‘रात साक्षी है’ (तृतीय खंड)
‘मंथन’ का शेष
'आज गोदावरी तट की सुधि लुभाती
अर्चना के उन क्षणों पर दृष्टि जाती ।
स्नेह पारावार भी कितना गहन है?
दूर की सुधियाँ वही रस घोल जातीं ।
आज दिशाएँ चुप हैं,
चुप चुप पवन चला है।
वन-चारी भी चुप हैं,
नभ का रंग छला है ।'
'मृग-कुल सँग ही देहरि सिसकी
आँखें भरीं, लाल दहकी हैं ।
इनसे कितना कहूँ, छिपाऊँ ?
मन की कोर बहुत अहकी है ।
दिन होगा कितना निर्णायक
कैसे इनको अभी बताऊँ ?
अवसादों से भरे पृष्ठ को
इन्हें पढ़ाकर दुखी बनाऊँ ?”
आज रात दहता मेरा मन
उनका मन भी दहता होगा ।
मेरा मन रह रह कुछ कहता,
उनका मन भी कहता होगा ।
मेरा मन सुधियों में खोया
उनका मन भी खोया होगा ।
वैदेही मन कितना रोया ?
उनका मन भी रोया होगा ।
उनकी नस भी दुखती होगी।
सबके बीच सहज हो रहना,
राज-काज में बाँधे रखना,
मिथिला उपवन बिम्ब उभरते,
मन से हूक निकलती होगी।
स्वर्ण खचित सत्ता का खाँचा,
किन्तु अधूरा दिखता ढाँचा,
निपट अकेले होते होंगे,
मन की कोर कसकती होगी ।
प्रेम वाटिका हमने सींची,
सहभागी रलियाँ पल पल की,
बाहों में सोने के पल की,
मन की साथ अहकती होगी ।
साझे सपने हमने देखे,
साझी पाती रुचि से बाँची ।
साझे पांव उठे जंगल में,
मंगल वेदी सँग-सँग नाची ।
सारे स्वप्न विखरते देखे
सुरसरि तीर अकेले बाँची।
घर की स्मृति आश्रम भूली,
पाठ पढ़ाती कुटिया साँची ।
सपने गागर भर लाई थी,
गागर फूटी स्वप्न बह गए ।
जल कब रुकता फूटे घट में,
सारे अर्थ- विचार ढह गए ।
स्वप्न कल्पना रहित मनुज भी
कितना बौना हो जाता है ?
नई कल्पना के ही आश्रय,
सच की प्रतिमा गढ़ पाता है |
अरी कल्पने, मन की धड़कन
तेरा गहगह साथ न होगा ।
नए क्षितिज तूने खोले हैं,
तेरे बिन इतिहास न होगा ।
नया सृजन, नव कूल, चुनौती
नई कल्पना उत्तर देती।
संघर्षो के गहन सिन्धु में
मानव तरिका को खे लेती ।
सत्ता के अधिकार असीमित
जनहित को उत्पीड़ित करते ।
जन के अपना तंत्र बनाने
में कितने अंकुश नित लगते ?
व्यक्ति स्वयं कह अपनी पीड़ा
निर्भय अपना पक्ष रख सके ।
तंत्र वही अभिप्रेत कि जिसमें
हर जिह्व निज स्वाद कह सके।
व्यक्ति तंत्र से दब पिस जाए
न्याय कहाँ कब मिल पाएगा ?
न्याय अधर में तो सत्ता का,
सिंहासन भी हिल जाएगा ।
पाती घर की कैसे बाँची ?
षोडश उष्मा बाँची हमने
पावस भीगी सँग-सँग नाची ।
निरख चंद्रिका शरद बिताए
हेमन्ती रजनी सँग नापी ।
शिशिर दिनों में धूप सेंकते
वासन्ती थिरकन मन राँची ।
द्वादश पावस आश्रम बीते
आज महर्षि ब्याज यह पाती ।
कदलीवन का का पंथ पुकारे
रुचै न अवध, न नैमिष काशी।
लगता नहीं कहीं भी मन ।
धूप-छाँह पलता जीवन।
गिरि, अरण्य तक चलकर आई
घर की ड्योढ़ी लौट न पाई ?
उलटी गिनती गिनता मन
लगता नहीं कहीं भी मन ।
सपनों के बादल घिरते हैं,
किन्तु बरसने से डरते हैं,
डरे-डरे कटता जीवन
लगता नहीं कहीं भी मन ।
कहाँ रहा आकाश हमारा ?
इलिका माँ, ये निशिपति, तारा
इन्हीं सहारे खटता जन,
लगता नहीं कहीं भी मन ।
मन मथती सीता हो मौन
'शुचिता का मापक है कौन ?
क्रौंच वध से व्यथित होते ऋषि ।
शाप देकर गीत गाते ऋषि ।
व्याध घूमते हर दिन हर क्षण
उनके शर का उत्तर कौन ?
स्वाद आँच का पूछो उससे ।
आहुति बन जो जला अग्नि से ।
अन्तस् की पीड़ा का सहचर
संवेगों का प्रेरक कौन ?
मुनिवर शपथ न सहज क्रिया है ।
निज तप को नव अर्थ दिया है ।
अर्थों से प्रसूत झरने की
यश-गाथा बाँचेगा कौन ?
मुनि संकल्प न पूरा है क्या ?
मेरा अर्घ्य अधूरा है क्या ?
तुला-बाँट से भीत नहीं हूँ,
शुचिता को तोलेगा कौन ?”
जन मुझसे क्या माँग रहे तुम ?
तेरी इच्छा जान न पाई
अंश तुम्हारा क्या भर लाई ?
किया कौन अपराध महत्तर ?
प्रायश्चित क्या माँग रहे तुम ?
त्याग दिया घर का सब बाना
खम-मृग सँग वन लिया ठिकाना
रमा लिया मन दो छोरों में
अब क्या ढूँढ़ निदान रहे तुम?
क्या मुझसे कहला जानोगे ?
या जो जान रहे मानोगे ?
हृद् के व्रण को नित कुरेद कर
कैसा रचा विधान रहे तुम ?
नर सत्ता नारी को
भोग वस्तु क्यों जाने ?
चिदानन्द भीतर है
क्यों न इसे पहचाने ?
दशमुख या सुरेश हों
छल बल सदा दिखा है ।
निजी कामना हित ही
कैसा स्वांग रचा है ?
निर्मम भीड़ तंत्र का
तो इतिहास पुरातन |
न्याय कर्म सम्प्रभु का
कब होगा अधुनातन ?
सतत युद्ध इन्द्रों से
लड़ना कहाँ सरल है ?
सदा अहल्या ही क्यों
पीती कुपित गरल है ?
सत्ता सहचर देवों
ने इन्द्रों को पोसा ।
पौरुष लिया मेष का
सुरपति हेतु परोसा ।
मेषों की पीड़ा को
सत्ता ने कब जाना ?
सदा मेष पिस जाते
इन्द्रों का इठलाना !
दण्ड मिला उसको ही
जड़ हो गई न नारी?
प्रथम मुक्ति उसको ही
जो था सत्ताधारी ।
पाना न्याय सरल है
क्या ऐसे में सीते ?
न्याय द्वार पर बैठे
कितने दिन हैं बीते ?
मिथिला के वे दृश्य
आज उभर ललचाते।
अन्तर की अलसायी
सुधियों से नहलाते ।
उपवन चरण, न गौरी
अर्चन भूल सके हम ।
बिम्ब उभरते, दीपक
लौ के तले गहन तम ।
गौरी अर्पण हित नव
हरिता, कली उपारा ।
कभी न उसका श्रेयस
किंचित कहीं विचारा ।
हरी दूब जल कण से
भरी सजी मोती सी ।
उपारते ही मेरे
झरीं, लुप्त परवश थीं ।
मग्न रही अपने में
कलिका के स्वप्न झरे।
अहकी वह, ठूंठ तन्तु
गौरी आशीष तले ।
आवेशी मुग्धा मैं
कुछ भी क्या जान सकी?
उपारी दूर्वा की
पीड़ा पहचान सकी ?
जब भी मैं बैठ कहीं
तनिक ध्यान करती हूँ ।
जीवन के दर्पण में
दृष्टिपात करती हूँ ।
कोने अँतरे भी तब
चटक रंग दिखते हैं ।
मेघों के बीच कहीं
कौंधा से दिपते हैं ।
केन्द्रक से दूर तनिक
परिधिस्थ बसते हैं ।
झोली परिणामों की
खद्द - बद्द करते हैं ।
मुग्धा थी भावों में
मघा की बरसात थी ।
झोली उलट गई तो
महकी-सी न प्रात थी ।
गिरि, गुहा, परिधिस्थ भी
मोड़ दिशा देते हैं ।
उल्का सी गति में भी
विघ्न बुला लेते हैं।
मेरे ही जीवन में
ऐसा कुछ होना था ।
राहों में काल-कूट
बार-बार बोना था ।
बनती नारि अपावन
सब कुछ बदले क्षण में ।
ऐसा नियम गढ़ा है
किसने अपने पण में ?
पावन और अपावन
देखा नारी तन में ।
बाँधी सीमा तन की
उगे भले कुछ मन में ।
रहे युद्धरत नारी
तो क्या द्वन्द्व निबटते ?
कोमल तन्तु घरों के
किनकी छाया पलते ?
प्रश्न गहन है शुचि का
कहाँ विकल्प उगेगा ?
स्वच्छन्दों के घर क्या
धुँआ न कभी उठेगा ?
खुली रीति रक्षों की
संस्कार हैं देखे ।
शुचिता के विकल्प क्या
उनके घर के लेखे ?
जहाँ राजपथ बाला-
गण से भरे दिखे हैं ।
वस्तु, खिलौना, भोग्या
नारी बिम्ब उगे हैं ।
अधिपति नहीं, सुहृद् हों
नर-नारी अनुरागी ।
भाव समर्पण सेते
राह चलें, सहभागी ।
सहमति गौतम नारी
की है आंकी जाती ।
शाप घंटिका उसके
खाते टाँकी जाती ।
जिसने सदा स्वयं ही
हर प्रतिरोध किया है ।
उसके माथे पर भी
टीका कलुष सिया है।
सीने वालों का क्या ?
ताप भोगती नारी ।
कितना ही मल धोए
छुटे न कालिख कारी ।
किससे प्रश्न करे, क्या
उत्तर कभी मिलेगा?
विवश पीड़िता के हित
दंश कभी बदलेगा?
'सीते क्या तू केवल सीता
नारी का पर्याय न तू ?
तेरी पीड़ा नारी-पीड़ा ?
उससे किंचित अलग न तू ।
तेरे भीतर सितिया का व्रण
निशि-वासर जो पलता है ।
उसके स्वर में कितनी करुणा ?
भीतर वही सिसकता है ।
सोचो सीते तेरे पग से
मान न जुड़ता नारी का ?
भावी पीढ़ी कितना भुगते
चुके न लिया उधारी का ?
अद्भुत, अर्थवान यह क्षण है
सोच समझ निज पग रखना ।
कितनी आँखें तेरे पग में
पाल रहीं अपना सपना ?
तेरे तन से नारी कुल को
शाप नहीं ढोना होगा ।
नर-नारी दोनों सहचारी का
प्रत्यय बोना होगा।'
कैसी मुहँ बोली है आज की रात ?
सुधियों से खेली है आज की रात ।
कितनी बार पपीहा पिठका वन में ?
स्वाती बूँद गिरेगी आज की रात ।
कितनी बार मोर नाचा उपवन में ?
मेघ को बरसना है आज की रात ।
अर्ध्य लिए कितने दिन हैं बीत गए ?
इष्ट को उतरना है आज की रात ।
पद्मासन से वज्रासन में
कब बैठीं वे? स्वयं न जाना ।
संकल्पों के बीच विचरते
निश्चय को पग-पग दुहराना ।
'मुनि की आज्ञा सिर माथे है।
जन समूह के सम्मुख हूँगी ।
बहुत हुआ, अब उन मुखड़ों में
न्याय तत्त्व का बल देखूँगी ।'
'पर ये पग क्या राजभवन की
सुखकर पौरी लाँघ सकेंगे ?"
'कभी नहीं' निश्चय का स्वर था
'दृष्टिपात भी नहीं करेंगे
मर्यादा के बीच पली मैं
पर उससे आहत ही होना ।
जकड़न ने सीमाएँ बाँधी
पंखों को बन्धक ही होना ।'
बीत गए दो प्रहर निशा के,
सीता भी सुधियों से जागीं ।
भूले बिसरे बिम्ब कभी के
दिखा गईं अँखियाँ अनुरागी ।
वैदेही उठ धीरे-धीरे,
कुटिया के आगे पग रखतीं ।
मन्थन डूबीं, प्रहर बीतते,
भावी डग की दिशा पकड़तीं ।
रात ढल रही, पाँव सिया के
रुक-रुक निज को तोल रहे हैं।
मन के निश्चय उतर क्रिया में
भव के बन्धन खोल रहे हैं ।
पग ठहराते कुशलव आते
चौंकी, पर चट सँभल गईं वे ।
पाँव बढ़े, वत्सल निधि मैया
अहकीं, माँ हैं, विकल हुईं वे।
काल देखकर माँ मन मंथन
चुपके खिसका प्रभु के डेरे ।
जो जग को आँचल में बाँधे
विकल उसे क्यों देख सके रे ?