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रात साक्षी है - प्रकरण 5

‘रात साक्षी है’ (पांच खंड)


‌‌घर के पृष्ठ

लक्ष्मण बैठे पद्मासन में
मन की दिशा पकड़ते ।
सुधियों में हिचकोले खाते
घर के पृष्ठ उलटते ।

घर के राग-रंग क्या होते?
मनुज रचाता घर क्यों ?
कोई घर कैसे बनता है ?
घर का अन्त अघर क्यों?

छत - दीवारें घर कब होती
स्नेह तरल घर होता ।
घर की नींव आस्था होती
घर को अहं डुबोता ।

समरस मन ही घर बाहर को
जोड़ बिम्ब रच जाता ।
युवकों और वरिष्ठों के मत
अन्तर कम कर पाता ।

उधर वरिष्ठों में ही कैसे
घर से विरति जगी है ?
घर की दीवारों में कैसे
चकती विमति लगी हैं ?

घर खँडहर होने में कैसे
कुछ ही दिन हैं लगते ?
खँडहर के आँगन में घर के
अंकुर कैसे उगते ?

वनवासी सीता सुधि आते
आँखें नम, भर आईं
तात स्वयं कुश पर सोते हैं
घर की यही कमाई

नयनों का संकेत रहा है
आदेशों से गुरुतर ।
उनकी इच्छा पूरी करने
रहा सदा ही तत्पर।

जब भी मैंने निज विवेक से
तात वचन झुठलाया ।
संकट के बादल घिर आए
सबने कष्ट उठाया ।

माँ सदृशा मैथिली भेजने
तात तपोवन भेजा।
उनकी इच्छा तप्त अग्नि, पर
अपनी पीर सहेजा ।

वह दिन और एक दिन कल है
उसी तरह जलता है ।
कितनी सुधियाँ उगी सांस में
अपयश क्यों फलता है ?

कंचन अपयश भागी होता
कांसा सब कुछ पाता ?
कैसा विश्व रचा सर्जक ने
प्रश्निन् कहाँ उठाता ?

संसृति सिन्धु किनारे बैठा
कोई भी विष घोले ।
पूरा विश्व विषम ज्वर पीड़ित
कहीं न कोई बोले

आज्ञापालक रहा तात का
पर मन दुखी बनाता |
अभिशप्त यहाँ रघुकुल का घर
अपनी व्यथा सुनाता ।

जन्म काल से वैदेही सुत
अन्तेवासी होंगे ।
ज्ञान न होगा उन्हें पिता का
मुनि के शिष्य कहेंगे ।

इधर देखता व्यथा तात की
उधर मैथिली चिन्ता ।
सहचर होंगे रघुकुल आँगन
पल-पल था दिन गिनता ?

कल क्या फिर वसन्त का वैसा
उत्सव हो पाएगा ?
प्रहर अभी तो डेढ़ शेष हैं
शिशिर अन्त पाएगा ?

कौन जानता कहाँ नियति कुछ
उथल-पुथल कर जाए ?
आशा के विपरीत नया कुछ
घर का रूप दिखाए

वैदेही को भेज तपोवन
घर यह अघर हुआ है ।
अघर कभी यह घर बन जाए
मन में पला सुआ है ।

कितने यत्न किए हैं लेकिन
घर को बाँध न पाया ।
योग- भोग की लोई काटे
किंचित राँध न पाया ।

कितना उन्हें परखते हैं हम
जिनके कर्म धवल हैं।
नहीं देखते जिनके पावों
कलुष बैठ निश्चल है।

जनमत कालिख वहाँ न देखे
कल्मष जिनकी पौरी ।
कभी न देखे जिनके घर नित
सत्ता मलै गदौरी।

शुभ्र धवल कैसे रह पाएँ ?
काजल लिखती दुनिया।
प्रश्न कठिन पर उत्तर चाहे
करे विचार सगुनिया‌।

युगों युगों तक अनुत्तरित ही
रह जाने का डर है ।
यही चुनौती लिए मनीषा
डोले डगर डगर है ।

'खोजो लक्ष्मण, उत्तर खोजो
अपना स्वत्व न भूलो।
काल लेख उत्तर देता है
बाँच सको तो पढ़ लो ।'

'किसकी वाणी आज सुन रहा
छाया किसकी दिखती ।'
'लव, क्षण, निमिष, काल मुखरित हूँ
देख तुम्हारी सिसकी।

लक्ष्मण तेरा रूप सहज यह
वाणी ताप कहाँ है ?
सिन्धु सोख, ब्रह्माण्ड उठाने
का व्रत आज कहाँ है ?"

'आज न पूछो, मैं प्रभु का चर
प्रभु आज्ञा सिर माथे ।
उनकी इच्छा के पालन हित
लक्ष्मण चुप्पी साधे।’

'चुप्पी साधे घर की चिन्ता
बुद्धि विलास न होगा !
बिना क्रिया साहस के कैसे
घर का दीप जलेगा ?

घर पौरी विमर्श में बाधा
घर कैसे घर होगा ?
लक्ष्मण तेरा मौन अखरता,
समरस बिम्ब उगेगा ?

वर्तमान मैं पर सोचो तुम
अहम भूमिका तेरी।
मर्यादाएँ सूखी टहनी
लय साहस की चेरी।’

'वर्तमान तू जिसने मेरी
हृद्तंत्री झकझोरा ।
पर वह लक्ष्मण कहाँ रहा मैं
मन का छन्द अछोरा ।

घर कितनी कोमल संरचना
तंत्री संवेदन की ?
कलिका को उन्मीलित करती
शाला सहज विनय की ।

घर जीवन में रस उपजाता
शिशु के रूप निखरते ।
अघर स्नेह-श्रद्धा अवरोधी
कटुता, अनय पनपते ।

ककुत्स्थ कुल भी बिन वैदेही
क्या घर कभी बनेगा ?
कभी सहज उनकी वाणी का
स्वर आँगन गूँजेगा ?

मैंने उनके पद चिह्नों को
सदा ध्यान दे बाँचा
उनकी दृढ़ता छिपी विनय में
अन्तस् कितना साँचा ?

अपने मत का दृढ़ संप्रेषण
मैंने सदा किया है ।
प्रभु निषेध की छाया में अब
मेरा अधर सिया है ।

काल ठठाकर हँसो, गुनों या
मंद-मंद मुस्काओ
तेरे ताप सकल जग विचलित
राजा-रंक बनाओ।

इस घर में भी नृत्य तुम्हारा
अविरल कला दिखाता।
पल-पल घर का रंग बदलता
घर को अघर बनाता ।'

'काल कभी प्रभु घर का कारक
हो पाएगा कैसे ?
काल-स्वभाव-कर्म-भूतों को
मिलती गति न परम से?

काल मांगता वर्तमान में
अधुनातन का उत्तर ।
भाग रहा उत्तर देने से
बूढ़ा वही, पश्चचर।

जो युग का उत्तर दे पाता
हर युग वही महत्तर
लक्ष्मण अब भी उत्तर खोजो
कैसे केवल अनुचर ?"

'उत्तर देने का साहस ही
जाने क्यों खो बैठा ?
वर्तमान के जटिल तन्तु में
भावी भी दे बैठा ।'

'वर्तमान की जड़ें पुरा में
भावी अंकुर कोंपल ।
उसकी द्रोणी पर्वत में भी
कितने सांस्कृतिक तल?

हर तल की अनुभूति सघन हो
नव परिदृश्य बनाती ।
उसके दर्पण में भावी डग
दिशा स्वयं दिख जाती ।

वर्तमान की आँखों से ही
भूत भविष्यत् दिखते ।
पुरा नींव आगामी अंकुर
नित प्रत्यक्ष उभरते ।

जिसके घर क्षण पानी भरता
उसे पराजित कर भी।
शेष आज असमर्थ हुए क्यों?
और विकल क्यों प्रभु भी?"


कौन बैठा है


यज्ञवेदी दूर, वट छत उठाए
रात वट छाँव में निज मुँह छिपाए
कौन बैठा है ?
सिसकियों के स्वर तनिक धीमा किए
अर्चना में शिर नवा आँसू पिए
कौन बैठा है ?
भद्र की जन बोलियाँ सुनते हुए
मातु की उर वेदना गुनते हुए
कौन बैठा है ?
पूँछ से लंकेश के मान मेटे
आज उस पूँछ को अन्दर समेटे
कौन बैठा है ?
मैथिली खोज में हुलसे सिधाए
रूप अपना धुँधलके में छिपाए
कौन बैठा है ?
राम-सीता हर समय जपते हुए
आज जन से दूर माँ रटते हुए
कौन बैठा है ?
न जाने क्या घटित होगा सबेरे
हृदय की पीर के रेशे उकेरे
कौन बैठा है ?

आज मैं कितना दुखी हूँ?

कभी भी मन में न था, माँ वन बसेगी ।
पुनि वही लंकेश की चर्चा उठेगी ।
जीत कर लंका, न हो पाया सुखी हूँ ।

स्नेह का दीपक सदा जिसने जलाया ।
स्वयं जलकर दीप बुझने से बचाया ।
थरथराती दीप लौ, क्या मैं सुखी हूँ ?

क्या अवध की बस्तियाँ लंका बनेंगी ?
घरों में दशग्रीव की क्या छवि बसेगी ?
गिरि उठाया, पर कहो क्या मैं सुखी हूँ?

प्रभु और दशमुख युद्ध के उत्ताप में
झुलसते जाएँगे प्रजाजन आप में ।
अघर देखें रीछ वानर, क्या सुखी हूँ?

कहो करूँ क्या? क्या न करूँ माँ?

लोक सत्ता स्वर नशीले
संवेदना तार ढीले
किसको छोडूं, किसे कसूॅं माँ ?

लोकमत बनता, बनाता
स्वयं सधता, है सधाता
किसको साधूँ, कहाँ सधूॅं माँ ?

भीड़मत निर्मम खिलौना
देखता कब वृद्ध छौना ?
निर्ममता से कहाँ लडूॅं माँ ?

बोलता कुछ भी न कोई
चेतना है अलस सोई
किसे जगाऊँ, कहाँ जगूँ माँ ?

माँ तुझको कुछ करना होगा ।
मेरी पीर समझना होगा ।

बोझिल मन निशिवासर जगना,
नदी कोख में नित का बसना,
फिर भी प्यासा का प्यासा मन
मन के पार उतरना होगा ।

आज अयोध्या सूनी-सूनी,
किसका चूल्हा, किसकी धूनी ?
सबके अन्दर वही आग है,
धारासार बरसना होगा ।

जाने क्यों अब मन डरता है?

कल माता की पुनः परीक्षा,
कौन जानता‌ प्रभु की इच्छा,
कैसा हो विस्फोट प्रात का,
सृष्टि नियन्ता क्या करता है ?

जाँच परख भी उत्सव बनता,
उत्सव पर उत्सव है ठनता,
पर माँ का मुख मण्डल देखो
क्षण-क्षण जलद उठा करता है ।

कैसी लहर पकड़ता रे मन ।

लहर-लहर पर प्रभुता प्रभु की,
बूँद-बूँद पर ममता माँ की,
दोनों बीच सिहरता रे मन ।

राह एक थी छन्द एक था,
लय का भी संवेग एक था,
लय पा नित्य विहरता रे मन ।

सेवक प्रभु के, चर हम माँ के,
नित्य अगोचर परम तत्त्व के,
था निर्द्वन्द्व उछलता रे मन ।

आज विभाजित डगर, ठांव भी,
सूखी डाल न आम्र मंजरी,
अमा निशा में दहता रे मन ।

वट की साँसें विह्वल बोझिल
चुप-चुप रजनी खिसकी ।
हनुमत् डूबे व्यथा सिन्धु में
रुक-रुक निकली सिसकी ।

देख अंजनी नंदन का दुख
काल डरा, सिहरा है ।
शक्ति स्रोत जो मन शरीर का
अतिबल, अतप भरा है ।

वही आज सिसकी ले रोए
वट तर बैठ अँधेरे ।
माँ प्रभु दोनों हृद् में बैठे
कैसे अलग बने रे ?

नहीं डरा लंकेश शक्ति से
विपिन अशोक उजारा I
आज यहाँ अपनों में बैठा
अपने घर से हारा I

काल स्वयं अपना बल आँके
आँके हनुमत् बल भी ।
यदि मारुत विषाद ज्वर पीड़ित
कौन बचे इस उर्वी ?

सिसकी लेते देख रहा वह
नसें कठोर, अकड़ता तन ।
मुख मण्डल आरक्त नयन नत
अहक टकोर, सिहरता मन ।



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