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रात साक्षी है - प्रकरण 6


‘रात साक्षी है’ (छह खंड)

‌ ‌ दीप लौ

थके उनींद वैदेही सुत
कुश शय्या पर लेटे ।
बर्हिजगत ने चुपके-चुपके
अपने जाल समेटे

भरी नींद में भी कब कैसे
इदम् कहीं चुप होता ?
निंदियारी उर्वर आँखों में
अपनी फसलें बोता

आँखें मलते लव उठ बैठे
रजनी आथी बीती ।
'उठो तात, मैंने जो देखा
मन को चीथे देती।’

‘मन के बिम्ब दिखाते रहते
भूत-प्रेत सपने में ।'
‘नहीं तात, भूतों से क्या डर?
समर मचा अन्तस् में ।'

‘कैसा समर ? दुखी मत लव हो
मन में द्वन्द्व न लाओ ।
विघ्न कौन अन्तस् को दहता
सच सच मुझे बताओ ।"

'माॅं कहते ही लव की आँखें
टप टप स्वाती बरसीं
'हो क्या गया तुम्हें लव बोलो'
कुश तंत्री भी सुबकी।

'जल समाधि ले पुष्करिणी में
माँ भी बिलग हुई है ।'
रुद्ध कण्ठ, पर अश्रु लड़ी की
बूँदें भरी, झरी हैं।

'नहीं-नहीं' कह कुश अपनी भी
सिसकी रोक न पाया ।
दृष्टि टिकी लव के कपोल पर
अपना ध्यान न आया ।

'स्वप्न असत् है, माँ कुटिया में
दीप अभी जलता है ।
स्वप्न सदा ही सच कब होते?
मानव मन छलता है ।'

‘आओ तात चलें माँ पद रज
लेकर शीश झुकाएँ।
संशय तिमिर विलोपित करके
भय से पिण्ड छुड़ाएँ ।'

'उचित न होगा अर्द्धरात्रि में
कच्ची नींद जगाना ।
थकी हुई माँ सो लेने दो
प्रात नमन क्षण आना ।

माँ कितना भव कष्ट उठाती
अपनी कोख पालती ?
तमस बीच मुस्कान अमिय से
नित्य प्रकाश बाँटती ।

माँ के हों नग सम दुख दुस्तर
कोख देख मुस्काती।
इलिका माँ की गाथा कहकर
लोरी डूब सुनाती ।'

'तात कभी क्या बुदबुद करते
माँ को तुमने देखा ?
मैंने उसको विधु निहारते
ध्यान मग्न है देखा।

आरोहण से उतर जलाती
अतिमानस से बाती ।
भव शरीर मन प्राणतत्त्व को
आलोकित कर जाती।

वत्सलता से उर पीड़ा का
वह परिहार खोजती ।
अपने मुस्काते अधरों से
रेख विषाद मेटती ।'

'माँ ने हमें पालने में लव
कितने व्रत हैं साथे ।
सदा स्नेह पुष्पों सी झरती
वाणी में ही पागे ।

भोली माँ का स्नेह परस्पर
किसको नहीं लुभाता ?
तेरा स्वप्न दुःख का अम्बुधि
सच कैसे हो पाता ?'

'अनुमिति से प्रतीति कर भैया
चुपके लौट पड़ेंगे ।
माँ को किंचित कष्ट न देना
मन आश्वस्त करेंगे ।

संशय शमन न हो पाए तो
बुद्धि विवेक न आए ?
अन्तस्तापी मन उदग्रीवी
नींद कहाँ दे पाए ?'

लव ने उठते कहा तात से
'चलो चलें, हो आएँ ।'
कुश भी उठे, चले माँ कुटिया
मिटीं कहाँ शंकाएँ ?

कहीं न कोई जगने पाए
धीरे पग ठहराते ।
सन्नाटे में उठती ध्वनियों
से वे पाँव मिलाते ।

यह क्या? कुटी द्वार पर माँ भी
चुप-चुप टहल रही है ।
दोनों ठिटके, पर माँ की भी
वत्सल दृष्टि पड़ी है।

माँ ने पाँव बढ़ाकर पूछा
बेटे नींद न आई ?”
दोनों बढ़कर झुके चरण में
‘माँ तेरी सुधि आई ।’

'लव ने देखा मातु स्वप्न में
नींद सहज ही टूटी।
माँ की कुटिया का दर्शन ही
परमौषधि है, बूटी ।’

माँ ने चिपका लिया हृदय से
तीनों सटे खड़े हैं ।
स्नेह पगे हाथों से माँ के
बँधे सहज चिपके हैं ।

माँ बच्चों में ध्यान मग्न हो
भूली जग, थिर पल है ।
गति से छूट गया ज्यों नाता
उरा बनी निश्चल है ।

बँसवारी में बीन बजी तो
ध्यान हटा, माँ बोली ।
'अभी शेष है रात, सो रहो
तम-तारक अठखेली ।

दे न रहा संकेत उषा का
शुक्र दमक कर बेटे ।
अभी दिवाकर की किरणों को
क्षितिज-रेख है छेंके ।

जाओ बेटे सो जाओ अब
तमस भरा जंगल है ।
इनके बीच प्रकाश खोजना
उर्वी माँ सम्बल है ।"

दोनों बेटे लेकर पदरज
अपनी कुटिया लौटे ।
नींद कहाँ? पर माँ की आज्ञा
बिछे कुशासन लेटे।

'कैसी नियति आज माँ भी क्यों
जाग रही कुश भैया ?
मन के तारों से जुड़ कैसे
अनुभव करती मैया ?"

'माँ के भावों को पढ़ जाना
इतना नहीं सरल है ।
माँ संवेदन का घर होती
उससे जगत तरल है ।

माँ होती है सहज तपस्वी
अन्तर्मन पढ़ लेती I
सहज स्नेह से अनगढ़ सीपी
में मोती भर देती ।

घर का मर्म द्वार की सीमा
सद् गृहस्थ ही जाने ।
घरिणी बिना सुजन निज घर को
घर ही कभी न माने ।'

'क्या भविष्य में वनवासी को
घरवासी भी होना ?"
'अभी सीखना श्लोक ऋचाएँ
घर गुरु आश्रम कोना ।'

'भैया महाराज महिषी का
प्रकटन कल ही होगा ।
घर से निष्कासित हो कितना
कष्ट उठाया होगा ?"

'महिषी जीवन राज गृहों में
सदा उलझता आया ।
सत्ता, अहं, राजमर्यादा
कण-कण क्लेश समाया ।'

'ऋषियों मुनियों राजाओं की
भरी सभा में उसका ।
प्रकटन, पविता शपथ, लोकश्रुति
छिपे विषाद न मन का ।'

'नागर जन के नियम सदा ही
सुखकर कब हो पाते ?
आभासी समरसता में ही
छद्म पालते जाते ।'

'किन्तु तपस्वी जन सत्ता से
कैसे चिपक रहे हैं?
छद्म नहीं दिखता उनको क्या
या वे भटक रहे हैं ?"

'प्रश्न जटिल है, गहन परख की
सतत अपेक्षा रखता ।
भव समाज के तन्तु जटिल हैं
षड्-रस उत्तर बनता ।'

'पर भैया ऐसे प्रश्नों ने
मन को सदा दहा है ।
जन ज्वलन्त प्रश्नों का उत्तर
कब से माँग रहा है ?"

काल कहीं कुटिया के आँगन
कुश लव वाणी सुनता।
अथर न उसके स्वर कुछ फूटे
अन्तस प्रश्न घुमड़ता।

चों-चों का स्वर श्येन झपट ज्यों
पाँखी नीड़ दबोचा।
लव निकले निज शर संधाना
श्येन पड़ा धरणी था।

श्येन मुक्त व्रण पर झटका था
शर की हवा लगी थी ।
अर्द्ध निमीलित आँखें उसकी
डर से हनक गई थीं ।

कुश भी निकले, दृश्य देखकर
'साधु-साधु लव' बोले ।
तेरे शर की कला यही है
बचा श्येन, खग डोले ।,

पश्च प्रहर की आहट देते
तारक खग, वनचारी ।
उठ जाते प्रत्यूष काल में
ध्यानी, तपव्रतधारी ।

हंसवाहिनी की वीणा के
स्वर कुशलव ने टेरा ।
उषा आगमन के स्वागत में
मधुर रागिनी छेड़ा।


ईगुरी दिनकर

हवा चली है, मर्मर करते बाँस
सीटी बजती, जंगल लेता साँस
सीता के मन की आँधी का छोर
किसे दिखेगा? आग लगी चहुँ ओर ।

राम जगे हैं पीड़ा ओर न छोर
शेष रूप के भीगे नयन मठोर
अंजनिसुत मन मचा दुर्धर्ष समर
स्वप्न जाल में लवकुश, बीते प्रहर ।

काल सभी को देख रहा है
अपने नयन पसारे ।
शक्तिपुंज, घटना का सर्जक
घूमा द्वारे द्वारे ।

कौन द्रव्य परिणामों को गढ़
पुद्गल में गति लाता ?
काल-क्रोड के प्रश्न बिना क्या
नव्य सृजन हो पाता ?

पर उसके अनन्त प्रश्नों का
उत्तर कहाँ मिला है ।
नर कंकाल लिए निज कर में
कब से घूम रहा है?

शव के साधक, सुधी, प्रजाजन जगे।
ऋषि-मुनि, राजन उत्सव के सुर पगे ।
भरत भरण-पोषण में उलझे व्यस्त ।
सहभागी शत्रुघ्न मंत्रिगण न्यस्त ।

माँएँ, माण्डवी, श्रुति प्रमुदित भीत।
और उर्मिला की लाली न प्रणीत ।
अँटकी आँखें सभी राम सिया पर।
उगते क्षितिज वेथ इंगुरी दिनकर।


सुना गया वे माँ उर्वीजा
लौट गईं निज माँ की गोदी ।
ड्योढ़ी सूनी, प्रभु उर पीड़ित
उर्वी पर प्रत्यंचा कस ली।

सदियाँ बीतीं, घर के आँगन
शाप ग्रस्त, अभिशप्त इरण हैं ।
उर्वर क्या कर पाया कोई
बढ़ते गर्त, अघरते घर हैं ।

कसी हुई प्रत्यंचा प्रभुकी
हर घर आँगन तनी हुई है।
नर-नारी के अहं द्वन्द्व की
नाल पौरि में धँसी हुई है ।

इन द्वन्द्वों के बीच समाकल
समरस बिम्ब उगाते चलना ।
प्रकृति-पुरुष के अहं गलाकर
भव को सहज बनाते रहना ।

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