सर जदुनाथ पूछते हैं कि शिवाजी ने स्वराज की स्थापना की या क्रिगस्टाट स्थापित किया ? ‘क्रिगस्टाट’ यानी ऐसा शासन, जो केवल युद्ध अथवा लूटमार करके जीवित रह सकता हो। अलाउद्दीन खिलजी और तैमूर लंग की फितरत यही थी। क्या शिवाजी भी उन्हीं के जैसे निर्ममता के अवतार थे?
सर जदुनाथ सरकार ने यह सिर्फ पूछा नहीं है। उत्तर भी उन्होंने स्वयं ही दे दिया है। सर जदुनाथ सरकार कहते हैं, “मैं शिवाजी को लुटेरा नहीं मानता। शिवाजी महाराज का अधिकांश जीवन घोर लड़ाइयों में बीता था। अपने अल्पकालीन जीवन में उन्हें शांति के क्षण कम ही मिल सके।”
अपने राजनैतिक विचारों का उपयोग करने का समय उन्हें नहीं मिल सका, जो दुःख की बात है। शत्रु उनके आसपास ही लगातार उपस्थित रहा। शत्रुओं का सामना करने में ही महाराज का संपूर्ण जीवन बीत गया राज्याभिषेक के बाद भी उन्हें अपने राज्य को व्यवस्थित करने का समय नहीं मिल सका।
ऐसे हालात में भी शिवाजी ने अपने आज्ञापत्रों के माध्यम से तलवारों की लड़ाई को बुद्धि की लड़ाई में तब्दील किया और अपने शत्रुओं को न केवल हराया, बल्कि उन्हें हीन-बुद्धि भी साबित किया। इससे शिवाजी महाराज की मानसिक बनावट का परिचय मिलता है।
सर जदुनाथ सरकार का मंतव्य यही है।
किंतु शिवाजी पर लुटेरा होने का आरोप लगाने वालों की भी कमी नहीं है। शिवाजी ने जिस तरह सूरत को लूटा, उससे ऊपरी तौर पर यही लगता है कि उनकी कार्य-शैली लुटेरों जैसी थी। भीतरी परतें उकेरकर देखें, तो असलियत कुछ और सामने आती है।
सूरत की लूट के दौरान ही शिवाजी ने स्पष्टीकरण दे दिया था कि वे क्यों ऐसा कर रहे हैं। उनका स्पष्टीकरण दो-टूक शैली में है और बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने सूरत के प्रशासकों से साफ कहा कि तुम्हारे बादशाह ने मेरे राज्य में घुसकर धमाचौकड़ी मचाई और प्रजा को हानि पहुँचाई। उसकी तोड़-फोड़ की कारवाई को रोकने के लिए मुझे सेना लेकर आना पड़ा। तोड़फोड़ करने वह दुबारा आने का साहस न करे, इसके लिए मुझे अपनी सेना को बढ़ाना भी पड़ा। इससे मेरी सेना का खर्च वर्तमान में तो बढ़ा, भविष्य के लिए भी बढ़ गया। मैं तुम्हारे बादशाह से अपनी सेना का खर्च वसूल करने आया हूँ।
आगे शिवाजी कहते हैं, “वैसे भी मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि औरंगजेब की दाढ़ी खींचूँ। सूरत की लूट से वह इच्छा पूरी हो गई!”
क्या इस बात से शिवाजी महाराज की व्यंग्य-शक्ति नहीं उजागर होती और क्या व्यंग्य-शक्ति बौद्धिक शक्ति का ही एक रूप नहीं? यह प्रसंग शिवाजी को एक कठोर राजनीतिज्ञ के रूप में भी प्रस्तुत करता है, जो “जैसे को तैसा” में यकीन रखते थे और इस यकीन को बेखौफ प्रकट भी कर सकते थे। इसमें जो सूझ समझ और साहस है, उससे क्या साबित होता है? क्या शिवाजी औघड़ लुटेरे थे या शातिर राजनीतिज्ञ थे?
शिवाजी ने एक नई शैली की राजनीति स्थापित की थी, जिसमें शत्रु को सबक सिखाने के लिए लूट का सहारा लेना पड़े, तो इसकी भी छूट थी। महाराज स्पष्ट कहते थे कि शत्रु के साथ तभी तक भिड़ो, जब तक तुम्हारे अपने प्राणों पर घात न आए। प्राणों पर घात आते ही पीछे हट जाओ, पलटकर गायब हो जाओ, ताकि मौका मिलते ही वापस आ सको, दुबारा वार करने के लिए। अगर पहले ही संघर्ष में तुमने अपने प्राण दे दिए, तो तुम्हें शहीदों जैसा सम्मान तो मिलेगा, लेकिन दोबारा वार नहीं कर सकोगे। तुम्हें तो बार-बार लौटकर आना है, वार करने के लिए अपने प्राणों को बचाकर रखना तुम्हारा अधिकार है और यही तुम्हारी युद्ध-शैली भी है।
शक्तिशाली शत्रु से संधि कर लो, ताकि तुम्हारी सेना को हानि न पहुँचे। शत्रु ज्यों ही वापस जाए, संधि तोड़ दो। शत्रु दुबारा आए, तो दुबारा संधि कर लो। किला माँगे, किला दे दो। इलाका माँगे, इलाका दे दो। शत्रु लौटकर तो जाएगा ही। ज्यों ही लौटकर जाए, जो भी दिया हो, सब वापस छीन लो।
ऐसी विस्फोटक राजनीति की कल्पना करना भी आसान नहीं है, स्थापना करना तो दूर की बात है, लेकिन शिवाजी ने इस रणनीति का न केवल आविष्कार किया, बल्कि उसे स्थापित भी किया। उन्होंने साबित कर दिखाया कि धार्मिक उन्माद से, उग्रता और क्रूरता के अतिरेक से राज्य स्थापित नहीं होता। राजनीति और रणनीति भी स्थापित नहीं होती। शक्ति का सामना युक्ति से करो। आघात का सामना पैंतरे से करो । जो गुड़ से मर सकता हो, उसे गुड़ से ही मारो। उसे विष देने की क्या जरूरत? ऐसी विस्फोटक सोच और उसका क्रियान्वयन! यह उसी के लिए संभव है, जो स्वराज्य-कल्याण एवं समाज कल्याण के लिए तीव्र इच्छा रखता हो और जिसे राजनीति की सूक्ष्मतम जानकारी हो। ऐसे गुण किसी महान् व्यक्ति में ही हो सकते हैं।
ब्रिटिश राजनीतिज्ञ फिशर ने राजनीतिज्ञ की व्याख्या करते हुए कहा है “अपनी नीतियों को अमलीजामा पहनाने के लिए आसपास मौजूद शक्तियों एवं स्वयं के सामर्थ्य का अंदाजा लेकर उनका उपयोग इस प्रकार करना कि अधिक से अधिक फल प्राप्ति हो; ऐसा जो कर सके, वह है राजनीतिज्ञ।”
इटालियन राजनीतिज्ञ काउंट केव्योर का कहना है, “राजनीति का अर्थ है, किसी भी परिस्थिति में क्या और कितना संभव हो सकता है और कितना संभव नहीं हो सकता, इसका ज्ञान होना।”
शिवाजी अपने समय के श्रेष्ठतम विधायक एवं राष्ट्र निर्माता थे। वे हर तरह से जीनियस थे। उन्होंने अपने शासन एवं प्रशासन का निर्माण स्वयं किया। किसी भी देशी या विदेशी बुद्धिजीवी की सहायता उन्होंने अपने प्रशासन में नहीं ली। मराठा सेना को प्रशिक्षित उन्होंने स्वयं किया एवं सेनापतियों को भी स्वयं ही चुना। सेनापतियों एवं अन्य अधिकारियों ने अपने कर्तव्य का पालन पूरी लगन से किया। शिवाजी ने जो भी निर्माण किया, वह चिर काल तक टिका।
शिवाजी के आगमन से पहले मराठे केवल मुसलमानों की सेना में भरती होते थे और इसके लिए बाकायदा कीमत अदा करते थे। युद्धभूमि में शत्रु का सामना करने के लिए सबसे पहले मराठों को उतारा जाता था। शिवाजी पहले राजनेता थे, जिन्होंने मराठों को ललकारा। उन्होंने मराठों को उनके गुणों से परिचित कराया और यकीन दिलाया कि वे युद्ध में अपना नेतृत्व स्वयं ही करने की क्षमता रखते हैं। शिवाजी ने स्वयं के आचरण का आदर्श उनके सामने रखा और सिद्ध किया कि वे राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। वे शत्रु को हरा सकते हैं और यदि शत्रु बलशाली है, तो साहस के साथ उसे टक्कर दे सकते हैं। वे अपनी ललित कलाओं, साहित्य, व्यापार एवं उद्योगों की रक्षा स्वयं कर सकते हैं और साथ में विस्तार भी। वे युद्ध-नौकाएँ बना सकते हैं और समुद्री व्यापार भी कर सकते हैं। शिवाजी ने उन सबको स्वयं के कल्याण की उच्चतम सीमा प्राप्त करने की प्रेरणा दी, जो अनेक पीढ़ियों से बतौर नौसैनिक काम कर रहे थे। शिवाजी महाराज ने भारतीय समुद्र में संचरण कर रही विदेशी जलसेनाओं को भी आत्म-निर्भरता प्राप्त करने की प्रेरणा दी।
किंतु शिवाजी को अपने जीवन काल में कभी भी, किसी भी अनुभवी एवं पुराने योद्धा अथवा मंत्री का मार्गदर्शन नहीं मिला। अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने से पहले उन्होंने किसी भी दरबार में या सेना में प्रशिक्षण नहीं लिया, न ही इन स्थानों में कभी अपने कदम रखे। स्वराज्य की स्थापना का कठिन कार्य उन्होंने स्वयं की स्फूर्ति, बुद्धि एवं व्यावहारिक चतुराई के बल पर संपन्न किया।
शिवाजी अपने आदरणीय गुरु स्वामी रामदास से अत्यंत घनिष्ठ थे। यह घनिष्ठता 1674 के बाद हुई, ऐसा माना जा सकता है, क्योंकि राज्याभिषेक के दस्तावेजों में स्वामी रामदास का उल्लेख कहीं नहीं है। सन् 1676 में शिवाजी ने जन साधारण के लिए सज्जनगढ़ का किला छोड़ दिया। ‘हिंदू राज्य का उदय हो रहा है।’ यह देखकर स्वामी रामदास भी, अन्य साधु-संतों की तरह हर्षित हुए होंगे। आम जनता को ‘शिवाजी की जीत यानी हमारी जीत!’ अथवा ‘शिवाजी पर संकट यानी हम पर संकट!’ हमेशा ऐसा ही महसूस होता था। ठीक यही भावना स्वामी रामदास के भी मन-मस्तिष्क में आती होगी, यह निश्चित है।
एक मनोरंजक दंतकथा शिवाजी एवं स्वामी रामदास के बारे में प्रसिद्ध है—
स्वामीजी रोज भिक्षा माँगने घर-घर घूमा करते थे। शिवाजी ने स्वामीजी के मठ को भरपूर दान-दक्षिणा दी थी, फिर भी वे भिक्षा क्यों माँगते हैं, इसे समझना शिवाजी के लिए मुश्किल था।
एक दिन शिवाजी महाराज ने अपने संपूर्ण राज्य का करारनामा स्वामी रामदास की झोली में डाल दिया। स्वामीजी ने उसे स्वीकार भी कर लिया और शिवाजी को उपदेश दिया “हे, राजन् ! आज से यह राज्य भले ही मेरा है, किंतु मेरी ओर से इसका संचालन तुम्हीं करोगे। राज्य करते समय ध्यान में रखना कि तुम्हारा प्रत्येक कार्य ऐसा हो कि जिसे ईश्वर मान्य रखे।” (‘हे राज्य व्हावे हीच श्री ची इच्छा!’)
इस उपदेश का पालन करते हुए शिवाजी ने भगवा झंडे को अपना राज-चिह्न बनाया एवं जीवन भर मात्र ईश्वर की तरफ से ईश्वर के सेवक की हैसियत से राज्य किया।
महाराज का ध्येय था कि प्रजा शांति से रहे और अपनी धार्मिक सहिष्णुता में कोई कमी न आने दे। हर व्यक्ति को उसकी जाति का प्रश्न बीच में लाए बिना, समान अधिकार मिले। प्रशासन के सभी कार्य स्वच्छ रहें और ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की भावना की रक्षा करें।
शिवाजी के पास आने वाले हर व्यक्ति को उसकी रुचि एवं पैदाइशी गुणों के आधार पर उचित कार्य मिलता ही था। यदि स्वराज्य में न मिलता, तो किसी दूसरे प्रांत में दिलवाया जाता। जन-सेवा के ऐसे कार्यों से शिवाजी के प्रति आम जनता के मन में शुभकामनाओं का सागर लहराने लगता।
शिवाजी क्या कहते थे?
“ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जिसमें कोई औषधि नहीं।
ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो स्वराज्य के लिए उपयोगी नहीं।”
स्वराज्य की स्थापना के प्रारंभ से ही महाराज के सामने एक बात सुस्पष्ट थी; वह यह कि उन्हें निजी खजाने में धन-दौलत की वृद्धि नहीं करनी है। बेशक धन उन्हें लगातार चाहिए था, लेकिन इकट्ठा करने के लिए नहीं, बल्कि खर्च करने के लिए। महाराज एक साथ तीन-तीन बादशाहों से लड़ रहे थे। आदिलशाही, निजामशाही और मुगलशाही। ये तीनों बादशाह भरपूर शक्तिशाली थे। उन्हें न धन की कमी थी, न सेना की कमी थी। शिवाजी को दबोचने की कारवाई ये तीनों एक साथ करते रहते। तीन प्रचंड सेनाओं के विरुद्ध शिवाजी के पास जो सैन्य बल था, उसकी कोई बिसात नहीं थी। शिवाजी को अपनी सेना लगातार बढ़ाते रहनी पड़ती। सेना बढ़ती, तो खर्च बढ़ जाता। मनुष्य-बल बढ़ाओ, पशु-बल बढ़ाओ, धन बल बढ़ाओ, बारूद बंदूक का बल भी बढ़ाओ, किले बढ़ाओ, किलों की मरम्मत करो, खर्च का कोई ओर-छोर नहीं था।
आज के आधुनिक समय में हम आप अंदाजा लगा ही नहीं सकते कि शिवाजी हर महीने अपनी सेना को कितनी बड़ी राशि का भुगतान करते रहे होंगे। खर्च कम करने के लिए सेना में कटौती करना किसी भी तरह मुनासिब नहीं था। सेना को तो हर महीने बड़ा ही किया जाना था, क्योंकि तीन ताकतवर शत्रु तीन तरफ से घातक हमले किए जाते, किए जाते.......
सेना के एक-एक विभाग के एक एक व्यक्ति को खुश व संतुष्ट रखना जरूरी था। यह धन से ही हो सकता था। जो महान् कार्य शिवाजी ने अपने हाथ में ले रखा था; स्वराज्य का इस प्रकार संचालन कि जब शिवाजी न रहें, तब भी स्वराज्य का बाल बाँका न हो.. इस महान् कार्य को क्या वे बीच में छोड़ देते? सवाल ही नहीं था। रही बात धन की, तो उसका इंतजाम किया जाएगा। जब भी इंतजाम नहीं हो पाएगा, तब शिवाजी पड़ोस के शत्रुओं के इलाकों में जा लूटमार करेंगे। हाँ, लूटमार! अरे, शत्रु की तो जान भी ली जा सकती है। लूटमार में तो सिर्फ धन लूटा जाएगा.......
स्वराज्य से जुड़े महान् सपने को पूरा करने के लिए चाहे जो करना पड़े, शिवाजी करने को तैयार थे; बल्कि कर ही रहे थे। वे अच्छी तरह समझते थे कि सेना में अनुशासन का रथ दो पहियों से चलता है। एक पहिया तो शिवाजी के प्रति वे स्नेह और आदर हैं, जो स्वराज्य के हर सैनिक के दिल में भरपूर मौजूद है। दूसरा पहिया है, धन, नकद धन।
हर महीने धन। बिल्कुल सही तारीख पर तनख्वाह-रूपी धन!
किसी भी सूरत में इस धन को बाधित नहीं होना चाहिए।
आज के जमाने मे आक्रमण होने पर कई राष्ट्र अपने नागरिकों पर कर बढ़ाते हैं। शिवाजी के वक्त क्या जनता पर कर बढ़ाया गया?
चाहे कितना ही बढ़ाएँ, जनता इतना कर तो कभी नहीं दे सकेगी कि सेना को हर महीने वेतन निर्बाध मिलता रहे। जनता तो वैसे ही बहुत कर दे रही है। उसे बढ़ाएँगे, तो शिवाजी के प्रति, स्वराज्य के शासन-प्रशासन के प्रति जनता के मन में जो स्नेह सहयोग बसा हुआ है, वह लुप्त होने लगेगा। जनता का स्नेह-सहयोग तो स्वराज्य की सबसे बड़ी शक्ति है। उसी में कमी आई, तो कहीं स्वयं स्वराज्य ही भहराकर न बैठ जाए! फिर तो जिस महान् कार्य को संपन्न करने का सपना देख रखा है, वही छिन्न भिन्न हो जाएगा!
नहीं! शिवाजी महाराज ऐसा नहीं होने दे सकते। सपने को बचाने के लिए, स्वराज्य के एक-एक बाशिंदे के कल्याण के लिए महाराज की सेना लूटमार भी करेगी। जो नए-नए किले बनवाने हैं, पुराने किलों का रखरखाव जो करना है, क्या उसका बोझ जनता पर लादा जाए? नहीं, हम यह बोझ अपने शत्रुओं पर लादेंगे!
यहाँ विश्व-विख्यात लुटेरे मुहम्मद गजनवी की याद आएगी ही। उसने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया था। हर आक्रमण में उसने हिंदू प्रजा के रक्त की नदियाँ बहाई थीं और मंदिरों से सोना-चाँदी, हीरे-मोती लूट-लूटकर अपने पिटारे भरे थे। हर आक्रमण में मुहम्मद गजनवी ने जो अकूत धन-संपत्ति लूटी थी, उसका तो कोई हिसाब ही नहीं। उसी मुहम्मद गजनवी की मौत जब नजदीक आई, तो वह फूट-फूटकर रोने लगा, क्योंकि उतना बड़ा खजाना, जो उसने इकट्ठा किया था, धरती पर ही छूट जाने वाला था। खुदा के पास जाने के लिए तो उसे खाली हाथ ही रवाना होना था।
इसके विपरीत, शिवाजी ने धन का ऐसा निरर्थक संग्रह कदापि नहीं किया। उनकी लूटमार भले ही केवल शत्रु के इलाकों में की जाती थी, लेकिन यहाँ भी नैतिकता के नियम बँधे हुए थे।
मुसलमान जब लूटने निकलते थे, तब उनके एक हाथ में तलवार होती और दूसरे हाथ में आग। गरीब-अमीर सबको वे काटते जाते और लूटते जाते। घर-बार, बच्चों-सहित समूचे परिवार, पालतू जानवर, सब जला डालते। ऐसा क्रूर व्यवहार शिवाजी के सैनिकों ने कभी नहीं किया। कहाँ, कब लूट मचाई जाए, इसका फैसला करने से पहले गुप्तचर रवाना करके सब जानकारियाँ ले ली जातीं। कौन से इलाके में कौन-कौन व्यक्ति ऐसे हैं कि जिनके पास अनापशनाप धन है। बस, उन्हीं को लूटना है। गरीबों को, आम जनता को बिल्कुल नहीं सताना है।
जिन्हें लूटना है, उन्हें भी जान से नहीं मार डालना है। सिवा धन छीनने के, और किसी भी तरह का दबाव उन पर नहीं डालना है। उनकी महिलाओं के सम्मान को जरा भी आँच नहीं आनी चाहिए। बुजुर्गों और बच्चों की पूरी रक्षा होनी चाहिए। अपनी मरजी से जो स्वयं धन दे दें, उनके साथ दोस्ताना बरताव ही करना है। जो स्वयं देने से इनकार करें, केवल उन्हीं के साथ सख्ती बरतनी है।
ये नियम शिवाजी महाराज ने बहुत सोच-समझकर बनाए थे। इन नियमों को उन्होंने कभी टूटने नहीं दिया। तात्पर्य यह कि जो लोग शिवाजी महाराज को लुटेरा कहते हैं, देश के बाहर से आए क्रूर आक्रमणकारियों के साथ उनकी तुलना करते हैं, महाराज की निंदा करते हैं, अवहेलना करते हैं, वे यह सब अल्पबुद्धीवश ही गलत ही करते हैं। शिवाजी महाराज की स्थितियाँ क्या थीं, मजबूरियाँ क्या थीं, सपने क्या थे और जिद क्या थी, आदि तमाम बातों को ध्यान में रखकर सोचें, तभी हम उस महापुरुष के वास्तविक कद का हलका सा अंदाजा लगा सकें.......
धन प्राप्त करने के लिए लूटमार करने का एक उद्देश्य और भी था। शिवाजी सोचते थे कि लोग मुसलिम बादशाह को जितना कर देते हैं, उतना न दें। कुछ कम दें। यही ‘कुछ कम’ वे शिवाजी महाराज को दे दिया करें। इससे शिवाजी की शक्ति बढ़ेगी।
दूसरी ओर, कर वसूली कम होने की वजह से बादशाह की शक्ति घटेगी। मराठों की शक्ति बढ़ना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है बादशाह की शक्ति घटना। शक्ति घटने से बादशाह को महसूस होगा कि मराठे मजबूत हैं। उनसे सीमित संघर्ष ही किया जाए। ज्यादा संघर्ष करेंगे, तो मराठे हमारी सत्ता का चलना मुश्किल कर देंगे।
शिवाजी की ओर से हमेशा कष्ट मिलते रहने के कारण आदिलशाह और कुतुबशाह, दोनों ने शिवाजी को वार्षिक रकमें देना स्वीकार कर लिया था। वार्षिक वसूली के अलावा चतुर्थांश उर्फ ‘चौथ’ की भी वसूली मराठों द्वारा की जाती थी। ‘सरदेशमुखी’ नामक कर भी मराठे अपने पड़ोसी राज्यों से वसूल करते थे। इसकी शुरुआत शिवाजी ने आदिलशाह के इलाकों से की थी। रोचक तथ्य यह है कि शिवाजी ने ऐसी कर वसूली की इजाजत बाकायदा मुगल बादशाह औरंगजेब से ले रखी थी! इलाका आदिलशाह का, इजाजत औरंगजेब की और कर-वसूली शिवाजी द्वारा!
ऐसी ही कर-वसूली शिवाजी महाराज, कुतुबशाह के इलाकों में भी करना चाहते थे और यहाँ भी वे औरंगजेब से ही इजाजत लेने का जुगाड़ कर रहे थे। औरंगजेब कर्नाटक में उलझ गया था, इस कारण इजाजत झटपट हाथ नहीं लग पाई, किंतु शिवाजी को यकीन था कि आज नहीं तो कल; इजाजत मिलेगी जरूर।
कहा तो यहाँ तक जा रहा था कि खुद औरंगजेब के दक्षिणी इलाकों में भी चौथ और सरदेशमुखी, इन दोनों करों की वसूली शिवाजी करने लगेंगे और उन्हें इसकी इजाजत भी औरंगजेब ही देगा! आह, क्या दृश्य होता! भारतवर्ष का सार्वभौम बादशाह
औरंगजेब और उसी औरंगजेब से इजाजत लेकर उसी के दक्षिणी इलाकों से कर वसूली करते शिवाजी! जो औरंगजेब के कट्टर दुश्मन के तौर पर मशहूर थे!
शिवाजी महाराज का अचानक अवसान हो जाने से उपरोक्त दृश्य साकार होने से रह गया। यदि वे जीवित रहते, तो इस दृश्य को साकार होने से कोई नहीं रोक सकता था।
कर वसूली का ऐसा अधिकार पाने की चेष्टा के पीछे शिवाजी का मूल उद्देश्य यही था कि भारत के यवन शासक, जो हिंदुओं से कर वसूल करके दिनोदिन अधिक अमीर, अधिक अहंकारी, अधिक शक्तिशाली और अधिक अत्याचारी होते जा रहे थे, उन पर कुछ तो अंकुश लगे। यदि उनके इलाकों में मराठों द्वारा कर वसूल किया जाएगा, तो उतना कर यवनों के खजानों में जमा न होकर मराठों के खजाने में आएगा, यानी एक कंकड़ से दो पक्षी मरेंगे! यवनों की हानि और मराठों का लाभ!
फिर भी; यहाँ एक प्रश्न तो उठता ही है। बादशाहों को कमजोर करने के लिए निरपराध प्रजा को कष्ट देना... क्या यह अनुचित नहीं, क्या यह पाप नहीं, क्या अच्छे कार्य को करने के लिए पाप का सहारा लेना सही है?
इसका उत्तर हम इसी प्रकरण में पहले दे चुके हैं कि शिवाजी जन-साधारण को कष्ट नहीं देते थे। केवल अमीरों को ही कष्ट देते थे। यह भी याद रखना होगा कि आर्थिक शक्ति पाने के लिए शिवाजी के पास लूटमार करना ही एकमात्र तरीका नहीं था। इतना तो निश्चित ही था कि अगर शिवाजी ने शत्रु के राज्य के धनीमानी हिंदुओं को ‘स्वराज्य’ एवं ‘स्वतंत्रता’ की संकल्पना समझाने की कोशिश की होती, तो कोई भी हिंदू साहूकार उनसे सहमत होने वाला नहीं था। शिवाजी की स्पष्ट राय थी कि यदि बहुतांश हिंदुओं का भला हो रहा हो, तो कुछेक धनीमानी लोगों को बस, थोड़े ही समय के लिए थोड़ा कष्ट झेलना पड़ जाए, तो इसमें आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
सन् 1565 में दक्षिण के हिंदू राज्य विजयनगर पर दक्षिण के पाँचों मुसलमान शाहियों ने आक्रमण किया। यह लड़ाई तालीकोट में हुई। इन पाँचों शाहियों, यानी आदिलशाही, बिदारशाही, कुतुबशाही, निजामशाही और इमादशाही की सेनाओं को विजयनगर की सेना शानदार मुकाबला दे रही थी और जीत भी रही थी। तभी अचानक, संयोग चक्र कुछ ऐसा घूमा कि विजयनगर के सम्राट् रामराजा का सिर शत्रु ने काट लिया। मात्र एक व्यक्ति का सिर कटा नहीं कि हाहाकार मच गया। रामराजा के सेनापति चीखते-चिल्लाते भागे। सेनापति भागे, तो सैनिक भी भागे। विजयनगर का साम्राज्य नष्ट हो गया।
लेकिन यदि सम्राट् के शिरच्छेद के बाद भी सेनापति न भागते, तो सैनिक भी न भागते। वे उस विजयनगर के सेनापति और सैनिक थे, जिन्होंने दो सौ सालों तक केवल जीत का आनंद लिया था; हार किसे कहते हैं, जो जानते ही नहीं थे। अपने सम्राट् के शिरोच्छेद का बदला लेने के लिए सेनापति और सैनिक अगर मैदान में ही डटे रहते, शत्रु की हर घात पर प्रतिघात करते, तो इतिहास कुछ और होता, लेकिन बस, एक व्यक्ति का सिर कटा और..
पानीपत के तीसरे संग्राम ( 14 जनवरी, 1761) में दोपहर तक विजयश्री मराठों की तरफ थी, लेकिन उनके नेता विश्वासराव को अचानक गोली लगी और वे वीर-गति को प्राप्त हो गए। यह देख सेनापति भाऊसाहेब पेशवा इतने शोकमग्न हो गए कि उन्होंने हाथी पर बैठने से ही इनकार कर दिया। उनका हाथी पर बैठना बहुत जरूरी था, ताकि वे तमाम सैनिकों को दूर से नजर आते रहते। सैनिकों को हौसला रहता कि हमारा सेनापति डटा हुआ है। ऐसी स्थिति के बावजूद सेनापति भाऊसाहेब पेशवा हाथी पर न बैठकर अपने घोड़े पर ही बैठे। सैनिकों की नजर से वे ओझल ही बने रहे। इससे विश्वासराव की मौत की खबर का सब पर बहुत बुरा असर पड़ा। सब चीखने लगे कि विश्वासराव तो गए, अब भाऊसाहेब पेशवा भी नजर नहीं आ रहे, यानी पेशवा भी गए। भागो!
सचमुच मराठा सैनिक जिधर भागने को मिला, उधर भागने लगे। हानि एवं पराजय मराठों के भाग्य में आई। दुर्रानी की जीत हुई। सिर्फ एक गोली, सिर्फ एक व्यक्ति विश्वासराव को लगती है और..
तालीकोट और पानीपत की दोनों घटनाओं में एक विलक्षण दृश्य बिल्कुल एक जैसा दिखाई देता है।
तालीकोट में सम्राट् रामराया ने घोड़े पर बैठने से इनकार कर दिया था। वह पालकी में बैठकर युद्ध -भूमि में आया। सेनापतियों ने उसे घोड़े पर बैठने की सलाह दी थी, ताकि वह सबको दूर तक नजर आए, लेकिन उसने पालकी में बैठना पसंद किया।
वैसे ही पानीपत में विश्वासराव की मृत्यु होते ही भाऊसाहेब को हाथी पर इस प्रकार बैठने की सलाह दी गई कि दूर से सबको नजर आते रहें, लेकिन भाऊसाहेब ने घोड़े पर ही बैठना पसंद किया।
उपरोक्त दोनों घटनाओं से यही सिद्ध होता है कि उन मौकों पर सैनिक, जो लड़ रहे थे, वे केवल अपने नेता का युद्ध लड़ रहे थे। वे स्वयं का युद्ध नहीं लड़ रहे थे। युद्ध के लिए कोई उदात्त भावना उनके मन में नहीं थी। नेता नहीं, तो युद्ध नहीं!
किंतु शिवाजी महाराज के बारे में ऐसा नहीं था। उनके संघर्ष को, उनके हर युद्ध को संपूर्ण राष्ट्र की स्वीकृति थी। उनका संघर्ष केवल उनका नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र का था। शिवाजी तो केवल एक प्रतीक थे; राष्ट्र की आकांक्षा के प्रतीक। अत्यंत ठोस एकता की भावना शिवाजी के पीछे थी।
तालीकोट एवं पानीपत से भी अधिक कठोर प्रसंग छत्रपति शिवाजी के जीवन में आए। तब छत्रपति शिवाजी ने स्वयं के युद्ध नहीं लड़े, बल्कि समग्र महाराष्ट्र की अस्मिता के युद्ध लड़े। इसीलिए शिवाजी अपने एक-एक सैनिक में प्रकट हुए और जीते; महाराष्ट्र की प्रतिष्ठा की तेजस्विता से ऊर्जा पाकर लड़े और जीते। घोर संकट में भी घबराहट उन्हें स्पर्श न कर सकी और वह निरंतर जायीष्णु एवं वार्धेष्णु ही बने रहे।
इसे सिद्ध करने के लिए यहाँ दो घटनाएँ संक्षेप में प्रस्तुत की जा रही हैं—
पहला उदाहरण:
शिवाजी को औरंगजेब ने आगरा में धोखा देकर नजरबंद कर लिया था। औरंगजेब के मेहमान बनकर शिव छत्रपति जब आगरा गए थे, तब अधिकांश मराठा प्रदेश औरंगजेब के सरसेनापति जयसिंह के अधिकार में आ चुका था। ऐसे में जब शिवाजी को कैद कर लिया गया, तब किसी को आशा नहीं थी कि वे जीवित वापस आ सकेंगे। ऐसे संकटकाल में भी शिवाजी के सेनापति, जो स्वराज्य के सूत्रधार थे, हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने शिवाजी की नीतियों एवं ध्येय का अनुसरण करते हुए, उनकी अनुपस्थिति में भी स्वराज्य की रक्षा की।
यह इसलिए संभव हुआ कि शिवाजी के सेनापति एवं सेनाधिकारी कोई निजी युद्ध नहीं लड़ रहे थे। न वह शिवाजी का निजी युद्ध था और न ही वह उन सेनानियों का निजी युद्ध था। वह तो समूचे राष्ट्र का युद्ध था; स्वराज्य की गौरवशाली अवधारणा का युद्ध।
दूसरा उदाहरण:
छत्रपति शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र छत्रपति संभाजी के भीषण वध की दुर्दांत घटना के बाद जो हुआ, उससे भी स्पष्ट है कि मराठों ने स्वराज्य के तमाम युद्धों को किसी निजी लाभ के लिए लड़ा ही नहीं था। वे सभी युद्ध केवल राष्ट्र भावना से लड़े गए थे। छत्रपति शिवाजी के अवसान के बाद लाखों की तादाद में सैनिक लेकर बादशाह औरंगजेब मराठा राज्य को धूल में मिलाने के लिए अनेक महीने महाराष्ट्र में आकर रहा। स्वराज्य के सेनानियों के पास इतनी शक्ति एवं साधन-संपत्ति थी ही नहीं कि भारत के सार्वभौम बादशाह औरंगजेब के सामने टिक सकते। ऐसे हालात में उन्हें अपने छत्रपति संभाजी के घोर निंदनीय वध का दुःख झेलना पड़ा। उनके छत्रपति को तब बंदी बनाया गया था, जब वे सावधान नहीं थे। उन्हें अकल्पनीय क्रूरता से मारा गया। उनकी आँखें निकाली गईं, जीभ काटी गई और फिर सिर काटकर उनके पार्थिव शरीर को प्राणांत के बाद भी अपमानित किया गया। उसमें औरंगजेब के आदेश पर घास भरी गई।
तब तक ऐसा समझा जाता था कि क्रूरतापूर्वक हत्या करने से लोग डर के मारे शरण में आ जाते हैं। इसलाम के प्रचारक योद्धाओं ने अपनी क्रूरता के अतिरेक से यही साबित किया था, लेकिन मराठों के स्वराज्य संघर्ष ने इस धारणा को सर्वथा असत्य साबित किया। वीर मराठों ने सदा-सदा के लिए साबित कर दिया कि क्रूरता का अतिरेक वीरों को भयभीत नहीं करता, बल्कि उन्हें और भी संगठित कर उनकी वीरता की अग्नि को तीव्र करता है।
संभाजी के बलिदान से मराठे मन से कमजोर नहीं हुए, बल्कि वे क्रोधित हुए। वे अपनी दयनीय दशा को देखते रह जाने पर मजबूर थे, लेकिन वे यह भी जानते थे कि उन्हें सदा के लिए कोई नहीं हरा सकता। समय बलवान है। मराठों का भी समय आएगा और वे मुगलों को नष्ट करेंगे।
किंतु वे वास्तव में नारकीय दुर्दशा झेल रहे थे। उनका छत्रपति मारा गया था। रानी और राजपुत्र मुगलों की कैद में थे। उनका वर्तमान नेता, छत्रपति राजाराम, दूर दक्षिण में जिंजी किले के आश्रय में था। उनकी राजधानी खत्म हो गई थी। सिंहासन नहीं था। राजछत्र की धज्जियाँ उड़ गई थीं।
ऐसी अवस्था में उन्होंने जो भी सामने आया, उसे नेता बनाया और जो भी हथियार हाथ में आया, उसे उठा लिया। उन्होंने खुले आकाश को अपना राजछत्र घोषित किया और छेड़ दिया नया धर्म युद्ध! जो मात्र सेनानियों का नहीं था, बल्कि महाराष्ट्र के एक-एक बाशिंदे का था। सब के सब आवेश में आकर औरंगजेब पर टूट पड़े। इससे पहले शिवाजी बस, एक ही थे, लेकिन अब घर-घर में शिवाजी ने अवतार ले लिया।
औरंगजेब की जबरदस्त सुरक्षित छावनी में औरंगजेब ने खुद अपनी आँखों से देखा कि मराठों ने अचानक छापा मारा है और मुगलों के तीन तंबू तबाह करके, उनके कलश काटकर वे ले जा रहे हैं। उन तीन में से किसी एक तंबू में औरंगजेब को होना चाहिए था। अगर वह सचमुच वहाँ होता, तो संताजी घोरपड़े की तलवार के एक ही वार से उसका सर कटकर धूल में मिल जाता।
लेकिन औरंगजेब उस वक्त वहाँ नहीं था। क्या यह केवल इत्तफाक का खेल था या खुदा की मेहरबानी थी? यकीनन वह खुदा की मेहरबानी ही थी, वरना औरंगजेब जिंदा बच नहीं सकता था।
जो औरंगजेब मराठों के स्वराज्य को दफन करने के इरादे से दो साल के लिए महाराष्ट्र आया हुआ था, उसे 27 साल के कड़े एवं निष्फल प्रयत्नों के बाद अपनी सेना सहित वहीं दफन होना पड़ा! ये घटनाएँ क्या सिद्ध करती हैं? यही कि शिव छत्रपति का संघर्ष उनका स्वयं का न होकर एक महान् राष्ट्र पुरुष का संघर्ष था। जीतने का निर्णय करने वाले शिवाजी महाराज मानवीय इच्छा शक्ति के उत्तम प्रतीक थे। इसीलिए वे केवल राज्य संस्थापक न होकर राष्ट्र निर्माता भी थे। वे केवल राज-पुरुष नहीं थे। वे राष्ट्र-पुरुष थे।
बहुत से लोग ऐसा समझते हैं कि शिव छत्रपति ने मराठा सत्ता का निर्माण किया, किंतु इतिहास को ठीक से समझने पर दिखाई देता है कि मराठा सत्ता तो पहले से मौजूद थी। सिर्फ इतना था कि वह इधर-उधर फैली हुई थी, जिसे शिवाजी महाराज ने एक बिंदु पर, एक धुरी पर एकत्र किया। महाराज ने उसे एक महान् ध्येय सूत्र से बाँधकर संगठित किया और उसे व्यापक तत्त्वज्ञान का आधार दिया। उन्होंने तीव्र संकट की निरंतर उपस्थिति से ऊर्जा लेकर जीवना-आकांक्षा का निर्माण किया। इसीलिए शिवाजी महाराज चिरंजीवी एवं प्राचीनतम भारतीय राष्ट्र के अखंड स्फूर्ति केंद्र भी थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे ऐसे ही स्फूर्ति केंद्र बने रहेंगे। ऐसी उनकी महानता है।
नए भारत के राष्ट्र पुरुषों में गिने जाते महादेव गोविंद रानाडे स्व-लिखित ग्रंथ ‘राइज ऑफ द मराठा पवर’ में कहते हैं—
“शिव छत्रपति ने मराठा शक्ति उत्पन्न नहीं की। वह शक्ति पहले से ही उपस्थित थी, किंतु वह जगह-जगह, छोटे-छोटे केंद्रों में केंद्रीभूत थी। शिव छत्रपति ने उदात्त संकट के विरुद्ध उसका उपयोग किया। शिव छत्रपति की सच्ची महानता यहीं प्रकट होती है। उन्होंने जो राष्ट्र कार्य किया, वही उनका मुख्य चरित्र है। इसी कारण वे अपने राष्ट्र बंधुओं में श्रद्धा के पात्र हैं। लोग उन्हें उनके राष्ट्र कार्यों के ही कारण ईश्वरीय सत्ता से सुशोभित उत्तम पुरुष के रूप में देखते थे। स्वयं शिवाजी को अनुभूति हुई थी कि वे किसी ईश्वरीय प्रेरणा के केंद्रबिंदु हैं। उन्होंने अपने आसपास के सभी लोगों में यही प्रेरणा शक्ति भर दी थी। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रेरणा अपने आप नवीकृत होकर आगे बढ़ती गई।
“प्रेरणा की यह ज्वाला अनेक पीढ़ियों तक प्रज्वलित होती रही, जब तक कि भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित नहीं हो गया। लगता है जैसे स्वयं शिव छत्रपति सूक्ष्म अवतार लेकर, अदृश्य, किंतु अखंडित क्रियाशीलता के साथ, प्रेरणा की इस मशाल को प्रज्वलन देते रहे। शिव छत्रपति के इस अलौकिक स्वरूप को ध्यान में लेकर सोचने पर महसूस होता है कि आत्म-सम्मान के साथ जीवन जीने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाले एक महान् राष्ट्र की रसभरी जीवन-शक्ति स्वयं ही साकार हुई थी, शिव छत्रपति के रूप में।
शिवाजी महाराज ने अपने महसूल अधिकारी को जो पत्र लिखा है, उसका विस्तार वैश्विक है एवं सर्व समावेशक है। संसार के किसी भी देश का महसूल अधिकारी, किसी भी काल में, अपने विभाग का कार्यभार सँभालते वक्त इस पत्र को एक आदर्श मार्गदर्शक के रूप में अपने सामने रख सकता है।
इस पत्र के द्वारा संबंधित अधिकारियों को आदेश दिया गया है कि जितनी भी अधिकतम संभव हो, उतनी जमीन पर खेती की जाए एवं इसके लिए कष्ट करने वाले किसानों को बैलों की जोड़ी, बीज एवं उपयोगी औजार दिए जाएँ।
आगे शिवाजी महाराज ने अपने अधिकारियों को ऐसा सूचित किया है कि वे महसूल वसूली का अपना काम इतनी ईमानदारी से करें कि किसान के खेत की घास को भी अनावश्यक हाथ न लगाया जाए।
महसूल के संबंध में सूबेदार को पत्रश. 1598 भाद्र शु. 8
सु. 1077 इजब 6
इ. 1676 सितंबर 5
श्री शंकर
मशहूरल हजरत राजश्री अनंत सूबेदार मामले प्रभावेली प्रति राजश्री शिवाजी राजे दंडवंत सूहुर सनसबा सबैन अलफ साहेब मेहरबान हो— उन सुभात फरमान भेजा है।
शिवाजी ने उपरोक्त पत्र के द्वारा सूबेदारों को सुझाया कि वे देखें कि किसी प्रकार की चोरी न हो। किसानों की सब्जी को भी हाथ न लगाया जाए। खेत में जो भी उत्पन्न होता हो, प्रजा उसमें से अपना हिस्सा रखे। राज्य का हिस्सा प्राप्त करने के लिए प्रजा पर जुल्म न किया जाए। उत्पादन की कीमत देकर उसे सरकारी खजाने में जमा किया जाए। एकत्र किए गए उत्पादन को बाजार में तेजी आने पर ऐसे समय बेचा जाए, जिससे सरकार को लाभ हो। नारियल, खोपड़ा, सुपारी, काली मिर्च आदि उत्पादन को संगृहीत करके दाम में तेजी आने पर बेचा जाए।
गाँव-गाँव में किसानों के पास खेती करने के साधन नहीं हैं। बैल, हल, बीज एवं कुछ रकम भी उसे दी जाए। उस पर ब्याज न लेकर मूल रकम धीरे-धीरे वसूल की जाए। किसान जब तक समर्थ न हो जाए तब तक उसे रकम देना जारी रखा जाए। दो लाख तक सहायता गाँव को दी जा सकती है। अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए किसान को सहायता देनी चाहिए। भूमि उपजाऊ हो जाने के बाद ही इस सहायता को वसूल करना चाहिए।
हर वस्तु का हिसाब ठीक से रखना चाहिए। किसी पर भी अत्याचार न हो। सरकारी कर जबरदस्ती वसूल न किया जाए। उसे माफ करके, भविष्य में खेती जारी रखने के लिए, किसान को प्रेरित किया जाए। अधिकारियों को चाहिए कि सरकार को समझाएँ कि इन किसानों ने हमारा फायदा ही किया है। सरकार उनका कर माफ भी कर सकती है।
महसूल वसूली इस प्रकार की जाए कि सरकार को उचित मुआवजा मिले और किसान को भी उचित मूल्य मिले, ताकि साहब तुम पर खुश हो।
इस पत्र का तात्पर्य यही है कि जनता पर किसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती न हो, सरकार को राज्य संचालन के लिए महसूल मिले एवं जनता का हित ध्यान में रखकर वसूली की जाए।
इंग्लैंड में 12वीं शताब्दी में स्थापित ऑक्सफोर्ड एवं कैंब्रिज विश्वविद्यालयों ने सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। इन विश्वविद्यालयों में धर्म, न्याय, कानून, चिकित्सा एवं तमाम ललित कलाओं का अध्यापन होता था। इनकी पदवी प्राप्त करने के लिए छात्र-छात्राओं को सात वर्ष तक वहीं अध्ययन करके उत्तीर्ण होना होता था।
चॉसर, स्पेंसर, सर थॉमस मूर, फ्रांसिस बेकन, शेक्सपियर इत्यादि ने अंग्रेजी भाषा का साहित्य समृद्ध किया।
इटली में लिओनार्डो द विंची ने गणित, भौतिकशास्त्र एवं अंतरिक्ष विज्ञान में अपनी तेजस्विता प्रकट की।
कॉपरनिकस ने सिद्ध किया कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, बल्कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है एवं सूर्य ही संपूर्ण सौर मंडल के परिक्रमा मार्गों का केंद्र है।
कैप्लर ने सिद्ध किया कि सूर्य के चारों ओर घूमने वाले ग्रह गोलाकार में नहीं, बल्कि लंब-गोलाकार में घूमते हैं।
आइजैक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण शक्ति की खोज की।
हैली ने धूमकेतुओं के जन्म के विषय में एकदम सही विधान किया।
गेलीलियो ने गणित, गति एवं ध्वनि शास्त्र का अध्ययन कर अनेक भ्रांतियों का खंडन किया।
रॉबर्ट बाइल ने हवा के दबाव एवं प्रवाह के पारस्परिक संबंध का निरूपण किया।
मार्टिन लूथर किंग एक महान् धर्म-सुधारक हुए।
तात्पर्य यह कि समग्र संसार में अकल्पनीय शोध एवं आविष्कारों की झड़ी लगी हुई थी। मनुष्य अपने अस्तित्व के रहस्यों को पकड़कर आगे जा रहा था। अंधविश्वास टूट रहे थे, नित नवीन विश्वासों की स्थापना हो रही थी।
शिवाजी महाराज इस प्रचंड सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक परिवर्तन को लेकर कितने जागरूक थे, बहुत कम! और यह उनका निजी दोष नहीं था। कैरे या मानूची जैसे विदेश यात्री, सलाहकार व ज्ञानी व्यक्ति उनके दरबार तक पहुँचे अवश्य थे, किंतु किसी ने भी वहाँ लंबी अवधि तक रुक जाना मुनासिब नहीं समझा था। फलस्वरूप शिवाजी महाराज की समझ ज्ञान-विज्ञान एवं नवसंस्कृति के क्षेत्र में विश्वपटल तक नहीं पहुँची थी।
और ऐसा केवल शिवाजी महाराज के साथ ही नहीं था। तत्कालीन भारत के लगभग सभी शासक-प्रशासक विश्व की वैज्ञानिक व सांस्कृतिक गतिविधियों एवं उपलब्धियों के विशेष जानकार नहीं थे। शायद तब तक ऐसे विकास का समय ही नहीं आया था।
बादशाह अकबर अपने बहुमुखी ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था ऐसा कहा जाता है कि उसने बाइबिल का सचित्र मुद्रित संस्करण देखा था, किंतु उसके शैक्षणिक महत्त्व का अंदाजा वह नहीं लगा पाया था। जहाँ तक शिवाजी महाराज की बात है; इतना निश्चित है कि यदि उन्हें मुद्रण यंत्र एवं मुद्रण कला के आविष्कार की जानकारी मिल गई होती, तो उन्होंने उन यंत्रों को आयात किया होता। इससे न केवल महाराष्ट्र, बल्कि संपूर्ण देश में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात हो जाता।
संदर्भ—
1. छत्रपति शिवाजी महाराज / कृ.अ. केलुसकर
2. पुण्यश्लोक छत्रपति शिवाजी / बालशास्त्री हरदास
3. शिवाजी कोण होता? / गोविंद पानसरे
4. Shivaji and his Times/Jadunath Sarkar
5. House of Shivaji/Jadunath Sarkar