सोई तकदीर की मलिकाएँ - 52 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 52

 

52

 

बसंतकौर को ऊपर चौबारे में भेज कर जयकौर ने ढक कर ऱखी थाली सीधी की और रोटी खाने बैठी पर आज रोटी उससे खाई न गई । शायद जब हम बहुत उदास होते हैं या बेइंतहा खुश होते हैं तब हमारी भूख ऐसे ही मर जाती है । जैसे तैसे उसने एक रोटी निगल ली और लोटा भर पानी पी कर उसने बची हुई दोनों रोटियां खल वाले बर्तन में डाल दी । कटोरे की दाल को एक ही सांस में हलक में डाल कर उसने नलके पर जाकर हाथ धोए । केसर उसके रोटी खा चुकने के इंतजार में चौंके के पास खङी थी इसलिए उसने रसोई में जाकर सारे बर्तन खाली किए और नल पर ला रखे फिर दूध गरम किया और उसमें दही का जामन लगा कर जमने के लिए रख छोङा । एक लोटे में कढा हुआ दूध डाला , साथ में दो पीतल के गिलास पकङे और सीढियों पर जाकर बसंत कौर को आवाज लगाई – बहनजी दूध पकङ लो । गरम करके ले आई हूँ ।
बसंत कौर आवाज सुन कर सीढियों पर चली आई - तूने बेकार में तकलीफ की । मैंने थोङी देर में आकर नीचे से ले जाना था ।
रोटी के जूठे बर्तन थामते हुए जयकौर ने कहा - इसमें तकलीफ की कौन सी बात है बहन जी । बस कुज्जे से लोटे में दूध ही तो डालना था सो डाल कर ले आई । अब आप आराम करो । मैंने सारी रसोई संभाल दी है । दूध को जामन भी लगा दिया है ।
ठीक है । मैं सोने जा रही हूँ । अब तू भी जाकर सो जा ।
जयकौर वापिस लौटी और जूठे बर्तन नलके पर बर्तन साफ कर रही केसर को थमा दिये । अपना बिस्तर झाङ कर बिछाकर जब वह वापस आंगन में आई तब तक केसर बर्तन साफ करने के बाद रसोई के दरवाजे में टोकरा छोङ कर सोने जा चुकी थी । जयकौर ने टोकरा उठाया और रसोई मे लाकर दीवार में लगे फट्टे पर बर्तन सजाने लगी । वह वहीं कुछ देर रसोई में अकारण ही खटरपटर करती रही । यहाँ का बर्तन वहां , वहाँ का बर्तन यहां । थोङी देर में जब उसको विश्वास हो गया कि अब सब सो चुके हैं तो वह भी सोने चली गयी ।
अगले दिन रोज की तरह रात बीती । रोज की तरह तारे अलोप हुए । रोज की तरह पूरब से सूरज निकला और हर दिन की तरह ही चारों दिशाओं में अपनी रश्मियां बिखेर कर धरती की सैर को चल पङा पर आज जयकौर का मन मोर की तरह नाच रहा था । बदन फूल की तरह हल्का होकर उङ रहा था । उसके पैर जमीन पर नहीं लग रहे थे । गाल शरम से लाल हुए जा रहे थे । किसी भूले बिसरे लोकगीत के बोल बार बार उसके होठों पर चले आते । वह दिन निकलने से पहले अलसभोर में ही चारपाई छोड कर उठ बैठी । चेहरे पर जोर जोर से पानी के छींटे मारे । रंगली अखरोट की दातुन से रगङ रगङ कर दाँत चमकाए । आइने में ओठों पर फैला दंदासे का लाल रंग देख वह खुद ही शरमा गई फिर कपङे उठा कर नहाने चल पङी । नहाते हुए भी वह गीत गुनगुनाती रही । जब तक वह नहा कर आई , गुरद्वारे में से लाउडस्पीकर पर आवाज आने लगी थी । रागी साहब अपने नितनेम का पाठ शुरू कर रहे थे । गाँव के इकलौते मंदिर में शंख , घंटे और घङियाल बजने लगे थे । बसंत कौर उठ कर चौंके में मट्ठा बिलोने लग गई थी । जयकौर सीधी अपने कमरे में गई और बाल खोल कर उन्हें सुलझाने लगी । बालों में अच्छे से कंघा लगा कर उसने लाल परांदा गूंथा । दुपट्टा ओढ कर सिर माथा ढक कर चौंके में आई – सत श्री अकाल बहन जी ।
बसंत कौर ने चौंक कर जयकौर को देखा और हँस पङी – अरे वाह , कमाल है । तू इतनी जल्दी नहा धोकर तैयार भी हो गई । कितनी सुंदर दिख रही है । कहीं जा रही है क्या ?
नहीं बहन जी , मैं कहाँ जाऊँगी । वह तो तङके ही आँख खुल गयी तो सोचा नहा धो ही लूँ इसलिए नहा लिया । अब बताओ , क्या बनाना है ?
ऐसा कर , आटे में बेसन और प्याज डाल कर मिस्से परोंठे बना लेते हैं । दही और मक्खन के साथ खाए जाएंगे ।
जयकौर ने आटा छाना , उसमें एक कटोरा भर कर बेसन भी छान लिया फिर दो प्याज काट कर तीन हरी मिर्च और थोङा सा हरा धनिया भी कतर दिया ।
बहन जी इसमें अपने हिसाब से नमक मिर्च डाल दो तो मैं य़ह आटा गूंध लूं ।
तू अपने हिसाब से ही डाल ले न ।
नहीं बहन जी आप डाल दो । मेरे से कम ज्यादा हो जाएगा ।
बसंत कौर ने मधानी वहीं बांध दी और आटे में नमक मिर्च डाल कर साथ ही कडछी भर के देसी घी भी डाल दिया – ले अब गूंध ले औऱ स्वयं फिर से दही बिलोने लगी । दो चार हाथ मार कर उसने चाटी में से मक्खन का पेडा निकाला । लस्सी में एक डोल भर कर पानी डाल कर चाटी को पोने से ढक दिया ।
ले, मैं अब बदन पर पानी डाल आऊँ । तू परौंठे सेक लेना । गेजा भी दूध निकाल कर आता ही होगा । पहले उसे चाय कर दे और तू भी पी ले । बाकी लोगों को मैं आकर दे देती हूँ ।
जयकौर ने आटा गूध कर चूल्हा जलाया और चाय चढा दी । तब तक गेजे ने दो बाल्टी दूध ला कर रख दिया । केसर ने नौहरा बुहार दिया था और अब आंगन में झाङू लगा रही थी ।
पहले तुम लोग चाय पी लो । यह सब काम बाद में होता रहेगा – जयकौर ने चाय गिलासों में छान कर केसर को पकङाते हुए कहा और तवा चढा कर मिस्से परौंठे बनाने लगी । थोङी देर में ही सरपोस ( सरकंडे या खजूर के सूखे पत्तों से बनाया गया एक ढक्कन वाला कटोरदान जिसमें पंजाब के अधिकांश घरों में रोटी लपेट कर रखी जाती है । ) में परोंठो का ढेर लग गया । जयकौर ने चूल्हे से लकङियाँ बाहर खींच दी । गरम तवे पर चाय का पतीला रखा । और नल पर हाथ धोने के लिए चली । अभी वह नल पर हाथ धो ही रही थी कि सामने से रमेश आता दिखाई दिया । पहले तो जयकौर को विश्वास ही नहीं हुआ कि रमेश भाई साहब यहाँ इस वक्त इतनी सुबह सुबह भला क्यों आएंगे पर जब वे दहलीज पर आ खङे हुए तो अविश्वास का कोई कारण नहीं रहा । उसने आगे बढ कर सिर झुकाया, दोनों हाथ जोङे और धीरे से कहा सत श्री अकाल ।
सत श्री अकाल सत श्री अकाल , जयकौरे कैसी है तू ।
मैं बिल्कुल ठीक हूं भाई साहब । आप अचानक इतनी सुबह कहाँ से आ रहे हो
आ तो मैं कम्मेआना से ही रहा हूँ ।
इतने में आवाज सुन कर सुभाष भी आँखें मलता हुआ आँगन में चला आया – मत्था टेकता हूँ भाई । घर में सब ठीक तो है न ।
घर में तो सब ठीक है । वो माँ और तेरी भाभी का मन नहीं लग रहा था । तेरी चिंता सता रही थी दोनों को । सुबह शाम रट लगा रखी थी, सुभाष को ले आओ । उसका हाल चाल ले आओ । इस लिए आना पङा ।
सुभाष इस बात का कोई जवाब देता इससे पहले ही जयकौर चाय का गिलास ले आई – लो भाई चाय पिओ और तू भी हाथ मुँह धो आ तब तक मैं तेरी चाय डाल कर ले आती हूँ ।
रमेश को वहीं चाय पीते छोङ सुभाष हाथ मुँह धोने लगा ।

 

बाकी फिर ...