और फिर क्या था ? रजनी ने अपनी योजना को अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया। अमर लाख संस्कारी सही लेकिन रजनी के रूप यौवन से कब तक गाफिल रहता ? आखिर एक बार फिर कोई अप्सरा किसी ऋषि मुनी की तपस्या भंग करने में सफल हुई थी। रजनी के इशारों में छिपे आमंत्रण से अमर अनजान न था और फिर एक दिन दोनों मिले। दिल की बातें कीं, अपने अपने प्यार का इजहार किया और फिर एक दूसरे में खोए ख्वाबों के हसीन रथ पर सवार दोनों प्रेमनगर की डगर पर अपनी मंजिल की ओर अग्रसर हो गए।
हालाँकि पहले तो अमर ने रजनी को हकीकत से वाकिफ कराने की भरपूर कोशिश की, अपनी गरीबी का वास्ता दिया, माँ बाप की नाराजगी का डर भी दिखाया लेकिन रजनी ने तो जैसे ठान ही लिया था कि उसे किसी भी हाल में अमर का प्यार पाना है सो उसने अमर के सामने स्पष्ट कर दिया कि वह शादी करेगी तो उससे ही वर्ना किसीसे नहीं करेगी। आग और फूस जब साथ हों, तो आग तो लगना स्वाभाविक ही था। दोनों के दिलों में प्यार की ज्वाला समान रूप से धधकने लगी थी। दोनों गाहेबगाहे एक दूसरे से मिलने के बहाने ढूँढने लगे।
समय गुजरता रहा। छुप छुप कर मिलने वाले दोनों युवा प्रेमी अब अक्सर साथ साथ ही आते जाते देखे जाने लगे। क्लास बंक करने का मौका मिलते ही शहर से बाहर एकांत निर्जन में दोनों एक दूसरे में खोए घंटों बैठे रहते।
ऐसे ही किसी नाजुक समय में दोनों एक भूल कर बैठे जिसे सबसे बड़ी भूल भी कहा जा सकता है। दोनों के कदम बहके और सामाजिक मर्यादा को तार तार करते हुए दो जिस्म एक जान हो गए।
दोनों युवा प्रेमियों के आकंठ प्रेम में डूबे रहने का पढ़ाई पर फर्क तो पड़ना ही था। वार्षिक परीक्षाएँ सम्पन्न हुईं। नतीजे घोषित हुए तो हमेशा विशेष नंबरों से पास होनेवाला अमर किसी तरह प्रथम श्रेणी में पास हुआ था।
अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होकर आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति पाने की उसकी योजना पर पानी फिर गया था। कॉलेज कैंपस में लगे रिक्रूटमेंट बोर्ड के जरिये उसे एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी मिल तो गई लेकिन यह उसके सपने के सामने कुछ भी नहीं था जो उसने खुद के भविष्य को लेकर देखे थे।
रजनी भी उत्तीर्ण होकर दूसरे वर्ष में प्रवेश कर गई थी। कॉलेज शुरू हो गए थे। अमर की पोस्टिंग उसी शहर में हुई थी। सो अमर व रजनी का मिलना जुलना व समय मिलते ही घूमना फिरना पूर्ववत जारी रहा।
एक दिन झील किनारे बैठी रजनी अमर का हाथ अपने हाथों से कसकर पकड़ते हुए बड़े प्यार से बोली, "अमर !"
"हाँ रज्जो !" अमर उसे प्यार से रज्जो ही पुकारता था।
"एक खुशखबरी है !"
"क्या ?... क्या तुम्हारे पापा हमारी शादी के लिए राजी हो गए ?"
"अरे नहीं ! उस दिन तो कोशिश की थी उनसे बात करने की, तुम्हारे बारे में लेकिन नाराज हो गए थे। अब किसी दिन उनका अच्छा मूड देखकर फिर से बात करूँगी।"
"फिर क्या खुशखबरी है ?"
"अमर !" आँखों में लाज के साथ ही शरारत भी नजर आ रही थी रजनी की। अमर की आँखों में झाँकते हुए रजनी ने बड़ी अदा से उसका हाथ पकड़कर अपने पेट पर रखते हुए कहा," मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ। ...देखो !"
जैसे करंट छू गया हो अमर को। झटके से उसके हाथों से अपना हाथ छुड़ाते हुए अमर चौंक पड़ा और अनायास ही उसके मुँह से चीख निकल गई, "क्या ? ये तुम क्या कह रही हो रज्जो ?"
उसकी बौखलाहट का आनंद लेती हुई रजनी शरारत से मुस्कुराते हुए उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली, " बिल्कुल सच कह रही हूँ !.. तुम्हें खुशी नहीं हुई ?"
"नहीं !" अमर ने उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहा, " मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है। अगर पापा हमारी शादी के लिए राजी नहीं हुए तो ?"
"वही तो !" रजनी के चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कुराहट तैर गई।
"तुम समझ नहीं रहे हो अमर !.. अब पापा को हर हाल में हमारी बात माननी ही पड़ेगी। उनके पास दूसरा कोई चारा भी तो नहीं। अब ऐसी हालत में दूसरा कौन करेगा उनकी इस लाडली बेटी से शादी ?" शरारती अंदाज में रज्जो ने कुछ यूँ कहा कि अमर अनायास ही हँस पड़ा लेकिन अंतर्मन की हलचल से उसके दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं। किसी अंजान आशंका से वह बेचैन हो उठा और फिर कुछ देर बाद दोनों अपने अपने घर की तरफ रवाना हो गए।
रास्ते भर रजनी के कहे वाक्य अमर के कानों में गूँजते रहे। उसे रजनी की इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था। उसपर शादी के लिए दबाव बनाने के लिए यह कहीं रजनी की चाल तो नहीं ?
रजनी ने अपने वादे के मुताबिक उसी दिन अपने पापा से दुबारा अपने मन की बात कही और उन्हें अमर के बारे में बताया।
आश्चर्यजनक रूप से नाराज हुए बिना उसके पापा चेहरे पर मुस्कान व वाणी में कोमलता लाते हुए बोल पड़े, "कोई बात नहीं बेटा ! तुम जो कहोगी वही होगा। ..लेकिन एक बार उससे मिल तो लूँ। ..देखूँ तो कौन है वो खुशनसीब, जिसके लिए हमारी बिटिया रानी खुद सिफारिश कर रही है ?" उन्होंने शायद थोड़ी देर पहले रजनी के चेहरे पर उभरे विद्रोह के लक्षणों को पढ़ लिया था और अनुभवों में मास्टरी हासिल उसके पापा सेठ जमनादास ने बड़ी खूबी से बात को संभाल लिया था।
जमनादास की बातें सुनते ही रजनी चहक पड़ी, "कोई बात नहीं पापा ! मैं कल ही उन्हें बुला लेती हूँ। उनसे मिलकर आप इंकार नहीं कर पाएँगे।"
रजनी के चेहरे पर छलक आई खुशी व आत्मविश्वास को पढ़ने का प्रयास करते हुए सेठ जमनादास प्यार से बोले, "बेटी.. यह तुम्हारी जिंदगी का सवाल है। मैं अपनी तरह से उसकी परीक्षा लेना चाहूँगा। यदि वह पास हो गया तो तुम्हारा ......नहीं तो ........!" जानबूझकर जमनादास ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी।
खुशी से चहकते हुए रजनी बोली, "कोई बात नहीं पापा ! आप जैसे भी चाहें अमर को परख लें। मुझे पूरा यकीन है वह हर परीक्षा में खरे उतरेंगे।"
कहने के बाद रजनी ने अमर के घर व दफ्तर दोनों का पता भी बता दिया।
शाम का धुँधलका फैलने लगा था। अमर दफ्तर से निकलकर तेज कदमों से बस स्टॉप की तरफ बढ़ रहा था कि तभी एक आदमी ने उसे रुकने का इशारा किया। उसने सवालिया निगाहों से उस अंजान इंसान की तरफ देखा। उसके नजदीक आते हुए उस आदमी ने उससे पूछा, "आप का नाम अमर है न ?"
"हाँ ! मेरा नाम अमर है। क्या बात है ?" अमर ने उसे बताया।
"वो सामने कार में हमारे सेठ श्री जमनादास जी बैठे हैं। आपसे मिलना चाहते हैं।.. चलिए !" अब वह सीधे मुद्दे पर आ गया था।
अमर का जी चाहा कि कह दे उस इंसान से कि सेठ होंगे तुम्हारे। मैं क्यों सुनूं उनकी ? लेकिन फिर रजनी का ख्याल करके वह उसके पीछे चल पड़ा उस कार की तरफ जिसमें सेठ जमनादास पीछे की सीट पर आराम से बैठे, बैठे क्या एक तरह से पसरे हुए थे।
खिड़की से झाँकते हुए अमर ने उनका अभिवादन किया। एक नजर उसकी तरफ देखने के बाद जमनादास जी ने बगल में रखी अटैची की तरफ हाथ बढ़ाया और रूखे स्वर में अमर से पूछा, "तो तुम अमर हो ?"
क्रमशः