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रात साक्षी है - प्रकरण 2


‘रात साक्षी है’ (द्वितीय खंड)


मंथन

छिपते हैं, दिखते हैं बादल ।
रह रह धार पकड़ते बादल ।

बीच बीच में साँस हनकती
इधर उधर हैं छिपते बादल ।

दीप - शिखा के सम्मुख सीता
देखे मन के उठते बादल ।

अग्नि- पुंज सा प्रश्न सामने
मुड़ मुड़ उधर देखते बादल ।

वैदेही के मन में आँधी
भटक भटक कर दिपते बादल ।

वैदेही का मन पंछी उड़
माँ की चौखट धूलि उठाता ।
कितने बिम्ब उगे उस घर के
कितने रंगों में उलझाता

उन दृश्यों की धड़कन में मन
कभी उलझता, कभी उमगता ।
कितने दृश्याभास मचलते
उनका कोई छोर न दिखता |

रंगों में आभासी विविधा
सँग ही उनके छन्द बदलते ।
रत्न निकलते जो मंथन से
धूसर कहीं, चटक हो दिखते ।

माँ मेरी अब तू ही बोल
दुखती नसें, बजाऊँ ढोल ?

निशि -वासर जो इसे बजाया,
कितना हर्ष-विषाद समाया,
किस किस ड्योढ़ी माथ नवाऊँ ?
तू ही अपना अन्तस् खोल।

किसका सूत कहाँ का ताना?
कितना घना लगाऊँ बाना?
बुनकर क्या कुछ दे पाऊँगी
उत्तर कितना गोल मटोल ?

सोन चिरैया माँ कहती थी ।

सोनजुही थी नव कलिका थी ।
माँ के जीवन की तरिका थी ।
सावन गाती, मोद मनाती,
'गौरय्या-सी' माँ कहती थी।

भूरे काले बादल छाते
मोर पिहकता हम बतियाते
नाचा मोर मयूरी चहकी
'आँगन - पंछी' माँ कहती थी ।

घर का अमिय कहाँ जाता माँ ?

दीप स्नेह से युगल जलाता
मनसिज रति से होड़ लगाता
विघ्न कहाँ से बीच टपकते ?
अहं तमस ही रह जाता माँ।

शिशिर वसन्ती अनुभव कितने ?
युग धर्मों के साझे सपने
खुद जाती क्यों गर्त अँधेरी ?
साझापन ही डर जाता माँ ।

नई पीढ़ियाँ गढ़ते बढ़ते
नवल रूप के बिम्ब देखते
विषघट कहाँ उलट जाता है ?
घर का रंग बिखर जाता माँ।

संसृति का यह रंग सुखद क्या?
स्रष्टा की वह दृष्टि रही क्या?
सुख-क्षण कहाँ छला जाता है?
घर के तन्तु सुखा जाता माँ ।

तीर तीर चलते ही बीत गए दिन
नीड़ों को बुनते ही बीत गए दिन
धरती माँ बोलो तो?

व्योम से उतरी न मैं, पौरी पलीऽ
भूमिजा, भूसम्भवा, माँ की ललीऽ
लोक के प्रभंजन ने क्लेश दिए गिन
राजधर्म कैसा यह, आग लिए तृण?
उर्वी माँ बोलो तो ?

छोरों की आँखों में प्रश्न जो उगे
मन के मृदुकोरों में तीर से चुभे
कहाँ तक चुकाऊँगी नीड़ों के ऋण ?
नीर-क्षीर बीच उलझ, सीझ गए दिन
इलिका माँ बोलो तो?

क्या वीथी वीथी चलती थी?
या अपनी राहें गढ़ती थी ?

अनसूया माँ तेरा बाना,
जीवन में अक्षरशः माना,
कितने द्वार दिशाएँ देखीं
क्या मैं छद्म लिए पलती थी?

मातु - पिता को शीश नवाया,
संस्कार, सत्कर्म निभाया,
जिनसे डोर बड़ों ने बाँधी
उनकी छाया बन चलती थी ।

जग कहता, 'पग बाहर आया,
किया वही जो मन को भाया,
जंगल अटवी की रज छानी,
राजवधू जंगल बसती थी ?

तूने लक्ष्मण रेख न मानी,
सीता से हो गई भवानी,
वन अशोक जन ने कब देखा ?
क्या जानें कैसे रहती थीं?"

प्रश्न मथे मन, उरझे तन मन,
जन कुछ भी कह ले हो उन्मन,
बिंदिया सेते जीवन बीते
पुंश्चली कह कर न थके जन ।

ऐसी कौन बही पुरवाई?
माँ पौरी पुनि देख न पाई ।

माँ का स्नेह सदा मुस्काना
मैं रूठूॅं तो तुरत मनाना
वर्षा-जल सा निकल गया सब
भीगी मैं, जल बाँध न पाई ।

सपने बुनते जीवन बीता
खण्ड-खण्ड जीवन रस रीता
जन के बीच पली तैरी थी
जन की छाँह कहाँ मिल पाई ?

नई पौध को दण्ड न देना
अकलुष जीवन जीने देना
साधा अपने को कितना ही
छवि की साख कहाँ बच पाई ?

घर की छाँव न वंचित करना
मुझे कहा जो, उन्हें न कहना
शब्द तीर से अधिक चुभेंगे
झुलस उठे अल्हड़ तरुणाई ।

माँ तुझको तो ज्ञात सभी कुछ
नर-वानर मैं किसे सुनाऊँ ?

चाह रही तेरे आँचल में
मुँह ढाँपूँ, उर-ताप मिटाऊँ ।

पर तेरी पौरी आने के,
मेरे दिन वे कैसे बीते ?

सपनों से जो भरे कलश थे,
घर से निकले चुप-चुप रीते ।

आशीषों से दूर न करना
आँचल छाया बढ़ी-पली हूँ ।

बचे हुए जीवन के कुछ पल
पंछी घर की वही लली हूँ।

घर के आँगन का छूम छनन
झूम थिरक कर गाता था मन ।

माँ मैंने तो जी भर देखा
जीवन क्रम का लेखा-जोखा
घूमी थी सारे गलियारे
पंछी बन, उड़ जाता था मन ।

तालपर्णि सब मिलकर गाते
हरिण युगल भी ताल लगाते
मैं नाची थी, वे भी नाचे
कितना रस छलकाता था मन?

अरी सारिके ! सोन चिरैया
नाची थी तू ता ता थैया
कलकंठी स्वर आगे-पीछे
समरस बीन बजाता था मन ।

मुझको आज सिसकने दे माँ ।
व्रण गुरु गहन, उभरने दे माँ ।

तन की सिहरन के क्षण बीते
गाँव-गढ़ी से निकले रीते
अब तक बाँध समेटी गठरी
उर की गाँठें खुलने दे माँ ।

कितनी पीड़ा पाई मन ने
मर्यादा के इस कोटर में
कोटर के इस वृहद् जाल से
किंचित दूर निकलने दे माँ ।

रात ढल रही, प्रात निकट है
पाप पुण्य फल सहज प्रकट है
मन को गहरे कहीं साधकर
तन का तर्पण करने दे माँ ।

पौरी धार न टूटी
बच्चों की सुधि आई
नयन सजल, पर दुविधा
प्रश्नों से टकराई।

वनवासी बच्चों का
नागर स्वागत कैसा ?
कैसे सहज मिलेगा
उनको गौरव घर का ?

कितने प्रश्न उभरते
उनके कितने उत्तर?
देख रही वह हिरनी
हिरना बैठे तरुतर ।

पीड़ा की भी परतें होतीं
कुशलव पीर दुखाती है ।
अन्दर जिस सत्ता का डेरा
सोते वही जगाती है ।

विपदाओं के बीच आस्था
लोरी गुन-गुन गाती है ।
पर भोले लव की जिज्ञासा
मन विचलित कर जाती है ।

बच्चों की किलकारी से ही
जीने का सम्बल पाया है।
इन्हें देखकर मन के कोने
इन्द्र धनुष उगता आया है ।

वंश-वल्लरी बढ़ते पाकर
मन थोड़ा उन्मुक्त हुआ है ।
बच्चों के किशोर मन में भी
अपने पर विश्वास जगा है ।

मेरी छाया के साँचे से
बाहर भी चल, निर्णय लेना ।
शक्ति बटोरी जो कुछ मैंने
पाला उससे, दुखी न होना ।


हठमत करना बेटा लव तू
कुश के साथ सजग हो रहना ।
तेरे हित सेवा ही तप है ।
अपनी राह बनाकर चलना ।

उलझाती जग जटिल रीतियाँ,
सुलझा कर पग रखना होगा।
फिसलन भरी वीथियाँ सारी,
पैर धँसा कर चलना होगा ।

कंकण नूपुर की अठखेली
अभी न देखी तेरे आँगन ।
पर महर्षि स्नेहिल आँखों में
नित्य कौंधता छम-छम आँगन ।

लव ने गुरु से प्रश्न उठाया
'प्रश्न कौन सा ?' मैं कह बैठी ।
बोला, 'गुरु ने हमें सिखाया,
राजधर्म का मर्म सहज ही ।

राजकुमार राम त्राता बन
गौतम नारी शाप मिटाते।
पर वे ही निष्कासित करते
निज पत्नी जब राज चलाते ।

संगति क्या दोनों कर्मों में ?
मैंने पूछा था माँ गुरु से ।
हुए चकित, उँगली मस्तक पर,
आँखें खोजी उठीं, सँभलते ।'

'संवादों में इसका उत्तर
हम सब मिलकर ही खोजेंगे ।
जीवन के अन्तर्विरोध का
समाहार उगते देखेंगे।’


'मर्म वेधता प्रश्न तुम्हारा'
कुश की जिज्ञासा उग आई ।
'माँ ये प्रश्न' कहा लव ने ज्यों
मेरी आँखें भरीं, नहाईं ।

मेरी आँखों में निहारते
बच्चे भोले व्यथित हुए हैं ।
'टेढ़े प्रश्न अभी रहने दो
बोली मैं, वे ठिठक गए हैं ।

उचित किया, आगे निस्तारण
कर देंगे गुरु, अद्भुत ज्ञानी ।
सरल प्रश्न पहले हल कर लो
तब उतरेंगे गहरे पानी ।'

सविता यही
पता न इनको
कौन पिता हैं?
वनवासी क्यों?
श्लोक ऋचा
में मग्न बावरे ।

पढ़ते, गुनते
निस्पृह रहते
राहें गढ़ते
धँसते बढ़ते
लहर चूमती
नदी, नाव रे ।

कौन पिता हैं
झट कह देते
हम महर्षि के
शिष्य युवा हैं
सहज बिछाते
पलक पाॅंवड़े।

बच्चों की सुधियों के साये
जाने कितने प्रश्न उभरते ?
अंबुधि में नारी पीड़ा के
कितने गहरे गोते लगते ?

नाते नर-नारी-सत्ता के
बाँच रही वह, करुण कहानी ।
कोने अँतरे भी दिख जाते
अर्थ बदलते, घर का पानी ।


अँजुरी भर आखर हैं बिन आखर मन ।
गोले में वाक चतुर, बाहर क्यों जन ?
अबोले जनों की बस्ती क्यों उन्मन ?
नागर छाया से क्यों भाग रहा मन ?

वाकदंश चुभ जाएँ, सिहर उठे तन ।
डोले क्यों पीपल के पात सदृश मन ?
उग आतीं सुधियाँ छन-छन कर चुपके
निर्मल आकाश मध्य स्वच्छ धवल घन ।

शब्दों के अलग-अलग अर्थ करे मन ।
भावों से दूर कहाँ जा पाए तन ?
कहने से अधिक रह जाता अनकहा
परत-परत खोल चले बिन आखर मन ।


कहते हैं दुख-सुख जीवन की
परछाईं हैं साथ चलेंगे
दुख के सागर में सुख के क्षण
काले-भूरे घन बरसेंगे |

जीवन की बगिया में जितनी
धूप-छाँह सब मचल उठेंगे ।
कांटों में कलियाँ खिलती हैं
विषधर चन्दन वन न मिलेंगे ?

सुख पाहुन पर दुख सहचर है
दोनों नाविक खे निकलेंगे ।
दुख ही सुख का अर्थ बता कर
अनुभव को परिशुद्ध करेंगे ।

'कर्म किसी का, दाय किसी में
दूर-दूर तक देख रही मैं ।
इसका अर्जन, घर में उसके,
पर इससे क्या युति बनती है?

मैंने युति की बात चलाई,
किसकी कैसी क्या भरपाई ?
मन भागे कंचन मृग पीछे,
यहीं कहीं संगति दिखती है।

क्षण का कर्म कहाँ ले जाता?
शाप, ताप शोणित उमगाता ।
लघु कर्मों से जुड़े विशद फल,
जन्मों तक संगति उगती है।’

बहुत कुछ देखा सुना मैंने
ऊर्ध्व चेता थी सदा यह देह ।
कर्म का विश्वास ओढ़े मैं
चली, निस्पृह हुई यह देह ।

कंटकों के बीच बीते दिन
आग में कंचन तपाई देह |
साधना की राह पर भटके
नहीं, पारद बनाई देह |

वन बालाएँ मेरी सहचर
पंछी ज्यों उड़तीं वे फर फर
घर चूल्हा, बतरस, तरुछाया
सुरसरि जल में तैरें सरसर ।

नदी नहाना, कुछ मुस्काना
हँस-हँस कर बतरस छलकाना
घर की सुधियों के आलंबन
जिज्ञासाएँ छन छन आना ।

रात कलियाँ रख लीं उपवास
न पुष्पवन ही खिले, न मडके
काँटे रहे उबलते |

छतधर बरगद हुआ उदास
लाल कोंपलें भरी रोष से
सरपत आहें भरते ।

शशक मौन हो बैठे लव पर
हिरण चौकड़ी नहीं भर रहे
सिंह ध्यान में डूबे ।

वनवासी, संन्यासी, वनचर
सहचर वे मिथिला-बेटी के
शोक सिन्धु में डूबे।

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