गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 59 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 59

भाग 58 सूत्र 66 आकर्षणों के प्रलोभन से बचें कैसे?



गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है,


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।


आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3/17।।


इसका अर्थ है, हे अर्जुन! जो मनुष्य आत्मा में ही रम जाने वाला, आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है,उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता है।


पिछले श्लोकों में यज्ञ के स्वरूप,यज्ञमय कर्मों और सृष्टि चक्र में मनुष्य की प्रभावी भूमिका पर चर्चा के बाद भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में मनुष्य के अंतर्मुखी होने के महत्व की ओर संकेत करते हैं।वास्तव में आत्मा में लीन हो जाना,आत्मा में ही संतुष्ट रहना और स्वयं की आवश्यकताओं को एकदम न्यूनतम बना देना कठिन कार्य है।इसके लिए साधना की आवश्यकता होती है।


पहला प्रश्न यह है कि आखिर आत्मा में लीन होने से पहले की अवस्था क्या है?वह है, हमारा बहिर्मुखी आचरण, सुख और भोग के साधनों को सब कुछ मान लेना।सुविधाओं का आदी हो जाना।सांसारिक रिश्ते नातों,संबंधों, मोह-माया के बंधनों में जकड़े रहना।जो हमने प्राप्त कर लिया है उनके बारे में यह धारणा रखना कि ये चीजें हमेशा हमारे साथ बनी रहेंगी।इनमें आसक्ति भी इतनी,कि त्यागना तो दूर त्यागने के विचार मात्र से मन भयभीत और कंपित हो जाए।भोगों के प्रति इतना राग कि उन्हें ग्रहण करने के बाद भी अतृप्ति का भाव बना हुआ है।इनमें और, थोड़ा और,थोड़ी देर और का भाव बना हुआ है। और मन भी इतना चंचल कि भोगों को ग्रहण कर लेने के बाद कभी-कभी न सिर्फ और चाहिए की कामना रहती है बल्कि मनुष्य नवीनता ढूंढने लगता है और एक वस्तु से उसका मन भर गया तो दूसरी वस्तु की तलाश करने लगता है।


यह हमारी वह अवस्था है,जिससे हमें आत्मा की ओर जाना होगा।ऐसा हम तब कर पाएंगे,जब आत्मा के अभिमुख होने में हमें इन भोगों,मोह-बंधनों,रिश्ते नातों से कहीं अधिक आकर्षण दिखाई देगा।एक बच्चे का उदाहरण लेते हैं। बच्चा आग से तब तक नहीं डरता है,जब तक उसका हाथ चला जाने से उसे तीव्र जलन की अनुभूति न हो।वहीं बड़े लोग सांसारिक भोगों रूपी आग में झुलसने का अनुभव करने के बाद भी अनेक बार इसे नहीं समझते हैं या जानबूझकर इसे समझना नहीं चाहते हैं।भोगों का अतिरेक हो जाना स्वयं में बीमारी है।इनका निदान अगर दमन, निषेध या मनाही रूपी दवा के साथ करना चाहेंगे तो साइड इफेक्ट पैदा ही होंगे।उपाय है सादगी युक्त जीवन,न्यूनतम आवश्यकताओं वाला जीवन, आत्मा के अभिमुख और उसमें लीन हो जाने की कोशिश करने वाला जीवन। थोड़े अभ्यास से ही यह फर्क समझ में आने लगेगा कि आकर्षण का सबसे बड़ा स्रोत आत्मा है,बाह्य भोग नहीं।



(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय