सब कुछ यथावत Yogesh Kanava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • जंगल - भाग 12

                                   ( 12)                       ...

  • इश्क दा मारा - 26

    MLA साहब की बाते सुन कर गीतिका के घर वालों को बहुत ही गुस्सा...

  • दरिंदा - भाग - 13

    अल्पा अपने भाई मौलिक को बुलाने का सुनकर डर रही थी। तब विनोद...

  • आखेट महल - 8

    आठ घण्टा भर बीतते-बीतते फिर गौरांबर की जेब में पच्चीस रुपये...

  • द्वारावती - 75

    75                                    “मैं मेरी पुस्तकें अभी...

श्रेणी
शेयर करे

सब कुछ यथावत

प्राय ऐसा हर दिन ही होता था कि इधर मैंने चाय पीकर कप रखा और उधर एक जानी पहचानी सी आवाज़ हर दिन आती है। मेरे चाय के कप का खली होना और उसकी आवाज़ आना जैसे दोनों ही यंत्रचालित हों। उसकी आवाज़ के साथ ही प्राय आस पास की औरतें बाहर आकर उसे घेर लेती हैं। मैं भी यह आवाज़ सुनकर बहार आ ही जाता हूँ। अकेला रहता हूँ ना इसलिए खुद ही बाहर आना पड़ता है लेकिन आस पास की औरतों के बीच जाकर उनसे पहले सब्जी लेना निश्चय ही एक दुष्कर कर्म है। वैसे सच मनो तो मैंने कभी कोशिश भी नहीं की उन औरतों के बीच जाकर पहलर सब्जी लेने की। रोज़ाना यही मंज़र भिंडी २० रुपये किलो से काम नहीं पड़ेगी और वे औरतें उसे १० रुपये में एक किलो देने की ज़िद करती और मोलभाव के बाद ही वो सब सब्जी लेती थी। ये मोलभाव हर सब्जी के लिए हर होता था। अब तो मुझे ये सब नित्यकर्म जैसा लगता था,उसका आना औरतों का मोलभाव करना और उसका गिड़गिड़ाना। 

    किसी दिन अगर मोलभाव नहीं सुनाई दिया तो समझो तबियत खराब है। खैर उन सभी औरतों के सब्जी लेने के बाद मेरी बारी आती,बिना मोलभाव किये ही एक एक पाँव दो सब्जियां तुलवाकर मैं उसे पैसे थमा देता हूँ क्योंकि मोलभाव की मगजपच्ची तो वो औरतें कर ही चुकी होती हैं। वैसे भी मोलभाव करने की मेरी आदत भी नहीं है। मैं रोज़ाना बस मौन साढ़े अपनी बारी आने का इंतज़ार करता हूँ। वैसे भी अकेले जीव के लिए कितनी सी सब्जी की ज़रूरत होती है। फ्रीज नहीं होने का एक फायदा हो रहा था कि रोज़ाना ताज़ी सब्जियां खाने को मिल जाती थी वर्न तो सप्तह भर के लिये बसि स्ब्जियोन क गोदम बन जाता है बेचारा ये फ्रिज तो। आज मैंने चाय पी ली फिर अखबार भी पढ़ लिया लेकिन उस सब्जी वाली की आवाज़ सुनाई नहीं दी। मैं सोचता रहा आखिर आज वो कहाँ गयी। क्यों नहीं आयी आज, कहीं वो बीमार तो नहीं हो गयी ?इन्ही ख्यालों के बीच मैं अपनी किचन में जाकर देखने लगा कि क्या बनाया जा सकता है,तभी एक अलग सी आवाज़ सब्जी वाली की आयी। लगता है कोई लड़की सब्जी बेचने आयी है। 

बाहर आकरआज मैंने बरबस ही उस लड़की से पूछ लिया - तुम तो पहले कबि नै आती थी वो अम्मा ही आती है हमरे इधर तो। हाँ बाबूजी मैं कभी नहीं आयी आज पहली बार ही आयी हूँ। वो अम्मा आज बीमार हैं न,अम्मा को जूडी देकर बुखार आया इसीलिए आयी हूँ। तो तुम उस अम्मा की बेटी हो ? वो गर्दन झुकाये चुपचाप कड़ी रही धीरे से बोली -साहब मैं उन अम्मा की बहु हूँ। मैं, अम्मा और मेरी चार साल की बेटी बस हम तीन ही तो प्राणी हैं घर में। क्यों तुम्हारा पति --- आई मीन अम्मा का बीटा --?

वो कुछ नहीं बोल पायी बस इतना ही भरे गले से कहा कहा - वो अब नहीं हैं। अरे तो अम्मा का इलाज करवाती तुम यहाँ सब्जी बेचने क्यों आ गयी हो ? अम्मा को डॉक्टर को दिखवटी ना ये सब्जी बेचना ज़रूरी थोड़े ना है । साहब आज की सब्जी नहीं बिकेगी तो तो रोटी कहाँ से आएगी ? डॉक्टर को दिखने के लिए पैसे चाहिए साहब, अम्मा को काढ़ा देकर आयी हूँ। घरियेबों की तक़दीर में धक्के ही लिखे होते हैं साहब।

छोडो साहब आप -- हमारी ग़रीबी का क्या है ऐसे ही कटेंगे दिन आप बताओ कोनसी सब्जी लेंगे आप ? मैं ठगा सा खड़ा रह गया मुश्किल से इक्कीस बाइस साल की उसकी उम्र,और वो विधवा। एक एक कर आस पास की औरतें अब जमा हो गयी थी वही मोलभाव। उधर वो लड़की गिड़गिड़ा रही थी बहिन जी इतने काम पैसे में कैसे दे दूँ थोड़ा सा तो और दे दो, तभी ना जाने मुझे क्या सूझी मैं उन औरतों को एक तरफ करते से उस सब्जी वाली लड़की से बोला - पुरे टोकरे की सब्जी का कितना दाम है ? वो असहज सी बोली साहब ये सब ले लें उसके बाद जो बचे उसका बता दूँगी। नहीं मुझे अभी टोकरे की सब्जी का भाव बोलो,मुझे पूरी चाहिए। आस पड़ोस की औरतें बड़े ही आश्चर्य से मुझे देखने लगी। हमेशा चुप रहने वाला एक पाँव सब्जी लेने वाला ये आज इतनी सब्जी का क्या करेगा ?

उन में से एक छेड़ते से बोली हम सब की दावत आज इनके यहाँ पर ही लगती है। मैंने बिना कोई जवाब दिए उस लड़की से कहा पूरा टोकरा खाली कार्डो और कितना पैसा देना है वो बता दो। वो बोली साहब मैं डेड सौ की लायी थी आप दो सौ दे दीजिये। मैंने तीन सौ रूपये उसके हाट में थमा ते से बोला - जल्दी से जाओ और अम्मा का इलाज करवाना। वो बोली साहब ये तो बहुत ज्यादा हैं सब्जी तो डेड सौ की ही लाई थी मैं। कोई बात नहीं रख लो और अम्मा का इलाज करवाना ठीक है। वो पैसे लेकर चली गयी। मैंने एक लौकी और एक गड्डी पालक लिया बाकी सब उन औरतों से कहा - आपको जो भी चाहिए ले लीजिये मुझे इतनी ही चाहिए थी। एक बोली - तो फिर आपने ली क्यों थी ? दूसरी बोली - लगता है इनका दिल उस सब्जी वाली पर आ गया है। ज़ोर का ठहाका लगाया सभी ने। मैं पहले तो कुछ नहीं बोला लेकिन उनकी ठिठोली देखकर फिर बोला- हाँ उस अम्मा पर मेरा दिल आया है और यदि उसकी ये बहु घर घर जा कर सब्जी बेचती तो शाम तक ही घर जा पति वो। फिर अम्मा को डॉक्टर के पास लेकर जा ही पाती। इसलिए मैंने ये पूरा टोकरा ही ले लिया उस से। मैं यदि उसको वैसे ही पैसे देने की कोशिश करता तो वो शायद कभी नहीं लेती और वो अम्मा बुखार से ताप्ती रहती। आप लोग बुरा मत मानिये मैं एक किसान का बीटा हूँ,मैं जानता हूँ किसान का दर्द क्या होता है और ये तो बेचारी खुद खरीद कर लायी है। आप लोग सब्जी बेचने वाली उस ग़रीब से तो मोलभाव कर लेते हो लेकिन आप ही सोचिये जब पिज्जा मंगवाते हो या जब भी किसी मॉल में जाते हो ना तब भी मोलभाव करते हो क्या ? कभी नहीं ना। बस यही होता है वो औरत ग़रीब है और आपके घर के दरवाज़े पर आपको सब्जी ला कर दे रही यही उसकी मजबूरी है। खैर छोड़िये जिसको भी जो चाहिए आप लोग ले लीजिये। अचानक ही उनमे से एक औरत बोली - हमें क्या समझ रखा है ? अपने आपको हीरो समझते हो क्या -नहीं चाहिए हमे ये सब्जी। एक एक कर कुछ औरतें जाने लगी लेकिन कुछ रुक गयी।

पड़ोस में रहने वाली एक औरत बोली आप सचमुच ही बहुत अच्छे इंसान हो मैं ले जाउंगी सब्जी। मैंने उससे कहा जिसको भी चाहिए आप दे दीजियेगा। और चुपचाप मैं अपने कमरे में चला गया सोचता रहा - हम कितने विकसित हो गए हैं अपनी झूठी शान दिखाने के लिए बड़ी से बड़ी लग्ज़री कार ले सकते हैं, लाखों खर्च कर सकते हैं लेकिन जब भी अपने सर पर लाचारी की टोकरी लिए गली गली में फिरती वो सब्जीवाली जब भी आएगी तो हम मोलभाव तो करेंगे ही। और यदि दबाव बना कर पच्चीस वाली का भाव पंद्रह करवाकर हमने सब्जी ले ली तो हमारी मुस्कान गर्वीली हो जाती है। लेकिन उस ग़रीब सब्जीवाली के चेहरे पर आयी दुःख की लकीरों को हम नहीं देख पाते हैं। अपनी मरोड़ में भला हमे विषाद कहाँ नज़र आएगा । 

  हम क्यों सोचें उसके बारे में कि बिना बिस्तर के ही ज़मीन पर सो जाती है। उसकी पोती के लिए दूध नहीं केवल आंसू होते हैं पीने को ।किसी दिन सब्जी नहीं बिक पाती है तो रात की रोटी नहीं बनती है। लेकिन हमें क्या हम उसके बारे में क्यों सोचें, हमे तो फिक्र लगी रहती है एक इससे भी बड़ी कार लेने की, रात को डिनर किस रेस्तरां में करना हैं मीनू क्या क्या होगा कबाब होगा कि नहीं ----. हमें क्यों फिक्र हो उन लोगों की। हमारे पास तो फुर्सत ही नहीं हैं उस बूढी सब्जी वाली अम्मा की बीमारी के बारे में सोचने की। तभी मेरे दरवजव पर खटखटाहट की आवाज़ आई। दरवाजे पर वो बूढी अम्मा अपने हाथ में दवा की थैली लिए कड़ी थी - वो बोली - बेटा तुम इंसान नहीं देवता हो, मेरी दवा के बाद ये दो सौ रुपये बचे हैं इन्हे रख लो बीटा। मैंने कहा - जब बेटा ही कह रही हो तो वापस क्यों लौटा रही हो अम्मा। ये अपने पास ही रखो जब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो जाओ तब तक सब्जी बेचने मत आना समझी अम्मा। वो पैसे मुठ्ठी में भींचते हुए चली गयी। अगली सुबह चाय के ख़त्म होते ही वही आवाज़, वही लाचारी की गठरी, वही सब्जी वाली और औरतों का वही मोल भाव का अंदाज़, सब कुछ यथावत।