रात साक्षी है - प्रकरण 4 Dr. Suryapal Singh द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

रात साक्षी है - प्रकरण 4

‘रात साक्षी है’ (चतुर्थ खंड)

जागरण

उस रात राम भी सो न सके
मन्थनरत निशि के प्रहर कटे ।
न्याय पक्ष को ढूँढ़ रही, उन
आँखों को कब नींद लगे ?

राजसी राम भी मौन दुखी
अन्तस् का राम अबोला ।
भीतर लावा सुलग रहा जो
भभका फूटा, मुहँ खोला-

‘अन्तस् का दर्पण देख कहो
संगत था क्या निर्वासन ?
सीता की आँखों में झाँको
उत्तर दो न राजसी मन ।

कल हर सीता अपने घर से
निष्कासित की जाएगी ।
पंचाट कौन, कहाँ दंडधर ?
पीर सुनी क्या जाएगी ?

राजा हो राम तुम्हीं बोलो
सच से आँख चुराना क्या ?
निर्मम सत्ता के आँचल में
अपना माथ नवाना क्या ?

पाप-पुण्य असि धार फिसलना
खड़ी चोटियाँ चढ़ना है ।
सत निर्णय की बाधाओं को
काट सहज पथ चलना है ।

अन्तर्मन परतें खोल रहा-
'अपने अन्तस् को देखो ।
भीतरी राम की तड़प अकथ
निश्चिन्त न होता क्षण को ।

शब्द कौन दूँ निज पीड़ा को
कौन अर्थ करने वाला ?
राजसी राम के कोटर में
सच का राम सुखा डाला ।

ऐसे में घर का स्वप्न कभी
कैसे कोई देख सके ?
युगल प्रीति में स्नेहिल कोंपल
कैसे अन्तर फूट सके ?

जो अपने घर से निस्पृह हो
उसे देखना सब का घर ।
वैश्वानर ने द्वन्द्व रचा क्यों
उड़ता वही न जिसके पर ?

अश्वमेध का यज्ञ पुरातन
पर घर है यज्ञ महत्तर ।
यही कर्म की भूमि, खोजती
हर जटिल प्रश्न का उत्तर

वैदेही अनुपस्थिति में कब
घर रूप धरे बन पाए ?
घर का अंकुर उगे नयन में
पोसे तरु स्नेह बनाए।’

'सीता से अलग सुखी हूँ क्या
राजसी राम से पूछो ।
कितने दिन सोया नहीं, जगा
नभ के तारों से पूछो ।

दुनिया जानेगी राम वही
जो राजकाज में दिखता ।
प्रत्यंचा कसते हाथों से
रक्षों से नित्य निबटता ।

राजस व्रण कितना गहरा है
किसको कहाँ बताऊँ मैं ?
उसकी परतें खोल सको तो
तुमको अभी दिखाऊँ मैं ?

मेरे अन्दर वैदेही नित
सजग डोलती रहती है।
वैदेही के बिना राम की
छाया कहीं न दिखती है ।'

‘शंका की दीवार कहीं है।
धसक-धसक खिंचती जाती ।
मुक्त कहाँ सीता शंका से
बार-बार परखी जाती ।

जो भी चाहे कलिगाथा की
खोले पोथी बाँचे भी ।
अपने ढंग से अर्थ लगाए
कहे झूठ या साँचे ही ।

चुपके से वन में पहुँचाना
वहीं सॅंदेशा, 'यहीं रहो ।
घर से तेरा नाता टूटा
आजीवन वनवास सहो ।'

वही राजसी राम बैठकर
संदेहों का जाल बुने ।
संशय व्रण से पीड़ित सीता
बोली किसकी कहाँ सुने ?

दोहद ब्याज तपोवन भेजा
सम्मुख कुछ भी कह न सके ।
कहाँ दिया अवसर विमर्श का
आहत लक्ष्मण विवश रहे।'

'बातें तेरी किंचित सच हों
दिखता तुझे अन्धेरा घुप ।
ऊपर से लगता ही होगा
मैं भी रहा अबोला, चुप

परिषद में विमर्श करके क्या
सीता वन जा सकती थीं ?
जन प्रवाह के आगे सत्ता
की इच्छा चल सकती थी ?"

'क्या सीता निर्वासन इतना
आवश्यक था ? बोलो तो ।
सीता का अपराध कहाँ है?
गाँठ राजसी खोलो तो ।'

'सीता को दण्डित करना था
हर कोई कह सकता है।
जन सम्मुख अपने को दण्डित
कर लूँ, यही कसकता है ।

निष्कलंक रहने की इच्छा
से वन भेजा सीता को ।
करता रहा स्वयं को पीड़ित
बने लोक मर्यादा तो

'संसृति की ऐसी जकड़न में
कहीं न्याय उग पाएगा ?
दोष रहित को दण्डित करना
न्याय कौन कह पाएगा ?

न्याय कर्म केवल इच्छा ही
नहीं, न्याय पर चलना है।
झंझावात प्रचण्ड सामने
किंचित नहीं विचलना है ।

न्याय सुलभ हो, न्यायपूर्ण हो
जन को लगे कि न्याय हुआ ।
जो भी उसके प्रतिभागी हों
लगे नहीं, अन्याय हुआ ।

न्याय कर्म ही जनमानस को
मर्यादित कर पाता है ।
न्याय और मर्यादा के सँग
वारि-मीन का नाता है।

न्याय हितों का रक्षक न्यायी
दायित्वों से बँधता है।
पीड़ित नयनों के कोए में
अपना दाय निरखता है ।

वृहत् अर्थ हैं न्याय कर्म के
वीथि गमन ही न्याय नहीं ।
व्यक्ति, समूहों के सन्दर्भों
में उग पाता न्याय कहीं ?

न्याय द्वार पर वैदेही को
केवल मिली उदासी क्यों ?
अधर न हिले, न कुछ कह पाई
धरती बीच लवा सी क्यों ?

कान नहीं की उसकी पीड़ा
केवल निर्णय कर बैठे ।
यही न्याय था ? पूछें खग मृग
जो आदेश सुना बैठे !

जन की बातें एक पक्ष थीं
पक्ष सुना सीता का क्या ?
व्यक्ति वेग में क्या कह जाता
उसका सत्य गुना था क्या ?

जाँच परख कर निर्णय करते
नहीं किया आदेश दिया ।
चुपके ही आँसू ढरकाया
जन के बीच न प्रकट किया।

वर्ष चतुर्दश वनवासी थे
परछाईं सी साथ रही।
द्वादश शिशिर सिया वन बीते
सुधि भी उनकी नहीं रही

वाल्मीकि जैसे महर्षि ने
कोमल तन्तु उकेरा है ।
सुना आपने दो छोरों से
पुरा बिम्ब झकझोरा है ।

कल सीता को जन समूह में
दण्डित करने की ठानी ।
जन मानस भी परख न पाया
परखेगा पीकर पानी ।

शरद त्रयोदश सँग रज छानी
नहीं सिया को जान सके ।
कैसे सहचर, नहीं प्रिया के
धवल रंग पहचान सके ?

उस पीड़ा को अनुभव करते
जिसे मैथिली ने झेली ?
धरा क्षमा उत्तेजित होती
पर वह चुप रही, अबोली।

निर्वासन पर भी वह नारी
रघुकुल रीति निभाती है ।
कुल - जन- जग को सहज भाव से
समरस पाठ पढ़ाती है ।

मुखर न हुई कभी भी वह
धर्म-नीति-कुल विपक्ष में ।
सहज साधु निर्लिप्त विनय सी
पति, कुल के सदा पक्ष में ।

भरी सभा में जन, ऋषि सम्मुख
तार-तार कर डालोगे ।
उसके जीवन की हाँडी में
कितनी पीर उबालोगे ?"

'नहीं चाहता था सीता पर
कल्मष की छाया आए ।
राजधर्म के उत्तरीय कब
निष्कलंक रह ही पाए ?

जो आदर्श चाहता था मैं
उसमें भी व्याघात दिखा ।
नियति खेल क्या सदा भिन्न है
सदा वहाँ पविपात छिपा ?

राजधर्म की साँकल से ही
अपने को कसता जाता ।
निज पीड़ा के ही निदर्श में
कलुष उसे भी भुगताता ।

स्वयं दुखी हूँ पर विकल्प पथ
द्वार न और खुला पाता ।
राजपुरुष के परिवारों का
वसन धवल यदि रह पाता ?

राजवसन पर कल्मष के कुछ
छींटे देख नहीं पाता ।
इसी भाव में अपनों को ही
निशिवासर जाँचा जाता ।'

'अभी समय है, यज्ञ भूमि यह
द्विधा ग्रस्त क्यों? कलुष न लो ।
सीता का स्वागत परिसर में
सहज दिशा की डगर चलो ।

राजधर्म निज पीड़ा का ही
दर्शन कब है हो पाता ?
समरस भाव उगाने का भी
यंत्र वही बनता जाता ।

चुप हो बैठे ? सभा मध्य में
सीता को टहलाओगे।
‘पतिव्रत धारिणि,मैं पवित्र हूँ'
कहला दुखी बनाओगे।

संशय का यह बीज स्वजन में
उत्प्रेरक विष बोता है ।
विषहर औषधि निष्क्रिय होती
गहरे सिन्धु डुबोता है ।

पति-पत्नी के बीच परस्पर
विश्वासों का नाता है ।
संशय उसमें विघ्न डालता
माहुर कढ़ी बनाता है ।

कालकूट की औषधि होती
विमल दृष्टि विश्वासों की ।
वैदेही के अभिनन्दन हित
पावन दिशा उसांसों की ।

गरल अमिय बन जाता राजन
मधुमिश्रित स्वर के आंगन ।
मृदुवाणी, सत्कर्म, ज्ञान से
उग पाता है समरस मन ।

राजस मन तू बड़ा हठी है
इसीलिए मन डरता है ।
संशय का आवेग निठुर है
मन का द्वन्द्व उभरता है।'

'अन्तर्मन तू साथ रहे तो
कहाँ अँधेरे का डर है ?
घोर तमस में आत्मकिरण से
आलोकित होता घर है ।'

'राजस तेरी बातों से कल
संभवतः बरसे पानी
घर की ढूँठ हुई शाखों पर,
फूट सकें कोंपल धानी ।'

बीती रात विमर्श जाल में
प्रत्यूष काल हो आया ।
विरह मौन में कुछ क्षण बीते
ध्यान कहाँ लग ही पाया ?

हर क्षण वैदेही का ही मुख
मन के दर्पण झलक उठा ।
आँखों में छवि बन्द किए हैं
नहीं खोलते, डर किसका ?

पिहक पपीहे की दूरागत
हूक उठी तन सिहर उठा।
उधर मयूरी के आँगन में
मोर नाचकर विहर उठा ।

देख काल रघुकुल कुल भूषण
आँखें मूँदे जगे हुए ।
बाँच रहा अपने अनुभव से
पृष्ठ यहाँ जो खुले हुए ।

“जग सेवित प्रभु राम आज क्यों
निज पद चाप तोलते हैं ?
मृग लोचन के प्रिया बिम्ब में
घर के स्वप्न देखते हैं ?"

काल मन्द मुस्का उठता है,
प्रश्नों के पृष्ठ उकेरे ।
'कौन प्रश्न का उत्तर देगा ?
क्यों प्रभु को चिन्ता घेरे ?

प्रभु विषाद के विविध अर्थ, जन
क्यों बाचें साँझ सबेरे ?
क्रिया, ज्ञान, इच्छा दुविधा में
क्यों पलते मानुष छेरे ?”