शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 33 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 33

किन्ही भी दो ऐतिहासिक व्यक्तियों की तुलना करना संभव नहीं है; उचित भी नहीं है, किंतु इसका एक लाभ यह है कि ऐसी तुलना जिसके साथ की जा रही है, वह अपनी पूर्ण विशेषताओं के साथ हमारे दिल में जगह बनाता है।
शिवाजी अनेक कसौटियों पर श्रेष्ठ पुरुषों के बीच श्रेष्ठतम सिद्ध होते हैं। उन्होंने अपने राष्ट्र के गुणों को ही नहीं, अवगुणों को भी पहचाना, जिन्हें दूर करने के प्रयास के साथ जन-जन का स्वाभिमान जाग्रत् किया। शिवाजी ने अपनी प्रजा में एकता की स्थापना कर उसे अनेक पराक्रम करने के लिए प्रोत्साहित किया।
शिवाजी की अपेक्षा अधिक पराक्रम करने वाले या अधिक प्रदेश जीतकर उस पर राज्य करने वाले पुरुष इतिहास में बहुत होंगे, किंतु शिवाजी जैसे गुणों का एकत्रीकरण किसी भी व्यक्ति में दिखाई नहीं देता। यदि हम शिवाजी के अवगुणों की खोज करें या किसी ने अगर चुनौती दी कि शिवाजी के दोष दिखा दो, तो हमें निराश ही नहीं, निरुत्तर भी होना पड़ेगा। एक भी दोष ढूँढ़ने पर भी शिवाजी में नहीं दिखाई देता।
इन सभी वीर योद्धाओं में एक समानता बहुत प्रखर है। अपनी निष्ठा और कल्पना-शक्ति से ये आम जनता को बड़ी गहराई से प्रभावित करते हैं; साथ ही इनमें एक और विलक्षण शक्ति होती है, वह है अपने राष्ट्र को प्रकाशमान एवं शक्तिशाली बनाने की अदम्य इच्छा-शक्ति। सभी महान् व्यक्तियों में ये गुण होते हैं और शिवाजी में भी थे।
अब हम जिनका वर्णन पहले कर चुके हैं, उन दस राज-योद्धाओं की तुलना शिवाजी से करेंगे, जिसकी कसौटियाँ इस प्रकार होंगी—

1. पार्श्व भूमि:
एलेक्जेंडर का पिता किंग फिलिप (द्वितीय) अत्यधिक पराक्रमी और बलशाली था। एलेक्जेंडर को यही चिंता लगी रहती कि पिता इतने पराक्रमी हैं कि उनके बाद जीतने लायक कुछ बचेगा भी या नहीं! किंग फिलिप ने अरस्तू (एरिस्टॉटल) को एलेक्जेंडर का गुरु नियुक्त किया था। अरस्तू था विश्वविख्यात तत्त्वज्ञानी प्लूटो का विद्यार्थी। ऐसे अरस्तू का विद्यार्थी बनकर एलेक्जेंडर ने अपनी मानसिक शक्ति और विवेक का विकास किया, हालाँकि वह क्रोध पर संयम नहीं रख पाता था।

सीजर ने अपनी शुरुआत एक वकील के रूप में की। वह एक समृद्ध घराने से आया था। रोम 2500 वर्ष पूर्व एक प्रजासत्ताक राज्य था। वहाँ के नागरिक साहित्य, कला, वित्त एवं युद्ध की बारीकियों से परिचित एवं विकसित थे।

हॉनीबॉल का पिता हनीलकार एवं उसका जीजा हानुबॉल कार्थज के सेनापति थे। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी रोम के जैसे शक्तिशाली प्रजातांत्रिक देश के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। प्रशासन एवं सैनिक प्रशिक्षण से जुड़ी उनकी नीतियाँ सचमुच प्रभावशाली थीं।

अटीला एक हूण सरदार था, जो थ्रेस की ओर से वार्षिक रकम वसूल करता था। इस कारण उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ थी।

नेपोलियन ने सैनिक स्कूल में पढ़ाई की। उसके पराक्रमों की नींव फ्रांस की क्रांति एवं संपन्नता के कारण मजबूत हुई।

विलियम वॉलेस का पिता उसके बचपन में गुजर गया था। वॉलेस को उसके धर्मगुरु चाचाओं ने पाला-पोसा। चाचाओं ने ही उसे फ्रेंच एवं लैटिन भाषाएँ सिखाईं। वॉलेस को उसकी विद्वत्ता के लिए 'सर' की उपाधि मिली। स्वतः सिद्ध होता है कि वॉलेस या तो राज घराने से था या योद्धाओं के घराने से।

चंगेज खान एक छोटे कबीले के सरदार का पुत्र था। उसका पिता उसके बचपन में ही गुजर गया था। उसकी माता ने बड़ी कठिनाई से उसका पालन-पोषण किया, लेकिन मंगोल रणनीति के कारण चंगेज खान शक्तिशाली राज्य स्थापित कर सका।

अकबर और औरंगजेब थे मुगल बादशाहों के फरजंद यानी बेटे। शाही खानदान में इन दोनों को अस्त्र-शस्त्र एवं शास्त्रों की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मिली ही होगी। ऐसा मानकर चल सकते हैं।

एडॉल्फस गस्टावस स्वीडन जैसे संपन्न एवं विकसित देश का राजकुमार था। उसे भी अपने शाही खानदान में अस्त्र-शस्त्र एवं युद्ध कला में पारंगत होने के बेहतरीन मौके मिले ही होंगे।

उपर्युक्त विवरण से सिद्ध होता है कि इन सभी योद्धाओं की पृष्ठभूमि शिवाजी महाराज की अपेक्षा उज्ज्वल थी। इसका अपवाद केवल एक व्यक्ति था; और वह था चंगेज खान, जिसका जन्म मंगोलिया के 'बोरीजीन' कबीले में हुआ था। यह कबीला शिकार करके अपनी जीविका चलाता था।
शिवाजी महाराज की इनसे तुलना करें, तो महाराज की पार्श्व-भूमि असफलताओं एवं निराशाओं से आच्छादित थी। अपने आसपास के अंधकार को चीरकर शिवाजी महाराज सूर्य की तरह प्रकट हुए और जगमगाने लगे।

2. द्वंद्व—
एलेक्जेंडर, सीजर, हॉनीबॉल, अटीला, रिचर्ड, चंगेज खान, एडॉल्फस, अकबर, औरंगजेब एवं नेपोलियन; इन सभी ने अपनी विशाल एवं शक्तिशाली सेना के जोर पर घनघोर युद्ध किए, किंतु इनमें से एक ने भी शिवाजी महाराज ने अफजल खान के खिलाफ जैसा द्वंद्व युद्ध किया, वैसा वन-टू-वन द्वंद्व युद्ध नहीं किया।
इतिहास बताता है कि विश्व के तकरीबन सभी राजा-महाराजा और बादशाह हाथी पर सवार होकर युद्ध भूमि पर आते थे या फिर युद्ध भूमि से दूर ही बने रहते थे; जैसे किसी टीले की चोटी, जहाँ से वे युद्ध का निरीक्षण किया करते और हुक्म देते। युद्धभूमि के खून के छींटे उनके जिस्म पर आकर पड़ते ही नहीं थे!
अफजल खान के वध और शाइस्ता खान पर आक्रमण से यह प्रमाणित होता है कि शिवाजी महाराज स्वयं युद्ध-भूमि में उतरकर शत्रु से वन-टू-वन युद्ध करते थे।

3. थर्मोपीली
एलेक्जेंडर, सीजर, हॉनीबॉल, अटीला, रिचर्ड, चंगेज खान, एडॉल्फस, अकबर, औरंगजेब एवं नेपोलियन; ये सभी युद्ध में हिस्सा लेते थे। युद्ध - भूमि में इन की हार-जीत का फैसला इस आधार पर होता था कि किसके पास कितने और कैसे हाथी, घोड़े, ऊँट, तोपें, बंदूकें हैं; सैनिकों की संख्या कितनी है और सेनापतियों की रणनीति में कितनी सूझबूझ है।
सभी युद्धों में एक समानता दिखाई देती है । वह यह कि सैनिकों की संख्या कितनी ज्यादा है और युद्ध-सामग्री कितनी सटीक है, मुख्यतः इसी आधार पर जीत हासिल की जाती है। सेनापति की युद्ध-नीति एवं सैनिकों के मनोबल के आधार पर जीत हो तो सकती है, मगर कभी-कभार।
किंतु जहाँ युद्ध होना है, वहाँ की भूमि की सूक्ष्म जानकारी भी जीतने का आधार बन सकती है, यह बात संसार में पहली बार लियोनिडस ने साबित करके दिखा दी; जब उसने थर्मोपीली में युद्ध किया और जीता।
थर्मोपीली जैसा युद्ध अन्य किसी भी योद्धा ने नहीं लड़ा; सिवा शिवाजी महाराज के। उनके सेनापति बाजीप्रभु ने घोडखिंडी में थर्मोपीली शैली में छापामारी कर शत्रु को स्तब्ध कर दिया। बाजीप्रभु ने शिवाजी एवं स्वराज के लिए अपने प्राण न्योछावर कर खिंड को पवित्र किया।
थर्मोपीली के जैसी लड़ाई किसी भी योद्धा ने नहीं लड़ी, केवल शिवाजी ने लड़ी।

4. स्मारक

एलेक्जेंडर, सीजर, हॉनीबॉल, अटीला, रिचर्ड, चंगेज खान, एडॉल्फस, अकबर, औरंगजेब एवं नेपोलियन; इन सबने अपना गौरव बढ़ाने के लिए नए-नए शहरों, मसजिदों और महलों का निर्माण किया। एलेक्जेंडर तो इतना अभिमानी था कि उसने स्वयं पर 'एलेक्जांड्रिया' नाम के 16 शहर बनवाए। इतना ही नहीं, उसने अपने घोड़े बुसाफेलस के नाम पर 'बुसेफेलिया' शहर बनवाया।
हॉनीबॉल और अटीला को ऐसा करने का अवसर नहीं मिला।
वॉलस ने सेनापति के रूप में नगण्य कार्य किया।
इसके विपरीत शिवाजी महाराज को अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के अनेक अवसर मिले, किंतु उन्होंने अपने नाम पर न तो कोई शहर बनवाया, न ही कोई किला। इसी प्रकार अपने किसी शूरवीर सेनापति का नाम किसी इमारत को नहीं दिया। अत्यंत पराक्रमी सेनापति बाजीप्रभु का नाम भी घोडखिंडी को नहीं दिया। तानाजी मालुसरे के पराक्रम के कारण कोंडाणा किले पर शिवाजी का अधिकार हुआ था, लेकिन तानाजी की स्मृति में भी उन्होंने कोडाणा को ‘तानाजी किला’ नाम नहीं दिया।
इसका कारण यही था कि शिवाजी महाराज की दृष्टि में सभी सेनापति एक जैसे पराक्रमी थे। कोई किसी से कम नहीं था। कोई किसी से बढ़कर नहीं था।

5. सरेआम हत्याएँ
एलेक्जेंडर, सीजर, हॉनीबॉल, अटीला, रिचर्ड, चंगेज खान, अकबर एवं औरंगजेब इन सभी ने असंख्य हत्याएँ की थीं। चंगेज खान ने उग्रेंच के युद्ध में संसार में सबसे अधिक बिन-यांत्रिक कत्ल किए थे। हमने यह भी देखा है कि उसने अपने 20 साल के शासन में संसार की 17 प्रतिशत आबादी यानी 6 करोड़ लोगों को मौत के घाट उतारा था। हॉनीबॉल युद्ध में मारे गए शत्रु- सैनिकों के दाहिने अँगूठे कटवा कर मँगवाता था, ताकि गिनकर हिसाब रख सके।
ऐसे अनेक सेनापति हुए हैं, जो मारे गए सैनिकों के दाहिने कान या अँगूठे सबूत के तौर पर अपने सैनिकों से मँगवाते थे और तभी उन्हें पारितोषिक देते थे। अकबर ने चित्तौड़ के किले को कब्जे में लेने के बाद राजपूतों की अनगिनत हत्याएँ की थीं। उसने मृत राजपूत सैनिकों के जनेऊ जमा करके तुलवाए थे। यह वजन 74.5 मन हुआ था।
अटीला की क्रूरता के कारण उसे 'स्कर्ज ऑफ गॉड' कहा जाता था।
इन सबके विपरीत हमने सूरत की मुहिम में देखा है कि शिवाजी को छल से मार डालने का प्रयत्न हुआ, फिर भी उन्होंने अपना संयम नहीं खोया एवं कत्लेआम की घोषणा नहीं की, बल्कि अपने सैनिकों को ऐसा करने से रोका। इसीलिए इतिहास शिवाजी को जिनेवा युद्ध संधि का जनक कह सकता है।

6. विश्व विजेता होने की लालसा
संसार के सभी महान् योद्धाओं में विश्व विजेता की लालसा धधक रही थी। वे अमर हो जाने के लिए इतने तड़प रहे थे कि अपने अहंकार को पहचान भी नहीं पाते थे। कालजयी सत्ता पाने के लिए वे इतने उन्मत्त थे कि किसी भी हद तक कुछ भी कर सकते थे। प्रजा की भलाई की उन्हें कोई चिंता नहीं थी। प्रजा उनके लिए सिर्फ शतरंज के मोहरों जैसी थी, जिन्हें चाहे जैसे सरकाया जा सकता था।
ये योद्धा महान् तो क्या थे, सिर्फ नामचीन ही थे। ये स्वयं का पराक्रम सिद्ध करने के लिए अपनी ही सेना की बलि देने से भी नहीं हिचकते थे। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है नेपोलियन का रूस पर आक्रमण। इस आक्रमण के लिए नेपोलियन ने जब कूच किया था, तब उसके सैनिकों की संख्या 4 लाख थी, लेकिन जब वह हार थककर वापस लौटा, तब उसके सैनिक सिर्फ 10 हजार रह गए थे। जबकि शिवाजी महाराज का आजन्म आचरण इसके विपरीत रहा। उन्होंने व्यक्तिगत महिमा बढ़ाने के लिए कभी कोई युद्ध नहीं किया। उनका एक एक युद्ध अपनी प्रजा के लिए स्वराज्य प्राप्त करने के लिए था। शिवाजी अपने सैनिकों की प्राण रक्षा करने को अत्यधिक महत्त्व देते थे। उन्होंने अपने सैनिकों से हमेशा यही कहा कि शत्रु को टक्कर अवश्य दो, किंतु यदि वह अधिक बलशाली साबित हो रहा हो, तो झाँसा देकर सामने से हट जाओ। तभी तो तुम युद्ध भूमि में दुबारा आ सकोगे और शत्रु को नष्ट कर सकोगे। यदि तुम ने पहली ही कोशिश में अपने प्राण दे दिए, तो लौटकर वापस कैसे आओगे? ज्यादा-से-ज्यादा जिंदा रहो, ताकि ज्यादा से ज्यादा शत्रुओं को नष्ट कर सको। शिवाजी राजपूतों की जौहर परंपरा के सख्त खिलाफ थे। जौहर में कभी-कभी एक ही युद्ध में तीन पीढ़ियों के योद्धा नष्ट हो जाते थे; जैसा कि चित्तौड़ में सन् 1303, 1535 और 1658 में हुआ था।
शिवाजी महाराज स्वराज्य की कामना के साथ तो लड़ ही रहे थे, विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध भी लड़ रहे थे। एडॉल्फस गस्टावस, हॉनीबॉल और विलियम वॉलेस ने भी कमोबेश उसी भावना के साथ युद्ध किए थे, जो शिवाजी महाराज की भावना थीस्वतंत्रता की प्राप्ति एवं स्वराज्य की स्थापना।

7. व्यक्तिगत जीवन
शिवाजी महाराज का व्यक्तिगत जीवन अत्यंत पवित्र व निर्मल था। पराई स्त्री को उन्होंने हमेशा अपनी माता के समान ही माना। उनका वाक्य “अशीच अमुची आई असती सुंदर रूपवती” विश्व प्रसिद्ध है। सुंदर स्त्री को देखकर उन्होंने सदैव अपनी माता को ही याद किया।
सन् 1657 में शिवाजी महाराज की ओर से आबाजी सोनदेव ने कल्याण पर हमला किया। उस हमले में कल्याण के सूबेदार मुल्ला अहमद और उसकी सुंदर बहू को कैद कर लिया गया। आबाजी सोनदेव ने मिली हुई लूट के साथ बहू को भी शिवाजी के सामने पेश किया। तब शिवाजी ने उसे देखते ही कहा “काश! हमारी माता भी इतनी सुंदर होती, तो हम भी ऐसे ही सुंदर हो जाते!” इन शब्दों के साथ शिवाजी ने उसे बाइज्जत उसके पति
के पास भेज दिया।
जबकि दूसरी ओर जो दृश्य है, वह तो ऐसा है कि रोम-रोम काँप जाएँ।
एलेक्जेंडर (सिकंदर) समलैंगिक था। जूलियस सीजर और क्लियोपैट्रा का ऐशो-आराम कितना बढ़ा-चढ़ा था, दुनिया जानती है। अकबर जैसे मुगल सम्राट् के जनानखाने में 5000 से ज्यादा स्त्रियाँ थीं। औरंगजेब ने अपने बड़े भाई दारा की हत्या करवाने के बाद दारा की दोनों बेवाओं के साथ निकाह करना चाहा था। एक बेवा बाकायदा उसकी बीवी बन गई थी, किंतु दूसरी बेवा ने, जो हिंदू वंश की थी, औरंगजेब को किस प्रकार सबक सिखाया था, यह हम पढ़ चुके हैं।
चंगेज खान एक ही रात्रि में एकाधिक स्त्रियों का बलात्कार करता था। अटीला की आठवीं शादी में, पहली रात्रि के अवसर पर ही, दुलहन ने छुरा भोंककर दूल्हे अटीला की हत्या कर दी थी! कुछ इतिहासकारों की राय में उस रात अटीला की मौत अत्यधिक शराब पीने के कारण उसके गले की रक्तवाहिनियाँ फट जाने से हुई थी। नेपोलियन तो छैल-छबीला था ही, उसकी पत्नी जोसफिन भी उससे दो कदम आगे थी; वह भी खुल्लमखुल्ला।
नामचीन विदेशी योद्धाओं के बीच अपवाद-स्वरूप केवल एडॉल्फस गस्टावस और विलियम वॉलेस ही रह जाते हैं, जो भोग-विलास के अतिरेक से बचे हुए थे।

8. कैद एवं पलायन
उपरोक्त योद्धाओं में से केवल चंगेज खान, रिचर्ड द लॉयन हार्ट और जूलियस सीजर ऐसे थे, जिन्हें कैद भुगतनी पड़ी थी। चंगेज खान ने कैद की सजा चुपचाप भुगत ली थी, क्योंकि उस समय वह बहुत छोटा था रिचर्ड द लॉयन हार्ट और जूलियस सीजर ने धन देकर कैद से छुटकारा पाया था। विलियम वॉलेस को धोखे से पकड़कर, देशद्रोह का आरोप लगाकर मृत्यु दंड दिया गया था।
शिवाजी अकेले योद्धा हैं, जिन्हें आमंत्रण देकर आगरा के मुगल दरबार में बुलाया गया और फिर सम्मान देने की बजाय कैद कर लिया गया। उन्होंने युक्ति लड़ाकर बेहद चमत्कारिक तरीके से उस कैद से छुटकारा पा लिया और पलायन किया। पलायन भी उन्होंने अकेले नहीं किया। उनके साथ 1498 व्यक्ति आगरा आए थे। उन्हें आगरा में ही छोड़कर शिवाजी महाराज ने यदि अकेले पलायन किया होता, तो वे सभी व्यक्ति बादशाह औरंगजेब की हिरासत में आ जाते और शायद मौत के घाट उतार दिए जाते। महाराज अपने सभी 1498 व्यक्तियों को अपने साथ लेकर पलायन कर गए। इतनी बड़ी भीड़ पलायन कर गई और बादशाह के कारिंदों को तत्काल कुछ पता ही नहीं चला! शिवाजी स्वयं तो कैद से मुक्त हुए ही, साथ में अपने 1498 व्यक्तियों को भी उन्होंने उनके प्रदेश में सुरक्षित पहुँचाया।
शिवाजी का यह पलायन संसार के सबसे अनोखे पलायन के रूप में देखा जाता है।
नेपोलियन को दो बार कैद हुई थी। पहली बार वह एल्बा से भागा। दूसरी बार वह सेंट हेलेना से भाग नहीं सका और वहीं उसकी मृत्यु हुई।

9. असहयोग एवं विद्रोह
भारत पर आक्रमण करने के पश्चात् एलेक्जेंडर (सिकंदर) के सैनिकों ने उसके साथ असहयोग किया था।
जूलियस सीजर का सीनेट में खून कर दिया गया था।
विलियम वॉलेस के साथ विश्वासघात हुआ था।
रिचर्ड द लॉयन हार्ट की छावनी में फ्रेंच सेना ने असहयोग किया था।
ओहदेदारों को विद्रोह करने की सूझे ही नहीं, इस गरज से सम्राट् अकबर ने ओहदेदारों की बेटियों को कैद कर अपने जनानखाने में रख लिया था। चंगेज खान ने भी ऐसा ही किया था। हॉनीबॉल के साथ स्वयं उसी के देश कार्थेज ने धोखा किया था, जिससे हॉनीबॉल को कार्थेज छोड़ना पड़ा था।
नेपोलियन से तंग आकर फ्रांस के राजकर्ताओं ने उसे दो बार कारागार में डाला था।
एडॉल्फस गस्टावस एवं अटीला की सेना ने उनके साथ कभी धोखा नहीं किया था।
शिवाजी महाराज के साथ भी कभी असहयोग नहीं हुआ। उन्होंने अपनी सेना में स्वराज्य की ऐसी जोत जगाई थी कि शिवाजी जब आगरा में नजरबंद थे और उनके छूटने की संभावना बहुत कम थी, तब भी एक भी सेनानायक उनका विरोधी नहीं बना था।
शिवाजी के बड़े बेटे संभाजी अवश्य इसका अपवाद थे, किंतु संभाजी के विद्रोह के पीछे कुछ खास कारण भी थे, जिनकी मीमांसा हम पहले कर आए हैं। ताज्जुब की बात यह है कि जिन संभाजी ने शिवाजी से विद्रोह किया, उसी संभाजी के साथ शिवाजी के सैनिकों ने भरपूर सहयोग उस वक्त किया था, जब औरंगजेब दक्षिण में आया था। तब शिवाजी के सैनिक संभाजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए और 27 वर्षों तक औरंगजेब से लड़ते रहे।

10. कमांडो रेड
उपर्युक्त सभी योद्धाओं ने किलों या शहरों को घेरकर जीत हासिल की। अकबर ने चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करते समय सबात का प्रयोग किया। रिचर्ड द लॉयन हार्ट यरुशलम को जीत नहीं सका। हॉनीबॉल ने संपूर्ण इटली पर अपना प्रभाव जमाया, किंतु रोम में वह असफल रहा। चंगेज खान घेरे डालने के लिए आत्मघाती सैनिकों की टोलियाँ रवाना करता था। औरंगजेब 27 वर्ष घेरे पर घेरे की रणनीति में फँसा रहा।
इसके विपरीत शिवाजी महाराज ने एक ही समय में कम-से-कम सैनिक बल इस्तेमाल करते हुए अपने लक्ष्य को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त किया। मसलन, सिंहगढ़ पर एक ही रात में कब्जा जमा लिया। शाइस्ताखान को एक ही रात में तीन उँगलियाँ काटकर कहीं का नहीं रखा। अफजल खान को गिनती के ही क्षणों में मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार फौरन हरकत में आकर फौरन नतीजे देनेवाले सैनिक पैंतरों को ‘कमांडो रेड’ कहते हैं।

11. समाज-सुधार
एलेक्जेंडर, सीजर, हॉनीबॉल, अटीला, रिचर्ड, चंगेज खान व औरंगजेब; इन योद्धाओं को समाज सुधार से कोई मतलब नहीं था। इस संदर्भ में अपवादस्वरूप एडॉल्फस गस्टावस का नाम लिया जा सकता है, जिसने एक विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। अकबर ने समाज सुधार के लिए कुछ योजनाएँ बनाईं।
किंतु शिवाजी महाराज ने अपनी अराजक स्थितियों से जूझते हुए भी चार जबरदस्त सामाजिक सुधार किए
1. सती प्रथा पर।
2. छुआछूत पर रोक।
3. गुलामी की प्रथा से छुटकारा।
4. धर्म परिवर्तन किए लोगों का शुद्धीकरण।
भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में भी शिवाजी ने उस वक्त क्रांति ला दी, जब उन्होंने ‘मराठा राजभाषा कोश’ का निर्माण किया। एक साथ इतने रूढ़ क्षेत्रों में लगातार एवं सफलतापूर्वक कार्य करनेवाला राजनेता शिवाजी महाराज के सिवा दूसरा कोई नहीं है। उस समय तो नहीं ही था, आज भी नहीं है।
शिवाजी महाराज ने स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए समाज व राजनीति को प्रभावित किया। शिवाजी सर्वथा निष्पाप जीवन जीते थे। वे केवल साहसी नहीं थे, समझदार भी थे। राजनीति, धर्म, संस्कार, संस्कृति, न्याय, शिक्षा, भाषा, विश्वास - अंधविश्वास, धार्मिक सौहार्द, पर्यावरण आदि अनेक परस्पर भिन्न क्षेत्रों में वे एक साथ संचरण करते थे। ऐसी कोई कुप्रथा नहीं थी, जिसे उन्होंने जड़-मूल से नष्ट नहीं किया, ताकि समाज में स्थायी सुधार हो सके।

12. नई युद्ध-नीति
उपर्युक्त सभी योद्धाओं ने संपूर्ण समाज में सुधार करने एवं स्वतंत्र जलसेना की स्थापना करने जैसे कार्य किए ही नहीं, जबकि ये कार्य शिवाजी महाराज के जीवन की उपलब्धियाँ थे।
हॉनीबॉल सामाजिक कार्यों अथवा सैनिक दाँव-पेंच के क्षेत्र में शिवाजी महाराज के सामने कुछ भी नहीं था, किंतु उसने एक ऐसा साहसिक कार्य किया था, जिसके लिए सारा संसार आज भी उसका लोहा मानता है। हाथी पहाड़ नहीं चढ़ सकते, लेकिन हॉनीबॉल के हजारों हाथी एक साथ आल्प्स पर्वत की हिमाच्छादित ऊँचाइयों पर चढ़े और फिर सुरक्षित नीचे भी उतरे। हॉनीबॉल की भीमकाय हाथी सेना ने जब अचानक इटली में प्रवेश किया, तो सब डर गए। हॉनीबॉल ने इतनी बड़ी सैन्य- कल्पना की और फिर उसे आजमाकर देखने में भी सफलता पाई; यह बात आज भी असंभव लगती है।

13. गुलामी खत्म
उपरोक्त योद्धाओं ने गुलामी प्रथा का विरोध नहीं किया। विरोध करना तो दूर, उलटे उन्होंने गुलामी जैसी जघन्य प्रथा को बढ़ावा दिया। उन्होंने केवल अपने लाभ को देखा। गुलामों का वे मनचाहा शोषण कर सकते थे। गुलामों को वे युद्ध के मैदान में भी उतारते थे। गुलाम स्त्रियों के यौन शोषण का कोई अंत नहीं था। शत्रु की जब हार हो जाती, तो रनिवास की सारी स्त्रियाँ पकड़कर गुलाम बना ली जातीं । राज घराने की स्त्रियों को भी न छोड़ा जाता। ऐसी हतक से बचने के लिए ही भारत में जौहर प्रथा शुरू हुई थी। ज्यों ही राजा के हारने की खबर आती, महलों की सारी स्त्रियाँ विशाल अग्नि- कुंडों में एक-दूसरे के हाथ पकड़कर, ऊँचाइयों से चीखती हुई कूद जातीं और जीवित ही भस्म हो जातीं। गुलामी से बचने के लिए इतनी भीषण चेष्टा संसार के अन्य किसी देश में नहीं होती थी।
शिवाजी महाराज के प्रदेशों में डच, फ्रेंच, पुर्तगीज इत्यादि विदेशियों द्वारा मनुष्यों की खरीद-फरोख्त हो रही है, ऐसा समाचार पाते ही उन तमाम विदेशियों को महाराज ने इतने कड़े शब्दों में चेतावनी दी थी कि गुलामी की कुप्रथा महाराज के राज से सर्वथा लुप्त हो गई थी। यूरोपीय देशों एवं अमेरिका में भी जब गुलामी प्रथा धड़ल्ले से जारी थी, तब शिवाजी ने अपने स्वराज्य में उसका सफाया कर दिया था। शिवाजी विश्व के सर्वप्रथम राज्यकर्ता थे, जिन्होंने गुलामी की कुप्रथा से रूबरू होते ही उसका सफाया कर दिया। ऐसा शिवाजी ही कर सकते थे। किसी और में न तो इतना विवेक था और न ही इतनी शक्ति थी कि गुलामी को समाप्त कर सकता।

14. ईश्वरीकरण
इतिहास का अवलोकन करने पर कुछ ऐसे राज्यकर्ता उभरकर आते हैं, जो स्वयं की सफलता को पचा नहीं पाए। वे अपने आपको इतने महान् एवं श्रेष्ठ समझने लगे, जैसे साक्षात् ईश्वर! मनोविज्ञान में इस विकार को 'मैग्लोमेनिया' कहते हैं। इसके लक्षण हैं— खुद को अति भव्य, अति ज्ञानी, अति महत्त्वपूर्ण, अति शक्तिशाली व अति भाग्यवान समझना। हिंदी में इसे 'ईश्वरीकरण' कहा जाता है।
उपरोक्त शासक बाकायदा घोषित किया करते थे कि वे दैवी पुरुष हैं और उनमें साक्षात् ईश्वर का अंश है, वे साक्षात् ईश्वर ही हैं। यह मनोभ्रम उनके समग्र विवेक पर छा जाता। इतनी बेपाए की बात पर वे शासक स्वयं तो यकीन करते ही अपनी प्रजा को भी मजबूर कर देते कि सब उन्हें ईश्वर ही मानें, ईश्वर की ही तरह उनकी पूजा करें, सामने आते ही साष्टांग प्रणाम करें, बिलख-बिलखकर दुःखड़े रोएँ और पूरे यकीन के साथ 'ईश्वर' का आशीर्वाद ग्रहण करें, जिससे चुटकियों में उनके समस्त कष्टों का निवारण हो जाए!
एलेक्जेंडर (सिकंदर), जूलियस सीजर, अकबर, औरंगजेब, चंगेज खान और अटीला, ये सब अपने आपको ईश्वर ही समझने लगे थे।
शिवाजी ऐसे मतिभ्रम के शिकार कभी नहीं हुए। उन्हें आभास तो था कि कोई दैवी शक्ति उनकी रक्षा करती है; तभी तो वह प्रचंडतम परिस्थितियों में भी अपना बचाव कर लेते हैं, लेकिन ऐसा उन्होंने कभी नहीं कहा, न ही कभी सोचा कि वह ईश्वर के अवतार हैं अथवा साक्षात् ईश्वर हैं। उन्होंने मात्र इतना कहा कि उनका यह जो राज्य है, यह श्री (भगवान्) की इच्छा एवं कृपा से है। उन्होंने सभी धर्मों की सभी धर्म ग्रंथों की, एक जैसी कद्र की। उन्होंने मंदिर बनवाए, तो मसजिदें भी बनवाई। शिवाजी महाराज निस्संदेह सहिष्णुता के समुद्र थे। उनके जैसी सहिष्णुता आज हम इक्कीसवीं सदी में भी शायद ही किसी में देख पाते हैं।
शिवाजी के अनुसार स्वराज्य स्वयं ही ईश्वर का अवतार है। स्वराज्य हमें वही संरक्षण देता है, जो ईश्वर देता है। स्वराज्य की पूजा ही ईश्वर की पूजा है।

15. देहावसान :
एलेक्जेंडर 32 साल की उम्र में ही युद्ध के जख्मों के कारण मर गया। जूलियस सीजर की मृत्यु सीनेट के 23 सदस्यों द्वारा किए गए सामूहिक कत्ल के कारण हुई। हॉनीबॉल ने विफलता के आतंक से डरकर आत्महत्या कर ली। विलियम वॉलेस को फाँसी देकर उसके शव के पाँच टुकड़े किए गए। अटीला की आठवीं पत्नी ने शादी की पहली रात को ही छुरा मारकर उसका खून कर दिया!
रिचर्ड द लॉयन हार्ट और एडॉल्फस गस्टावस, इन दोनों की मौत युद्ध-भूमि में हुई। नेपोलियन को कैद करके आर्सेनिक विष दे दिया गया।
औरंगजेब को अपनी जिंदगी के आखिरी 27 वर्ष राजधानी से दूर, दक्षिण भारत में, विफलताओं के बीच गुजारने पड़े।
शिवाजी महाराज अत्यंत अस्थिर एवं कष्टप्रद जीवन जीते थे। उन्होंने हमेशा अपनी सेना के सामने रहकर ही युद्ध किया, जो कि उपर्युक्त योद्धाओं ने नहीं किया।
देहावसान से पहले शिवाजी के अंतःकरण को दुःखी करनेवाली एक ही बात थी और वह थी, उनके ज्येष्ठ पुत्र संभाजी का विद्रोह। अथक परिश्रम से स्थापित किए गए स्वराज्य का भविष्य क्या है, इसे लेकर भी शिवाजी महाराज अत्यंत चिंतित रहे। इस संदर्भ की सभी संभावनाओं को ध्यान में रखकर उन्होंने एक योजना बनाई थी, जिसका वर्णन हम पूर्ववर्ती पृष्ठों पर कर चुके हैं।
सफलताओं एवं संघर्ष का सिंहावलोकन करने के बाद महाराज ने महसूस किया था कि उनकी संपूर्ण महत्त्वाकांक्षाएँ पूर्ण हो गई हैं। उन्होंने मराठा समाज को एकता के सूत्र में बाँध लिया था एवं स्वराज्य का एक राष्ट्र के रूप में निर्माण भी कर लिया था। यह उन्हीं का प्रताप था कि जिससे मराठा अस्मिता का एक स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित हो सका।
1 मार्च, 1680 को महाराज रायगढ़ आए। 7 मार्च को उनके कनिष्ठ पुत्र राजाराम का जनेऊ संस्कार किया गया और 15 मार्च को उसकी शादी सेनापति हम्बीरराव मोहिते की बेटी से की गई। करीब 22 मार्च को महाराज को पेचिश की शिकायत हुई। शुरू में उसका स्वरूप घातक नहीं था, इसलिए उस वक्त मोरोपंत पेशवे, अनाजीचंद्र सुरनीस, जनार्दन पंत हणमंते, हबीरराव मोहिते, नीराजी पंत न्यायाधीश जैसे अष्टप्रधान वहाँ मौजूद नहीं थे।
पेचिश चंद दिनों में इतनी गंभीर हो गई कि शिवाजी महाराज अपने होश खो बैठे। ऐसी परिस्थिति में किसी के ध्यान में ही नहीं आया कि महाराज का वारिस कौन बनेगा। न स्वयं शिवाजी ने ऐसी कोई घोषणा की और न ही इस विषय पर किसी प्रकार की लिखा-पढ़ी की गई।
इतना जरूर था कि महाराज को अपना अंतिम समय निकट होने का आभास हो चुका था। उन्होंने अपने अंतरंग व्यक्तियों को पास बुलाया और समझाते हुए कहा “दुःखी मत होइए। यह तो मृत्यु-लोक है। यहाँ जो आता है, जाने के लिए ही आता है। यही तो है जीवन की गति। आपको यहाँ अपना काम निर्मल बुद्धि से करते रहना है। अब आप हमें अकेला छोड़ दें। हमें श्री भगवान् का स्मरण करना है।”
इस तरह मुँह में गंगाजल, माथे पर चंदन का तिलक, गले में रुद्राक्ष की माला और होंठों पर 'शिव शिव राम' के उच्चारण के साथ उनका देहावसान हुआ। यह अवसान उनके समकक्ष सभी योद्धाओं की तुलना में अत्यंत सुख-शांति एवं संतुष्टि से परिपूर्ण था।

मरणोत्तर :
एलेक्जेंडर (सिकंदर) की मृत्यु के बाद सिर्फ पाँच वर्ष में ही उसका धूमधाम से जीता हुआ साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गया। स्वयं उसी के सेनापति स्वतंत्र राजा बनकर शान से जीने लगे!
हॉनीबॉल और अटीला के साम्राज्यों का भी ऐसा ही हाल हुआ।
लेकिन जूलियस सीजर के नाम से अस्तित्व में आया जुलाई महीना आज भी मौजूद है। सीजर की मृत्यु के बाद हर रोमन सम्राट् ने 'सीजर' के नाम को अपनी उपाधि के रूप में धारण किया।
रिचर्ड द लॉयन हार्ट ने यरुशलम पर कब्जा करने के लिए भीषण युद्ध किया था, लेकिन सन् 1095 से 1272 तक, यानी 177 वर्ष और 10 धर्मयुद्धों (क्रूसेड्स) के बाद आज भी यरुशलम पर कब्जा ईसाइयों का नहीं है। इजराइल और पेलेस्टीन, ये दोनों देश उस पर अपना हक जताते हैं।
चंगेज खान को आज भी बहुत इज्जत दी जाती है, लेकिन सिर्फ मंगोलिया में शेष विश्व में उसे क्रूरता के ही प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
एडॉल्फस गस्टावस को स्वीडन में बहुत मानते हैं। वह स्वीडन का एक ही राजा है, जिसे 'डेन स्टोर दि ग्रेट' की उपाधि दी गई है।
नेपोलियन को आज तक कोई भी विश्लेषक इतिहासकार पूर्णतया नहीं समझ पाया। वह विश्व का सबसे विलक्षण सम्राट् समझा जाता है।
अकबर को ‘मुगल-ए-आजम’, ‘जोधा-अकबर’ और ‘अनारकली’ जैसी हिंदी फिल्मों ने प्रतिष्ठा की ऐसी जगमगाहट से ओत-प्रोत कर दिया है, जो वास्तविकता के साथ रंच मात्र भी मेल नहीं खाती। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अकबर को सर्व-धर्म-समभावी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सत्य ऐसा नहीं है। अकबर ने अपनी राजपूत पत्नी को धर्मांतरण करने पर मजबूर किया। उसके नाम की मसजिद जहाँगीर ने लाहौर में बनवाई। 1947 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में उसका कोई भी स्थान नहीं है। मतलब साफ है कि आम जनता में अकबर की छवि एक प्रेमी के रूप में है, न कि श्रेष्ठ या देशभक्त योद्धा के रूप में।
औरंगजेब को भारत का सबसे क्रूर राजकर्ता समझा जाता है। उसकी क्रूरता सिर्फ दुश्मनों तक सीमित नहीं थी । वह विश्व का एक ही राजकर्ता है, जिसने सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने पिता को कैद किया और अपने तीन भाइयों को मार डाला।
हमें मालूम है कि शिवाजी महाराज ने 350 किले (गढ़) बनाए या ठीक कराए थे। उन्हीं किलों की शक्ति से शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना की थी। महाराज हमेशा कहते थे कि औरंगजेब जल्द ही दक्षिण में आनेवाला है। अगर वह हर वर्ष हमारा एक किला छीनेगा, तो भी उसे 350 वर्ष लग जाएँगे, हमें परास्त करने में!
उस वक्त यह वाक्य सभी को अतिशयोक्ति-भरा लगा होगा, लेकिन आज 2016 में, यानी कि शिवाजी महाराज के अवसान के 336 वर्ष बाद, महाराष्ट्र में सभी सत्ताधारी दल शिवाजी महाराज का ही नाम लेकर राज्य कर रहे हैं। शिव सेना ने शिवाजी महाराज के नाम से भूमिपुत्रों के अधिकारों की रक्षा के लिए पक्ष की स्थापना की। शिवाजी महाराज के वंशज ही कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसे पक्षों की तरफ से राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक चुनावों में उम्मीदवारी करते हैं और विजेता होकर देश की सेवा में जुट जाते हैं। इसका एक ही अर्थ है कि शिवाजी महाराज आज भले ही प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं हैं और उनके किले भी युद्ध-स्तर पर सक्रिय नहीं हैं, किंतु महाराज के विचार आज भी महाराष्ट्र पर राज्य कर रहे हैं।
बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि भारत में भले ही लोकशाही है, किंतु महाराष्ट्र में आज भी शिवशाही है, क्योंकि चाहे कोई भी पक्ष सत्ता में आए, शासन तो वह महाराज का ही नाम लेकर करता है। शिवाजी महाराज इतिहास के एकमात्र शासक हैं, जिन्होंने अपने राज्य के बारे में 350 वर्ष बाद तक का विचार किया है।
गुरुवर्य राजवाडे ने शिवाजी महाराज के कार्यों का जो सिंहावलोकन प्रस्तुत किया है, वह उत्कृष्ट है।
शिवाजी महाराज ने सबके साथ न्याय का, नीति का, पराक्रम को पुरस्कृत करने का, स्व-धर्म-परायणता का एवं पर धर्म के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया। यह केवल शिवाजी महाराज ही थे, जिन्होंने एक साथ यह सब किया, अनेक लड़ाइयों में विजय प्राप्त की; मैदान में, सागर तट पर एवं पर्वतों पर तीन-चार सौ किलों का निर्माण किया। नई सेना तैयार की; नई जलसेना का मानो शून्य में से सृजन किया; मातृभाषा का महत्त्व बढ़ाया; कवियों एवं बुद्धिजीवियों को आश्रय दिया; नए शहर बनवाए; स्व-धर्म की स्थापना करके उसे समृद्धि दी, सार यह कि स्वदेश का उद्धार करके एवं मातृभूमि को स्वतंत्र व सुखी करने का उत्कृष्ट कार्य करने के फलस्वरूप इस पृथ्वी का संरक्षण किसी ने अगर किया, तो वह शिवाजी महाराज ही थे। उनका व्यक्तिगत व्यवहार एवं सार्वजनिक पराक्रम इतने श्रेष्ठ थे कि यदि उनकी तुलना समकालीन योद्धाओं व हस्तियों के साथ की जाए तो यही निष्कर्ष निकले कि शिवाजी महाराज के जैसा सर्व गुण संपन्न व्यक्ति कोई अन्य था ही नहीं।
निस्संदेह वे एक अवतारी पुरुष थे। उनके बारे में लिखते हुए स्वामी रामदास समर्थ कहते हैं कि उनके गुण इतने महान् थे कि उनकी तुलना कैसी और किससे? यशवंत, कीर्तिवंत, सामर्थ्यवंत, वरदवंत, नीतिवंत, ज्ञानी, आचारशील, विचारशील, दानशील, कर्मशील, सर्वज्ञ, धर्ममूर्ति, दृढनिश्चयी, अखंड उद्देश्य धारण करनेवाला राजयोगी। ऐसे अनेक विशेषणों से स्वामी रामदास समर्थ ने शिवाजी महाराज को विभूषित किया है।
शिवाजी महाराज के गुणों की श्रेष्ठता आसानी से समझ में आती है। जिस पुरुष को कोई व्यसन नहीं था, जिसने पर स्त्री को माता के समान माना, जिसने अपने धर्म के साथ दूसरे धर्मों का भी आदर किया, युद्ध में जख्मी हुए शत्रु को जिसने उपचार करवाकर उसके घर भेजा, जिसने फौज, किले, जलसेना आदि के समायोजन से स्वराज्य के संरक्षण की योजनाएँ बनाई, जिसने सबसे पहले स्वयं को संकट में डालकर लोगों को मातृभूमि की सेवा करना सिखाया, जिसने अनेक के प्राण केवल अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करके बचाए, जिसने औरंगजेब के समान पराक्रमी बादशाह के भगीरथ प्रयत्नों को लगातार 30 वर्षों तक रोके रखा; इतना ही नहीं, जिसने तीन राज्यों को हराकर संपूर्ण भरत खंड में अभूतपूर्व स्वतंत्र स्वराज्य की स्थापना की एवं उसकी कीर्ति पृथ्वी पर अजर अमर की, उस प्रतापी पुरुष की योग्यता का वर्णन करने की क्षमता भला किसमें है?
पूना के महल में औरंगजेब का शाइस्ताखान जैसा शक्तिशाली सूबेदार, साथ में अन्य सूबेदार भी, 5 वर्षों तक डटे रहे; सिर्फ शिवाजी का दमन करने के लिए। उनके शिकंजे से बचे रहने का प्रयास भी केवल तब हो सकता था, जब शौर्य के साथ-साथ धन का भी संबल उपलब्ध होता। धन-संवर्द्धन के लिए शिवाजी ने सूरत का रुख किया। सूरत की नाक दबाकर शिवाजी ने अपने स्वराज का इतना आर्थिक संवर्द्धन किया कि उसी की शक्ति से उन्होंने औरंगजेब के सूबेदारों के शिकंजे से छुटकारा पाया और उन्हें सबक भी सिखाया। शिवाजी के इस युद्ध कौशल की प्रशंसा इतिहास में हमेशा होती रहेगी।
किसी के भी तुष्टीकरण के लिए उसे जागीर या जमीन के टुकड़े न बाँटनेवाले, पक्षपात-रहित न्याय करनेवाले, दुष्टों के लिए काल एवं प्रजा के लिए संरक्षक साबित होने वाले, प्रजा को अपनी ही संतान की तरह चाहनेवाले, हमेशा सावधान एवं कार्यरत रहने वाले, माता के हर वचन का पालन करनेवाले, हमेशा राष्ट्र की ही भलाई चाहनेवाले, स्वदेश-स्वभाषा-स्वधर्म को संपत्ति मानकर उनकी रक्षा एवं संवर्धन करनेवाले, हर बुराई से डरने वाले, किंतु शूरवीर; इन तमाम गुणों से युक्त शिवाजी महाराज एक अद्वितीय राज्य-संस्थापक थे।
वे प्राचीन पुण्यवान् व्यक्तियों की श्रेणी में रहने योग्य हैं।

इस ग्रंथ में किए गए विवेचन से आशा है कि शिवाजी महाराज सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ राज्यकर्ता के रूप में उभरकर सामने आएँगे और आने वाली पीढ़ी भी उनके इस स्वरूप से सहमत होंगी और उनके आदर्शो पर चलने का प्रयास करेगी।
इसी प्रकार व्यक्ति के रूप में भी शिवाजी महाराज आज तक के ज्ञात इतिहास के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों में सबके समकक्ष मान्य होंगे।