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मौहब्बत की किताब...

वो कटघरें में दाखिल हुई तो उससे वकील साहिबा ने पूछा...
"क्या नाम है तुम्हारा?और तुम इन हालातों तक कैसें पहुँची?"
"जी!मैं आज सब कुछ सच सच कहूँगी,कुछ भी झूठ नहीं कहूँगी",वो युवती बोली...
"तो बताओ क्या क्या हुआ तुम्हारे साथ?", वकील साहिबा ने पूछा....
"जी!सब बताती हूँ "और इतना कहकर उस युवती ने बोलना शुरु किया....
मेरा नाम महिमा है,मैं मेरठ की रहनेवाली हूँ,मेरे पिता बहुत ही शरीफघराने से ताल्लुक रखते थे,उनकी कपड़ों की दुकान थी,मेरी माँ मुझे जन्म देते ही मर गई थी इसलिए मेरे पिता मेरे लिए एक सौतेली माँ ले आएं,लेकिन मेरी सौतेली माँ बहुत अच्छी थी,उसने मेरी परवरिश के लिए अपनी खुद की सन्तान पैदा नहीं की,मुझे बहुत ही प्यार और दुलार से पाला,मुझे काँलेज में पढ़ाने के लिए मेरे पिताजी को मनाया,मैं काँलेज में बी.ए.द्वितीय वर्ष में पढ़ रही थी तभी मेरी मुलाकात अमरनाथ नाम के लड़के के साथ हुई और फिर धीरे धीरे हमारी मुलाकातें मौहब्बत में तब्दील हो गईं,मैं उसके साथ घूमने फिरने जाने लगी,कभी कभी मौका मिलता तो हम फिल्म देखने भी चले जाते,लेकिन उन सभी मुलाकातों में अमर ने कभी अपने परिवार का जिक्र नहीं किया,बस उसने ये बताया कि वो दिल्ली का रहने वाला है....
मेरे घर में एक बूढ़ी औरत काम किया करती थी,उसका एक जवान बेटा ,जिसका नाम शिवकान्त था जो मेरे साथ ही काँलेज में पढ़ा करता था,वो कभी कभी अपनी बूढ़ी माँ को लिवाने हमारे घर आता था ,इसलिए मैं उसे पहचानती थी और वो मुझे पहचानता था उसने जब मुझे अमर के साथ घूमते हुए देखा और मेरे बारें में दुनियाभर की बातें सुनी तो एक रोज उसने काँलेज में मुझे टोकते हुए कहा....
"रूकिए!छोटी मालकिन!मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करनी है"
मैनें चिढ़ते हुए कहा....
"जल्दी कहो,मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है"
तब वो बोला...
"दरअसल बात ये है छोटी मालकिन कि पूरे काँलेज में आपकी और अमर की बातें हो रहीं हैं,सब कहते हैं कि वो अच्छा लड़का नहीं है,अगर ये सब आपके घरवालों को पता चला तो उन पर क्या बीतेगी?जरा सोचिए!मैं नहीं चाहता कि आपकी और आपके घरवालों की बदनामी हो"॥
उसकी बात सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैनें उसे एक झापड़ रसीदते हुए कहा....
"अपने काम से काम रखो,मेरे मामले में टाँग अड़ाने की कोई जरूरत नहीं है,नौकर की औलाद होकर मुझे नसीहत देता है,तू कौन होता है मेरा बुरा भला तय करने वाला,आज के बाद फिर कभी मेरे मामले में दखल दिया तो मुझसे बुरा कोई ना होगा"
और फिर उस दिन के बाद शिवकान्त ने मेरे मामले में कभी भी दखल ना दिया,ऐसे ही दिन गुजरे तो मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ,ये बात मैनें अमर से कही तो वो बोला.....
"मेरी जान!तुमने तो मुझे खुश कर दिया,ऐसा करो इतवार की रात तुम अपने घर से मेरे साथ दिल्ली चलो,वहीं चलकर हम शादी कर लेगें,वैसे तो मैं तुम्हें मारवाड़ी चाय की दुकान पर मिलूँगा लेकिन अगर मैं तुम्हें वहाँ पर ना मिलूँ तो तुम दिल्ली जाने वाली ट्रेन में चढ़ जाना,फिर दिल्ली पहुँचकर टैक्सी पकड़कर मेरी मौसी के घर चली जाना,मेरी मौसी बहुत अच्छी है,इस पर्ची में मैनें मौसी का पता लिखा दिया है,कोई भी टैक्सी वाला तुम्हें पहुँचा देगा"
तब मैनें अमर से पूछा...
"मैं मौसी के घर क्यों रहूँगी?तुम्हारे घर क्यों नहीं?"
तो अमर बोला....
"जब तक मम्मी पापा नहीं मान जाते तो तब तक तुम मौसी के घर रह लो,मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकती"
और फिर अमर की बात मानने के सिवाय मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था,इतवार वाली रात मैनें माँ की अलमारी से कुछ जेवर चुराएं और पिता की अलमारी से कुछ नगदी निकालकर एक सूटकेस में रख लिए ,साथ में कुछ पोशाकें भी रख लीं और सबके सो जाने के बाद मैं आधी रात के वक्त घर से निकलकर रेलवें स्टेशन पहुँचीं,फिर मैं मारवाड़ी चाय की दुकान पहुँची,वहाँ पहुँची तो अमर मुझे नहीं दिखा,लेकिन मुझे वहाँ शिवकान्त दिख गया जो चाय के जूठे गिलास धो रहा था,वैसे तो मैनें दुपट्टा ओढ़ा हुआ था लेकिन फिर भी मुझे उसने पहचान लिया और मुझसे बोला.....
"छोटी मालकिन!आप यहाँ!इस वक्त"
तब मैनें कहा....
" मैं अमर के साथ दिल्ली जा रही हूँ,उससे शादी करूँगीं"
वो बोला....
"मालकिन समय रहते समझ जाइएं वो अच्छा इन्सान नहीं है"
मैनें उससे कुछ नहीं कहा और वहाँ मैं अमर को ढूढ़ने लगी,लेकिन वो मुझे कहीं ना मिला,तब मैनें दिल्ली की ट्रेन का टिकट कटवाया और ट्रेन में जा बैठी,सुबह तक स्टेशन पहुँच गई लेकिन वहाँ स्टेशन पर भी अमर मौजूद नहीं था,इसलिए मैनें एक टैक्सी पकड़ी और अमर की मौसी के घर के पते पर चली गई,वहाँ जाकर देखा कि मौसी का घर तो बहुत ही आलीशान था,मैनें दरवाजे पर लगी घण्टी बजाई तो नौकरानी ने दरवाजा खोला,मैनें तब उससे कहा.....
"मुझे अमर ने भेजा,मुझे सुनीता मौसी से मिलना है"
नौकरानी भीतर गई और बाहर एक थुलथुल सी बेडौल मगर खूबसूरत सी महिला बाहर आकर बोली.....
"अरे!महिमा!तुम आ गई,अमर ने मुझे सब बता दिया है ,आओ....भीतर आओ...."
तब मैनें पूछा....
"आपने मुझे कैसे पहचाना?"
तब वें बोलीं....
"अमर ने तुम्हारी इतनी तारीफ की है कि पूछो ही मत,इसलिए मैनें जान लिया कि तुम जैसी सुन्दर लड़की महिमा ही हो सकती है"
फिर सुनीता मौसी मुझे एक कमरें में ले गई,कमरा बहुत ही सुन्दर था उन्होंने मुझे बाथरूम दिखाया और हाथ मुँह धोने को कहा,मैं जब बाथरूम से लौटी तो मेरे लिए गरमागरम नाश्ता मौजूद था,पूरियाँ,आलू की सब्जी और जलेबियाँ,मैं भूखी तो थी ही इसलिए खाने पर टूट पड़ी,खाना खाते ही मुझे जोरों की नींद आने लगी तो मौसी ने कहा कि थोड़ी देर सो लो फिर आराम से बाद में बातें करेगें,उनके कहने पर मैं सो गई और जब जागी तो बिस्तर से मेरे हाथ पैर बँधे थे,मुझे कुछ समझ नहीं आया इसलिए मैनें चीखने की कोशिश की लेकिन मेरे मुँह पर भी पट्टी बँधीं थीं,तब मौसी आई और उसने कहा कि ऐसे हाथ पैर मारने से कुछ नहीं होगा,तुझे अमर ने पचास हजार में हमें बेच दिया है उसका यही काम है हमारी बात नहीं मानी और ज्यादा चूचपड़ की तो तेरे मुँह और बदन पर तेज डाल दिया जाएगा,फिर जिन्दगी भर ये बदसूरत शकल लेकर घूमती रहना,तब भी मैनें उन लोगों की बात नहीं मानी तो उन्होंने मुझे तीन रोज तक खाना और पानी नहीं दिया,इसके कारण मेरा गर्भपात हो गया और मेरी तबियत बहुत बिगड़ने लगी और अपनी जान बचाने के लिए मुझे उन लोगों की बात माननी पड़ी,फिर डाक्टर आई और उसी कमरें में रहकर मेरा इलाज किया गया और ठीक हो जाने पर मुझे उस धन्धे में उतरना ही पड़ा,वो काम करते करते अब मुझे चार साल गुजर चुके थे और उन लोगों को मुझ पर भरोसा हो गया था कि मैं अब उन लोगों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी, इसलिए अब वो मुझे छुट्टी वाले रोज बाहर घूमने जाने देते क्योंकि हफ्ते में मुझे एक छुट्टी दी जाती थी और उस रोज मैं घूमते घूमते चाँदनी चौक जा पहुँची,घूमते घूमते मुझे चाय की तलब लगी और में एक छोटी सी चाय की दुकान पर चाय पीने जा पहुँची वहाँ मुझे शिवकान्त दिखा,मुझे देखते ही बोला....
"छोटी मालकिन आप! और यहाँ पर!
मैं उसे देखकर थोड़ा घबरा गई लेकिन फिर भी हिम्मत करके पूछा....
"बाबूजी! कैसें हैं?
तब वो बोला....
"उन्हें तो उसी रात दिल का दौरा पड़ गया था और आपकी माँ ने फिर इस सदमे से परेशान होकर फाँसी लगा ली"
ये सुनकर मुझे चक्कर सा आ गया और मैं गिरने को हुई तो शिवकान्त ने मुझे सम्भालते हुए कहा...
" जरा हौसला रखिए छोटी मालकिन"
फिर मैनें उससे पूछा...
"कहाँ रहते हो और कब से हो यहाँ"शादी हो क्या तुम्हारी?
"यहीं पास में एक कमरा है किराए का,माँ के मरने के बाद मैं दिल्ली चला आया",अभी शादी नहीं की,वो बोला...
"मुझे अपने कमरें ले चलोगे"मैनें कहा....
"हाँ!चलिए"मैं मालिक को बोलकर आता हूँ"
इतना कहकर उसने मालिक से छुट्टी माँगी और मैं उसके साथ उसके कमरें आ गई,शाम हो चली थी लेकिन मेरा सुनीता मौसी के घर जाने का मन नहीं था इसलिए मैनें उससे पूछा...
"मैं यहाँ रात को ठहर जाऊँ तो"
वो बोला ठीक है मुझे कोई दिक्कत नहीं लेकिन मुझे अभी दुकान पर फिर से जाना होगा क्योंकि मालिक से कह कर आया हूँ कि अभी थोड़ी देर में आता हूँ और इतना कहकर वो चला गया,उसके जाते ही मैं ने देखा कि कमरा बिलकुल छोटा सा है एक सीलिंग फैन लगा था और एक बल्ब की रोशनी उस कमरें के अँधेरे को ढ़ँक रही थी,एक छोटी सी चारपाई थी,बगल में छोटा सा बाथरूम था,एक अलमारी में कुछ किताबें थीं ,मैनें किताबें टटोलनी शुरू की तो एक डायरी मिली जिस पर लिखा था मौहब्बत की किताब ,मैनें उसे खोला तो वहाँ पर लिखा था ये किताब मेरी प्रेयसी महिमा के नाम है, मैं उससे बहुत मौहब्बत करता था, करता हूँ और आगें करता रहूँगा,मैं ने आगें पढ़ा तो उसमें मुझसे पहली मुलाकात से लेकर अन्तिम मुलाकात तक का जिक्र था,वो डायरी पढ़कर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे,फिर मैं कुछ देर उस डायरी को अपने सीने पर रखकर यूँ ही रोती रही,जब रोते रोते मेरा जी भर गया तो फिर मैनें उस डायरी को उठाकर वहीं पर रख दिया,रात के करीब नौ बजे शिवकान्त कमरें में आया ,वो साथ में दोनों का खाना लेकर भी आया था,हम दोनों ने साथ में खाना खाया ,फिर शिवकान्त बोला....
"मालकिन! आप चारपाई पर सो जाओ,मैं नींचे चटाई पर सो जाता हूँ"....
और फिर हम दोनों अपने अपने बिस्तर पर लेट गए तो मैनें शिवकान्त से पूछा....
"तुमने शादी क्यों नहीं की?"
"बस ऐसे ही"वो बोला...
"तुमने ये नहीं पूछा कि मैं क्या करती हूँ?"मैनें कहा...
"मुझे जानना भी नहीं है"वो बोला....
"मैं धन्धा करती हूँ,सुना तुमने"मैं ने कहा...
"क्या फरक पड़ता है इससे,मेरे लिए तो आप वही हैं और हमेशा वही रहेगीं" वो बोला....
फिर कमरें में खामोशी छाई रही,हम दोनों में कोई बात नहीं हुई और हम दोनों सो गए,सुबह मैं वहीं रूक गई फिर मेरा वापस जाने को मन ना हुआ,वो शाम को खाना और मेरे लिए कुछ कपड़े लेकर लौटा,हमने खाना खाया और सो गए,दूसरे दिन मैं उससे कहकर वापस चली गई ,मौसी ने पूछा तो कह दिया कि किसी ग्राहक के साथ थी और अगली छुट्टी पर वापस शिवकान्त के वापस आ गई,ऐसे ही मैं ने कई छुट्टी शिवकान्त के कमरें में बिताई लेकिन फिर मौसी को खबर हो गई और उसने उसे जेल में डलवा दिया,शिवकान्त के मालिक ने कहा कि जमानत के लिए दस हजार रूपए लगेगें,इसलिए मैं वापस मौसी के घर अपने रूपए वापस लेने गई तो वहाँ उससे मेरी झड़प हो गई और उसने मेरे चेहरे पर तेजाब डाल दिया लेकिन मैं हिम्मत करके बाहर की ओर भागी और वहाँ शोर मचाना शुरु कर दिया,वहाँ लोगों ने मुझे देखा तो अस्पताल ले गए,फिर पुलिस आई, मैनें अपनी बात उनसे कही,उन्होंने मौसी को गिरफ्तार कर लिया और शिवकान्त को छोड़ दिया गया ,बस यही कहानी थी मेरी.....
ये कहते कहते महिमा चुप हो गई,फिर अदालत की कार्यवाही के बाद महिमा अदालत से बाहर आई तो शिवकान्त उसकी राह ताँक रहा था,शिवकान्त ने महिमा से अपने कमरे चलने को कहा,फिर महिमा शिवकान्त के साथ उसके कमरें आ गई,शिवकान्त चारपाई पर जा बैठा और महिमा अलमारी से उसकी डायरी को उठाकर उसके पास लाकर बोलीं....
"इतनी मौहब्बत करते हो मुझसे कि मेरे नाम की मौहब्बत की किताब लिख डाली और मैं तुम्हें कितना गलत समझती रही,मुझे माँफ कर दो"
तब शिवकान्त बोला....
"क्या फरक पड़ता है तुम क्या थी और क्या हो,तुम सुन्दर हो या नहीं,तुम तो मेरे लिए वही हो जिससे मैनें प्यार किया था,करता हूँ और करता रहूँगा,"तो बताओ अब मुझसे शादी करोगी",इस मौहब्बत की किताब का सपना सच करोगी"
ये कहते कहते शिवकान्त की आँखें भर आईं और उसकी बात सुनकर महिमा रोते हुए उसके पैरों पर बैठ गई....

समाप्त.....
सरोज वर्मा.....


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