सोई तकदीर की मलिकाएँ
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जयकौर लगी तो हुई थी रसोई के काम धंधे में पर उसका पूरा ध्यान अब भी बाहर के दरवाजे से दिखाई देती खडौंजा सङक पर टिका था । रह रह कर वह उधर झांक लेती । बीतते वक्त के साथ साथ उसकी झुंझलाहट बढ रही थी । छ बजने को हो आए । सूरज छिपने को है और इस भले बंदे का अभी तक कोई पता ठिकाना नहीं है । सुबह का निकला हुआ है । पीछे की कोई फिक्र ही नहीं है कि कोई पलकें बिछाए बैठा इंतजार कर रहा है । ऐसा क्या काम है कि हाथ से छूटने में ही नहीं आ रहा । कल तो जैसे होना ही नहीं है । आज ही फसल बो कर , पानी लगा कर और काट कर ही घर मुङेगा ।
उसने चूल्हे पर चढाई हांडी को देखा । पानी उबल रहा था । उस खौलते पानी में दाल डाली । नमक मिर्च हल्दी डाल कर उसे ढक दिया । परात में आटा निकाला और लोटे में पानी लेकर आटा गूथने बैठी ही थी कि दरवाजे पर सुभाष और निक्का प्रकट हुए । उन्हें देखते ही जयकौर का दिल उछल कर बाहर आने को हुआ । मन किया , इसी समय जा कर सुभाष से लिपट जाय । झिंझोङ कर पूछे कि इतनी देर तक खेत में कर क्या रहा था । उसके गाल चूम ले । चूम क्या ले काट कर चबा ही जाय ।
पर अगर सरदार या बसंत कौर ऊपर से आ गये तो वह तो शरम से वहीं मर जाएगी । उसने जबरदस्ती अपने आप को रोका । दो मिनट तक नजर नीची किये आटा सानती रही फिर जब सांस लय पर आ गई तो हाथ धो कर मटके से पानी लिया । दो गिलास उठाए और लाकर पहले निक्के को गुङ और पानी दिया । फिर सुभाष को ।
बङी देर लगा दी वहाँ खेत में । देखो , संझा बत्ती का टाइम हो रहा है ।
जवाब सुभाष की जगह निक्के ने दिया – देर कहाँ बीबी जी । हमें तो अक्सर इससे भी देर हो जाती है और काम खत्म होने का नाम ही नहीं लेता । आठ लङके मिट्टी के साथ मिट्टी हुए रहते हैं तब जाकर दानों का मुँह देखने को मिलता है तो काम तो करना ही होगा ।
सुभाष ने पानी पीकर गिलास चारपाई के नीचे सरका दिया । जयकौर ने लाड से सुभाष को देखा – तुम लोग हाथ मुँह धो लो । मैं रोटियां सेक रही हूँ । गरम गरम खा लेना ।
निक्के ने हाथ जोङ दिए – सरदारनी , मैं तो अब चलूंगा । घर पर बेबे मेरा रास्ता देख रही होगी ।
ऐसे कैसे चला जाएगा । रोटी का टाइम हो रहा है । रोटी खाए बिना मैंने तुझे जाने नहीं देना – सीढियां उतरती हुई बसंत कौर ने निक्के को बरजा ।
आपका हुकम सिर मत्थे सरदारनी , मत्था टेकता हूँ ।
जीता रह । जवानी मान और घर पर सब ठीक है ।
आपकी मेहर है सरदारनी । परमात्मा आपको सही सलामत रखे । वाहे गुरु मेहर करे । हम जैसे लोगों को भर पेट रोटी आपके सदके मिलती रहे – निक्के ने किसी अदृश्य शक्ति को हाथ जोङ दिये । इसके साथ ही उठा और नलके पर जा कर हाथ धो आया पर चारपाई पर बैठने की बजाय नौहरे की ओर चला गया ।
वहाँ गेजा गाय दूह रहा था । एक बाल्टी में दूध निकाला हुआ रखा था । उसने दूध भरी बाल्टी उठाई और चौके में ले आया और बाल्टी एक कोने में टिका दी । तभी केसर तसले में सूखे उपले लेकर आई । उपले उसने चूल्हे के पास टिका दिए । इसके बाद नलके से पानी चला कर बाल्टी भरने लगी ।
निक्का दौङ कर नलके के पास जा पहुँचा – आप रहने दो बङी बी । बताओ क्या करना है । मैं खाली बैठा हूँ । मैं कर देता हूँ ।
कुछ नहीं , बस यहाँ आँगन में थोङा पानी छिङकना था । थोङी धरती की गरमी निकल जाएगी ।
कोई ना जी , बस दो मिनट में छिङका जाता है । आप बैठो ।
केसर ने आधी भरी बाल्टी वहीं रहने दी और बरांडे में से पीढा खींच कर आंगन में बिछा लिया । सूत और अटेरन लेकर सूत अटेरने लगी ।
जब तक निक्का पानी छिङक कर खाली हुआ । बसंत कौर ने रोटी परोस दी थी । जयकौर ने रोटी निक्के को पकङाई । तब तक सुभाष ने चारपाई को खींच कर चौंके के पास बिछा दिया था । निक्का चारपाई पर बैठ कर रोटी खाने लगा । बसंत कौर ने उसकी थाली में गुङ का बङा सा डला भी रख दिया और आम के अचार की फांक भी ।
भाई लङके क्या नाम है तेरा , अब तू भी हाथ मुँह धोले और आ कर रोटी खा ले ।
जी , आता हूँ – सुभाष ने भी रगङ रगङ कर हाथ मुँह धोया और पीढा लेकर चौके के पास चला आया । वह रोटी खाने लगा तो जयकौर का मन किया कि घी की मटकी में से कङछी भर कर घी उसकी दाल में डाल दे पर मन का क्या है । कुछ भी सोच सकता है । कैसे डाल सकती है वह घी । आखिर सुभाष इस घर का कमेरा ही हुआ न । उसे इस घर में रहने को ठिकाना मिल गया और दो वक्त रोटी इज्जत से मिल रही है , फिलहाल के लिए इतना ही बहुत है । बसंत कौर ने घी का चम्मच भर कर सुभाष की ओर बढाया – ले दाल में घी डलवा ले ।
जयकौर ने चौंक कर बसंत कौर को देखा । यह औरत मन पढना भी जानती है क्या । जो बात उसने मन में सोची थी ये कैसे जान गई ।
सुभाष ने हाथ जोङ दिए – नहीं सरदारनी घी की कोई जरूरत नहीं है । दाल वैसे ही बहुत स्वाद बनी है । मैंने दो फुलके आज फालतू खा जाने हैं ।
जितने मर्जी खा । रोटी की कोई कमी नहीं है – उसने धक्के से एक चम्मच घी दाल में डाल ही दिया था । जयकौर का मन श्रद्धा से भर गया । यह औरत सच्चे रब का रूप है । एकदम दरवेश । सबका भला सोचने वाली । उसे भोला सिंह पर बङा गुस्सा आया । यह सरदार इस इतनी भली औरत के साथ इतना बङा जुल्म कैसे कर गया । दो दो सौकने लाकर इसके सिर पर बिठा दी । और सदके इस औरत के सबर सिदक के कि कोई माथे पर शिकन नहीं । कोई शिकायत नहीं किसी से । न भोला सिंह से , न हम दोनों से । बरगद के दरख्त की तरह सबको अपनी छांव में लिए बैठी है । हर बेल को अपनी मजबूत बाहों का सहारा दिए हुए निरंतर पाल रही है । सोचते सोचते उसके मन में बसंत कौर के लिए दया ममता , करूणा के मिले जुले भाव पैदा हुए ।
लाओ बहनजी , अब मैं रोटी सेकती हूँ । आप भी गरम गरम खा लो ।
रोटियां तो सारी बन गई लगती हैं । ले केसरो , तू भी खा ले और गेजे को भी रेटी खिला दो ।
जयकौर ने दो थालियों में रोटी परोसी और एक थाली केसर और दूसरी गेजे को सरका दी । बसंत कौर ने तीन थालियां लगाई । एक जयकौर को थमा कर वह दो थालियां लेकर ऊपर चली । जयकौर ने पुकार कर कहा – आप रोटी खा कर आराम करो । मैं चौंका और दूध संभाल कर दही जमा दूंगी । बसंत कौर ने मुङ कर जयकौर को देखा और मुस्करा कर उसे स्वीकृति में सिर हिला दिया । जयकौर निहाल हो गई ।
बाकी फिर ...