शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 26 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 26

[ शिवाजी महाराज एवं न्याय व्यवस्था ]

शिवाजी महाराज के निष्पक्ष न्याय का ज्वलंत उदाहरण है, ज्येष्ठ पुत्र संभाजी के संदर्भ में उनके द्वारा ली गई भूमिका।
शिवाजी महाराज की अनुपस्थिति में युवराज संभाजी ने राज-काज में जो हस्तक्षेप किया था, उसके कारण अष्टप्रधान मंडल के साथ उनका उग्र विवाद होता रहता था। उन विवादों के कारण महाराज का विश्वास युवराज संभाजी पर से उठ चुका था।
शिवाजी महाराज के एक प्रमुख ब्राह्मण दरबारी अण्णाजी दत्रे की बेटी से मिलने के लिए युवराज संभाजी गढ़ उतरकर जाते थे। उस लड़की के साथ संभाजी के अनैतिक संबंध कहे जाते थे। यह पता चलने के बाद महाराज ने अपने युवराज संभाजी को सज्जनगढ़ भेज दिया था, जहाँ महाराज के पूज्य गुरु संत रामदास रहते थे।
दिसंबर 1678 में, जब शिवाजी महाराज अनुपस्थित थे, संभाजी पत्नी येसूबाई को साथ लेकर दिलेरखान के पास चले गए। दिसंबर 1679 में संभाजी स्वराज्य में वापस भी आ गए।
दिलेरखान जैसे शत्रु के यहाँ पनाह लेकर संभाजी ने बहुत बड़ी भूल की थी। यह भूल देशद्रोह के समकक्ष थी। देशद्रोह के अपराध के लिए शिवाजी महाराज ने खंडोजी खोपड़े का एक पैर एवं एक हाथ काट दिया था। अब संभाजी ने भी देशद्रोह का अपराध किया था। शिवाजी ने संभाजी को कभी माफ नहीं किया। उन्होंने अपनी अंतिम घड़ी में भी संभाजी को पन्हालगढ़ से रायगढ़ नहीं बुलाया।
आगे दिए गए वर्णन से शिवाजी की समता की भावना और भी स्पष्ट हो जाती है। कास्मे द गार्डा नामक इतिहासकार ने अपने ग्रंथ ‘लाइफ ऑफ द सेलिब्रेटेड शिवाजी’ में लिखा है—
“अफजल खान अपनी जबरदस्त फौज के साथ जब मराठा स्वराज्य में दाखिल हुआ, तब जीत उसी की होगी, ऐसा माना जा रहा था। एक मराठा सरदार खंडोजी खोपड़े इस लालच में अफजल खान से जा मिला कि यवनों की जीत होने के बाद उसे उतरोली का देशमुख बना दिया जाएगा।
किंतु खंडोजी की आशा के विपरीत शिवाजी महाराज ने अफजल खान का वध कर दिया। इससे खंडोजी खोपड़े के होश उड़ गए। वह तत्काल समझ गया कि अब शिवाजी आक्रमण करेंगे और मुझे किसी सूरत में नहीं छोड़ेंगे। “जान कैसे बचाऊँ ?” की उधेड़बुन में खंडोजी को अपने ससुर की याद आ गई, जिनका नाम था राव शिलीमकर। उनकी कांहोजी जेधे के साथ अच्छी दोस्ती थी। कांहोजी जेधे थे, शिवाजी महाराज के अत्यंत विश्वास के सेनापति। कांहोजी बाकायदा अपने पाँच पुत्रों के साथ शिवाजी महाराज की सेवा में थे। कांहोजी जेधे पुराने जमींदार थे, जिन्होंने शिवाजी के समर्थन में अपनी जागीर छोड़ दी थी। अगर कांहोजी जेधे के जरिए शिवाजी महाराज से माफी माँगी जाए, तो जरूर मिल जाएगी।
खंडोजी खोपड़े ने अपने ससुर हैबतराव के जरिए कांहोजी जेधे से कहलवाया कि वे उसे शिवाजी से माफी दिलवा दें।
शिवाजी महाराज कांहोजी जेधे का निवेदन अस्वीकार न कर सके। उन्होंने खंडोजी खोपड़े को माफ कर दिया। दूसरी ओर वे खंडोजी खोपड़े द्वारा की गई गद्दारी को भूल भी नहीं पा रहे थे। उनके मन में क्रोध उबल रहा था। एक दिन उन्होंने खंडोजी को बुलवाया और उसका दाहिना हाथ व बायाँ पैर काट डाला।
कांहोजी जेधे चकित रह गए। शिवाजी अपना वचन कभी तोड़ते नहीं थे। इस बार कैसे ऐसा हो गया ? आखिर उन्होंने शिवाजी महाराज से कारण पूछा।
शिवाजी ने उत्तर दिया “खंडोजी ने जिस हाथ से स्वराज्य के विरुद्ध तलवार उठाई थी, उस हाथ को हमने काट डाला। जिन पैरों से चलकर वह हमारे शत्रु से मिला था, उन दो पैरों में से सिर्फ एक ही तो काटा! हमने आपको वचन दिया था कि खंडोजी के प्राण नहीं लेंगे, तो हमने कहाँ उसके प्राण ले लिये हैं?”
शिवाजी महाराज ने 8 जनवरी, 1675 के दिन शिव विनायक को जो पत्र लिखा था, उसके अनुसार वे अपने सभी अधिकारियों से कठोर अनुशासन की अपेक्षा करते थे। ऐसी अपेक्षा वे अपने ब्राह्मण अधिकारियों से भी करते थे, जबकि उस काल में सभी ब्राह्मणों को हर प्रकार की सजा से मुक्त रखा गया था।
शिवाजी के समय में सर्वसाधारण नियम यही था कि ब्राह्मण ने चाहे कितना ही गंभीर अपराध किया हो, उसे कोई दंड नहीं दिया जाता था, क्योंकि ब्राह्मण ईश्वरीय शक्तियों के संचालक थे। ब्राह्मण कितना भी भ्रष्ट हो, उसे श्रेष्ठ ही समझना चाहिए; ऐसी भावना जनसाधारण के मन में बसी हुई थी।
किंतु शिवाजी महाराज ऐसी परंपराओं को नहीं मानते थे। उसी प्रकार यदि स्वराज्य के किसी काम में कोई ब्राह्मण बाधा डाले, तो उसे सजा देने का निर्णय कर लिया गया था। उनकी यह कार्य-नीति निम्नांकित पत्र से स्पष्ट होती है—

(मूल मराठी से अनूदित)
‘मशहुरल हजरत राजश्री जिवाजी विनायक सुबेदार व कारकून, सुबे मामले प्रभावली प्रति राजश्री शिवाजीराजे दंडवत सुहूर सन् खमस सबैन व अलफ दौलत खान व दरियासारंग यांसी ऐवज व गला राजश्री मोरोपंत पेशवे यांणी वराता सुबे मजकुरावरी
दिधल्या त्यांस तुम्ही काही पावले नाही, म्हणोन कलों आले. त्यावरून अजब वाटले की, ऐसे नादान थोडे असतील!
‘तुम्हांस समजले असेल की याला ऐवज कोठे तरी ऐवज खजाना रसद पाठविलिया मजरा होईल, म्हणत असाल तरी पद्मदुर्ग वसवून राजपरीच्या उरावरी दुसरी राजपुरी केली आहे त्याची मदत व्हावी; पाणी, फाटीं आदि करून सामान पावावे; या कामास आरमार बेगीने पावावे ते नाही । पद्मदुर्ग हबशी फौजा चौफेर जेर करीत असतील, आणि तुम्ही ऐवज न पाठवून आरमार खोलंबून पाडाल! एवढी हरामखोरी तुम्ही कराल आणि
रसद पाठवून मजरा करू म्हणाल, त्यावरी साहेब रिझतील की काय ? हे गोष्ट घडायची तरी होय; न कले की हबशियांनी काही देऊन आपले चाकर तुम्हांला केले असतील! त्याकरिता ऐसी बुद्धी केली असेल !
'तरी ऐशा चाकरांस ठीकेठीक केले पाहिजेत! ब्राह्मण म्हणून कोण मुलाहिजा करू पाहतो या उपरी तरही त्याला ऐवज व गला राजश्री मोरोपंती देविला असेल तो देवितील। तो खजाना रसद पावलियाहून अधिक जाणून तेणेप्रमाणे आदा करणे की ते तुमची फिर्याद न करीत व त्यांचे पोटास पावोन आरमार घेऊन पद्मदुर्गाचे मदतीस राहात ते करणे ।
‘याउपरी बोभाट आलियावरी तुमचा मुलाहिजा करणार नाही गनिमाचे चाकर, गनिमाचे चाकर, गनीम जालेस, ऐसे जाणून बरा नतीजा तुम्हास पावले, ताकीद असे।
सारांश यही कि जो काम तुम्हें करना चाहिए था, वह तुमने नहीं किया। शायद तुम्हें किसी ने कुछ देकर अपनी ओर मिला लिया। इसीलिए तुम्हारी बुद्धि ऐसी भ्रष्ट हुई।
फिर भी ऐसा करने वाले को सजा देनी ही चाहिए। ब्राह्मण समझकर कोई छूट नहीं दी जानी चाहिए। योग्य समय पर लेकर पद्मदुर्ग की मदद की जाए और यदि कोई शिकायत आती है, तो तुम्हें परिणाम भुगतना पड़ेगा।

न्याय-निर्णय
शिवाजी के समय में दो प्रकार की न्याय संस्थाएँ अस्तित्व में थीं: राजकीय एवं लोकारूढ़। महाराज ने इन न्याय संस्थाओं का संचालन प्रचलित धर्म-परंपरा के अनुसार हो, ऐसी व्यवस्था की थी। दैनिक व्यवहार में न्याय एवं निर्णय की व्यवस्था उत्तम रहे, इसके लिए उन्होंने अपने अष्टप्रधान मंडल में एक न्यायाधीश की नियुक्ति की थी। धार्मिक व्यवहार में न्याय, निर्णय एवं संरक्षण के लिए पंडितराव नामक विवेकशील मंत्री की नियुक्ति की थी।

शिवाजी का विख्यात अष्टप्रधान मंडल
सन् 1638 में शिवाजी जब अपने पिता की जागीर सँभालने पूना पहुँचे थे, तब उनके पिता शहाजी ने उनके साथ 4 परिपक्व प्रशासक भेजे थे। वे थे— शामराव नीलकंठ (पेशवे), बालकृष्णपंत नरोपंत (नेजुमदार), सोनोपंत (डबीर) और रघुनाथ बल्लभ (सबनीस)।
सन् 1674 में जब शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ, तब बढ़ती जिम्मेदारियों के मद्देनजर शिवाजी महाराज ने 8 मंत्रियों के मंत्री मंडल का गठन किया । उसे ‘अष्ट-प्रधान’ कहा गया। ये 8 मंत्री थे—
1. पेशवा ( पंत प्रधान) : मोरोपंत पिंगले
2. मजुमदार ( अमात्य-महसूल): रामचंद्र नीलकंठ
3. सुरनीस ( सचिव-पत्र) : अण्णाजी दत्तो
4. वाकेनवीस ( मंत्री - परामर्श) : दत्ताजी त्र्यंबक
5. सरनोबत (सेनापति) : हंबीरराव मोहिते
6. डबीर (सुमंत-परराष्ट्र) : रामचंद्र त्र्यंबक
7. न्यायाधीश (न्याय) : रावजी नियजी
8. पंडितराव (धर्म मंत्री): रघुनाथ पंडित
न्यायाधीश एवं पंडितराव अपने निर्णय धर्म-सभा अथवा ‘हुजूर हाजिर मजलिस’ के माध्यम से लिया करते। ऐसी सभा में निर्णय के लिए राज्य मंडल के सभासद बैठा करते। इन सभासदों की राजमुद्रा हर निर्णय पत्र पर अंकित की जाती थी, ऐसा उल्लेख मिलता है। राजमुद्रा में सभासद के गोत्र का उल्लेख होता था।
खराड़े एवं कालभोर समाजों के बीच पानी के समायोजन को लेकर विवाद चल रहा था। यह विवाद पाटील-पद का अधिकारी कौन, इस बात पर था। विवाद मिटाने के लिए छत्रपति ने स्वयं धर्म-सभा बुलाई। ऐसा सन् 1675 में हुआ। इस धर्म सभा में राजमुद्रा का प्रयोग किया गया। इसमें 29 सरकारी अधिकारियों ने भाग लिया। देशपांडे, देशमुख, पाटील, कुलकर्णी एवं प्रजा के गोत्र 209 थे। कुल मिलाकर 238 सभासद उपस्थित थे।
इस धर्म-सभा ने विभिन्न जातियों का एकीकरण इस प्रकार किया कि स्थानीय राजकीय, धार्मिक न्याय विषयक एवं जाति विषयक कार्यों की देखरेख करने वाली गोत्र-सभा निर्मित हो सकी। कुल आबादी को कितने ग्रामीण क्षेत्रों में बाँटा जाए, यह संख्या भी निर्मित हुई। उन दिनों राजकीय परिवर्तनों के साथ समायोजन रखने के लिए गोत्र-सभाओं के घटकों में परिवर्तन किया जाता था। गोत्र-सभा के अलावा ब्राह्मण सभा एवं जाति-सभा के नाम से दो लोकारूढ़ न्याय संस्थाएँ भी संचालित होती थीं।
लोकारूढ़ न्याय संस्थाएँ ही न्याय का निर्णय करती थीं। सरकारी अधिकारियों का काम केवल उनको अमल में लाना था। शिकायत करने वाला अपनी इच्छानुसार गाँव, सूबे या तालुके में कहीं भी कानून की मजलिस में जाकर शिकायत दर्ज करा सकता था। किसी निश्चित स्थान पर ही शिकायत करनी चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं था। तकरार लिखने का कार्य सरकारी अधिकारी किया करते। बाद में कारकूनों की मदद से गोत्र-सभा बुलाई जाती। स्थानीय देवालय के सामने, वट या पीपल के चबूतरे पर सभा होती।
जेठ या माघ महीनों में सभा करना अधिक सुविधाजनक हुआ करता। सभी गोत्रों के लोगों के लिए ये महीने अधिक सुविधाजनक रहते थे। सभा-नायक प्रसंग के अनुरूप चुना जाता। अकसर देशमुख, पाटील या शेट्य बिरादरियों के लोग ही सभा-नायक बनते। वादी की तरफ से वकील नहीं होते थे। कोई एक विद्वान् व्यक्ति वादी और प्रतिवादी दोनों के प्रश्नों का चयन करता। यह व्यक्ति 'प्रश्नक' कहलाता था। वादी और प्रतिवादी दोनों की तरफ से सभा में विषय लिख लिया जाता। वादी-प्रतिवादी अगर अनुपस्थित रहते हों, तो सरकारी अधिकारी जवाब-तलब करके बुलाकर लाते थे। नाइक, वाड़ी, बेरड़ अथवा तकरार के विजयी पक्ष के लोगों द्वारा जो पत्रक बांटेे जाते थे, उन्हें 'महजर' कहते थे। इन पत्रकों पर सभा के सभी सदस्यों के नाम एवं निशान होते थे।
अपराध और दंड के विषय में जानकारी मिलती है कि हर अपराधी को तीन प्रकार के दंड भुगतने पड़ते थे। उसके बाद ही उसे दोष मुक्त घोषित किया जा सकता था—
1. राज-दंड अथवा दीवान-दंड
2. देव-दंड
3. जाति-दंड
सरकारी सजा को दीवान-दंड कहा जाता था। धार्मिक अथवा आध्यात्मिक दोष दूर करने के लिए दी गई सजा देव-दंड कहलाती थी। जाति-दंड एक प्रकार की सामाजिक सजा होती थी, जो विभिन्न बिरादरियों के बीच सामंजस्य बिठाती थी।

दिव्य
न्याय करने के लिए गवाह एवं दस्तावेज बेहद जरूरी होते हैं। गवाह ही न हों, तो न्याय कैसे हो, परंपरागत अधिकार के कागजात या उत्तराधिकार के कागजात ही न हों, तो भी न्याय कैसे हो? लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि गवाह या दस्तावेज (प्रमाण-पत्र आदि) उपलब्ध ही नहीं होते। आधुनिक अदालतों की तरह प्राचीन अदालतों में भी ऐसी स्थिति आ जाती थी। शिव काल में ऐसी स्थिति को हल करने के लिए ‘दिव्य’ का सहारा लिया जाता था। 'दिव्य' यानी ईश्वर। सत्य, असत्य, अर्धसत्य का सर्व-साक्षी ईश्वर ही तो है! ईश्वर निरपराध को हमेशा सुरक्षित रखता है। ईश्वर के रहते निरपराध कभी कष्ट नहीं पा सकता।
ठीक विपरीत अपराधी को ईश्वर का संरक्षण कभी नहीं मिलता। ईश्वरीय न्याय से, यानी 'दिव्य' से अपराधी अवश्य पहचाना जाता है और उसे दंड मिलता है। 'दिव्य' करना यानी देवताओं से न्याय माँगना, न्याय का निर्णय माँगना। देवताओं द्वारा स्वर्ग में
इसी का प्रयोग किया जाता है। इसीलिए इसे 'दिव्य' कहा गया है। जन-मान्यता यही थी।
मनुष्य जब गवाह के कटघरे में खड़ा होता है, तब तरह तरह के लोभ-लालच-डर-क्रोध-आवेश इत्यादि भाव उसे प्रभावित करते हैं। इसीलिए मनुष्य की गवाही की अपनी सीमाएँ हैं। देवताओं के समक्ष ऐसी कोई सीमाएँ नहींं। देवता न असत्य का सहारा लेते हैं, न लोभ-लालच-डर-क्रोध-आवेश इत्यादि से प्रभावित होते हैं। यही 'दिव्य' का महत्त्व है। 'दिव्य' का प्रयोग तभी किया जाता था, जब परिस्थिति जन्य कोई प्रमाण उपलब्ध न होता।
'दिव्य' किस प्रकार करवाया जाता था, इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं है। 'दिव्य' करवाने वाला व्यक्ति यदि स्वयं ही अपराधी साबित हो जाता था, तो उसे सजा दी जाती थी। यदि वह निरपराध साबित हो जाता, तो विरोध-पक्ष के व्यक्ति को सजा दी जाती।
इस न्याय प्रक्रिया में न्यायाधीश मनुष्य के मनोविज्ञान का सहारा लेते थे। 'दिव्य' प्रक्रिया का स्वागत करने वाला व्यक्ति, जिसका सारा व्यवहार 'दिव्य' के अनुकूल हो, प्राय: निर्दोष ही साबित होता था। ठीक विपरीत; दोषी व्यक्ति के मन का चोर 'दिव्य' के दौरान झलकने ही लगता था। ऐसे अवलोकन के आधार पर न्याय करना कदापि अनुचित नहीं माना जाता था, बल्कि इस न्याय को ईश्वरीय आदेश के रूप में ग्रहण किया जाता था। इसीलिए इस पद्धति को 'दिव्य' की संज्ञा दी गई होगी।
उपर्युक्त वर्णन से एक बात स्पष्ट होती है; वह यह कि शिवाजी महाराज राज्य करते समय 'हम जगत्-नियंता के प्रतिनिधि हैं, इस आस्था से कभी विमुख नहीं हुए।
उन्होंने हमेशा याद रखा कि ईश्वर ही राज्य की रक्षा करता है। इसी प्रकार न्याय-प्रक्रिया में भी प्रत्यक्ष ईश्वर का वास होता है, ऐसा उन्हें मन से लगता था।


संदर्भ—
1. शिव छत्रपति चे आरमार / ग.भा. मेहेन्दले एवं सं.भा. शिंवे
2. Shivaji and His Times / Jadunath Sarkar
3. Shivaji The Great Maratha / H.S. Sardesai