने का आवेदन लिख दीजिये। ये रहे कागज !" कहने के साथ ही विजय ने मेज की दराज से एक कोरा कागज उनकी तरफ बढ़ा दिया।

मुस्कुराते हुए धर्मदास ने कागज उसकी तरफ लौटाते हुए कहा, "बरखुरदार ! तुम भूल गए कि तुम किससे बात कर रहे हो ! जहाँ से कोई सोचना बंद कर देता हो, हम वहीं से आगे सोचना शुरू करते हैं और इसीलिए अपने इस पेशे में हमें इज्जत के नजरिए से देखा जाता है। हम जानते थे कि हमें तुम्हें न्यायालय के आदेश की कापी के साथ ही लिखित में आवेदन भी देना होगा। हमने आवेदन भी वहीं कचहरी में ही टाइप करवा लिया था। ..यह लो !" कहते हुए धर्मदास ने अपना ब्रीफकेस खोलकर उसमें से दो कागज निकालकर विजय की तरफ बढ़ा दिया।

आश्चर्य चकित विजय ने उनके हाथों से कागज लेकर देखा। उसमें केस से संबंधित उन्हीं कागजों की माँग की गई थी जिनका जिक्र धर्मदास ने मौखिक रूप से की थी। मन ही मन उनकी प्रतिभा व दूरदृष्टि का लोहा मानते हुए विजय ने एक कागज पर थाने का मोहर लगाकर उन्हें वापस लौटाते हुए दूसरा कागज मेज पर रख दिया और सामने बैठे सिपाही को बुलाया।

सिपाही को वह कागज देते हुए उसने उसे निर्देश देते हुए कहा, "इस कागज़ में लिखे दस्तावेजों की नकल निकालकर साहब को दे दो और यह कागज रिकॉर्ड बुक में जमा कर दो। जल्दी करो।"

सिपाही वह कागज लेकर भंडार रूम की तरफ बढ़ गया। कुछ देर बाद बसंती मर्डर केस से संबंधित सभी आवश्यक कागजातों की नकल वकील धर्मदास के हाथों में थी।

कागजातों पर सरसरी निगाह डालते हुए धर्मदास के निगाहों की चमक बढ़ गई थी जिसे देखते हुए जमनादास ने मन ही मन राहत की साँस ली।

अमर और बिरजू भी ध्यान से उनके ही क्रियाकलापों को देख सुन और समझ रहे थे।

कागजों को अपने ब्रीफकेस के हवाले करते हुए धर्मदास जी उठ खड़े हुए और दरोगा विजय की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोले, "बहुत बहुत धन्यवाद दरोगा जी। बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर। अब आपसे मुलाकात अदालत कक्ष में ही होगी। नमस्कार !"
कहने के बाद धर्मदास जी एक पल भी रुके नहीं थे। उनके पीछे पीछे जमनादास ,बिरजू और अमर भी निकलकर थाने के प्रांगण में खड़ी कार के समीप आ गए।

धर्मदास जी कार में बैठ चुके थे और जमनादास जी कार का स्टीयरिंग संभाल कर अमर की तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देख रहे थे। अमर और बिरजू को कुछ समझ न आया सो बिरजू ही हाथ जोड़ते हुए बोला , "अब तो वकील साहब केस की तैयारी करेंगे और अदालतों में तारीखें लगेंगी। तब तक हम क्या करें ?"

जमनादास कुछ जवाब देते कि तभी थाने के दरवाजे पर दरोगा विजय एक पल के लिए दिखा और उसने इशारे से अमर को अपने पास बुलाया। बिना एक पल की भी देर किए अमर थाने की तरफ लपका जिसे देखते हुए जमनादास ने बात बदल दिया और बोले, "तुम अमर को लेकर गाँव में पहुँचो ! वकील साहब को उनके दफ्तर तक छोड़कर और उनसे बात करके कि आगे क्या करना है, मैं गाँव आकर बताता हूँ।"

"हाँ ! यही ठीक रहेगा।" कहते हुए बिरजू ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।

बिरजू की तरफ देखे बिना ही जमनादास ने कार थोड़ा पीछे की तरफ लिया। आगे बढ़ने की जगह मिलते ही उनकी कार थाने के प्रांगण से निकलकर शहर जानेवाली नजदीकी सड़क की तरफ मुड़ गई।

अपने पीछे धूल का गुबार उड़ाती जमनादास की कार कुछ ही देर बाद बिरजू की आँखों से ओझल हो गई। अब उस कच्ची सड़क पर नीरव शांति फैल चुकी थी। कभी कभार कोई साईकल सवार चलते हुए सड़क पर जमा धूल उड़ाने का असफल प्रयास करता और आगे बढ़ जाता।

जमनादास की गाड़ी आँखों से ओझल होने के बाद बिरजू ने भी थाने में प्रवेश किया जहाँ अमर पहले से दरोगा विजय के सामने कुर्सी पर बैठा हुआ था।

मेज के उस पार अपनी कुर्सी पर बैठा विजय अपने विशेष अंदाज में पान चबाते हुए बोल रहा था, " मदद तो हम तुम्हारी करेंगे ही बाबू ...नहीं तो काहें तुम्हें बुलाते हम फिर से ...आंय ! हम तो उस वकील साहब के सामने एही लिए खामोश थे कि हम देखना चाहते थे कि ऊ केतना होशियार हैं।"

कुछ पल की खामोशी के बाद विजय ने फिर कहना शुरू किया, "इ बात तो कउनो बुड़बक रहेगा वह भी अंदाजा लगा लेगा की जिस सबूत और गवाही के आधार पर मामला रफादफा करके केस को बंद कर दिया गया था उसी फाइल के आधार पर इ वकील साहब कैसे केस को जीतने का दावा कर सकते हैं ? सब कुछ तो वही रहेगा न ? ..फिर ?"

अचानक उसके बदले लहजे और सूर का मजा लेते हुए अमर भी उसी देहाती अंदाज में बोल पड़ा, " सही कह रहे हो साहब आप ! लेकिन इ ससुरी केस कचहरी की बातें तो हमको कुछ भी पल्ले नहीं पड़ती न ! अब तो इ सब वकील साहब जानें और आप जानें ! हम जानत हैं आप हमरी मदद जरूर करोगे काहें कि आप भले इंसान हो।"

"यही तो हमरी कमजोरी है ससुरी ! यहीं हम मार खाय जात हैं। हम चाहत हैं कि हम भी खुर्राट अफसर बनें, खूब कमाएं खाएं लेकिन ससुरी अपनी आत्मा इ बात की गवाही नाहीं देती और जानत हौ, एही नाते हम उ सब सबूत सहेज कर रखे हैं जो इ केस में बसंती के साथ न्याय कर सकत है। तुम चिंता न करो और अब जाओ अपने घर और बेफिकिर रहो। हम तुमरी पूरी मदद करेंगे इ केस में। जय राम जी की !" कहते हुए विजय ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए थे। उसका इशारा समझकर अमर और बिरजू भी अपने दोनों हाथ जोड़कर थाने से बाहर आ गए और चल दिए सुजानपुर की ओर।

क्रमशः