शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 22 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 22

[ शिवाजी महाराज एवं उनके भ्राता (बंधु) ]

शाहजी की दो पत्नियाँ थीं। पहली जीजाबाई, जो शिवाजी की माँ थीं। दूसरी तुकाबाई, जो व्यंकोजी की माँ थीं।
दो राज-बंधुओं में एकता होना मुश्किल है। शिवाजी एवं उनके छोटे भाई व्यंकोजी राव इसके अपवाद नहीं थे।

सन् 1664 में अपने पिता शाहजी राजे का अवसान होने के बाद शिवाजी ने उनका प्रदेश स्वयं के अधिकार में ले लिया। शिवाजी को मालूम था कि भविष्य में औरंगजेब दक्षिण से आक्रमण करेगा। इसलिए उन्होंने दक्षिण की तरफ एक राज्य स्थापित किया, जिसकी राजधानी चेन्नई के पास जिंजी में थी। इस मुहिम के दौरान व्यंकोजी ने शिवाजी की फौज पर आक्रमण कर दिया।
आश्चर्यचकित शिवाजी कुछ सोच पाते, इससे पहले ही अगला समाचार भी आ गया— व्यंकोजी राव बुरी तरह हार कर तबाह हो गए थे!
यह समाचार शिवाजी महाराज को मिला तारंगल प्रांत में, जिसे पार करते हुए वे महाराष्ट्र जा रहे थे। चिंतित होकर उन्होंने व्यंकोजी राव को एक तीखा पत्र लिखा। यह पत्र मराठों के इतिहास में अत्यंत प्रसिद्ध है। यह वह पत्र है, जिससे स्पष्ट होता है कि शिवाजी महाराज एवं व्यंकोजी राव के आपसी संबंध कैसे थे और दोनों भाइयों के बीच जागीर का बँटवारा किस प्रकार हुआ था। शिवाजी लिखते हैं—
“...आपने तो बिल्कुल दुर्योधन के जैसी बुद्धि का परिचय दिया! बजाय इसके कि हमसे बात करते या अगर कोई बड़ा मतभेद था, तो हमारे सामने संधि का प्रस्ताव रखते, आपने तो मुसलमानों के उकसावे पर हमारे सेनापतियों पर सीधा आक्रमण ही कर दिया! आपके और हमारे सैनिकों के बीच बाकायदा हथियार चले। इस लड़ाई में आपको हारना पड़ गया। इसमें हैरत की बात यह है कि महाराज शहाजी राजे के पुत्र होते हुए भी, इतने विवेकशील होते हुए भी आपने धर्म-अधर्म का विचार नहीं किया ऐसा व्यवहार करने से हमेशा दुःख ही प्राप्त होता है।
आप सोचते होंगे कि धर्म-अधर्म का भला क्या विचार आपको करना है। हमारे विचार से आपको यह विचार करना चाहिए था कि 13 वर्षों तक आपने हम दोनों की पुश्तों की जायदाद पर अकेले अधिकार रखा। राज्य का आधा हिस्सा माँगने का मेरा अधिकार है, जो मुझे दे देना चाहिए था और सुखी रहना चाहिए था। ऐसे विचार के साथ हमसे संधि कर लेना जरूरी था। यह संधि पवित्र भावना से कर लेनी चाहिए थी। ऐसा होने पर हमने आपको सूचित किया भी था कि हम अपनी ओर से तुंगभद्रा के दक्षिण के प्रांत आपको देंगे, साथ में तीन लाख होन (तत्कालीन मुद्रा) की दौलत भी देंगे। यदि आपको हमारी दौलत नहीं चाहिए थी, तो हम कुतुबशाह से विनती करके तीन लाख होन की दौलत आपको दिला देते। ये दोनों विचार हमने आपको लिखे हैं। इन दोनों में से किसी एक को मान्य रखकर एवं विभाजन को स्वीकार करते हुए आपको सुखी रहने का मार्ग अपनाना चाहिए।
हमारे बीच कोई ऐसा झगड़ा नहीं है कि सुलझ ही न सके। विभाजन मान्य रखकर आप समझौते को आसानी से निपटा सकते हैं। सुख का मार्ग यही है। आपस में गृह-कलह करना ठीक नहीं। इसे नहीं समझेंगे, तो कष्ट ही झेलेंगे।”

शिवाजी महाराज के सेनापति रघुनाथ पंत, संताजी भोसले और हंबीरराव मोहिते, व्यंकोजी राव को पराजित करने के बाद कोलेरून नदी को पार करने की तैयारी में थे, ताकि तंजावर पर आक्रमण कर सकें। शिवाजी ने इन सेनापतियों को तत्काल पत्र लिखकर सावधान किया, जिससे व्यंकोजी राव को अनावश्यक हानि न हो। शिवाजी महाराज ने सेनापतियों को समझाया कि व्यंकोजी राव हमारे छोटे बंधु हैं। दुर्बुद्धि के वशीभूत अवश्य हो गए, किंतु वे अपने ही भाई हैं। आप सब उनकी रक्षा करें और उनके राज्य को कोई हानि न होने दें।
व्यंकोजी राव की पत्नी दीपाबाई अत्यंत होशियार एवं दूरदर्शी महिला थी। उसने अपने पति को गृह-कलह से बचाने के लिए उसे समझा-बुझाकर समझौते के लिए राजी किया। जल्द ही दोनों राज-बंधुओं में समझौता हो गया। उसके अनुसार शिवाजी महाराज ने कोलेरून नदी के दक्षिण का राज्य व्यंकोजी को सौंप दिया।

शिवाजी द्वारा किए गए उपरोक्त पत्राचार से ऐसा प्रतीत होता है कि वे लोगों के विचारों की टोह लेकर उन्हें स्वयं के विचारों से सहमत करते थे। अपने विचारों को कभी किसी पर थोपते नहीं थे। इसीलिए उन्हें सलाह-मशविरा से अनुकूल परिणाम प्राप्त होते थे। कह सकते हैं कि शिवाजी महाराज दीर्घ अनुभव वाले मनोचिकित्सक जैसे सोचते थे।

कर्नाटक एवं द्रविड़ प्रदेश के प्रांतों पर बीजापुर सरकार ने शिवाजी महाराज का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया है, यह समाचार जब व्यंकोजी राव तक पहुँचा, तब वे अत्यंत दुःखी हो गए। उन्हें अपनी स्वतंत्रता पूर्ण रूप से नष्ट हो गई, ऐसा लगने लगा। रघुनाथ पंत उन पर पहले से ही दबाव बनाए हुए थे। उस पर बीजापुर सरकार ने उपरोक्त प्रांतों पर व्यंकोजी राव का अधिकार नहीं है, ऐसा कह दिया। इसे सहना उनके लिए भारी कठिन था। वह तो उन प्रांतों पर अपनी ही सरकार बिठाना चाहते थे। यह आशा जैसे एक झटके में नष्ट हो गई।

अष्टप्रधान रघुनाथ पंत के सुझाव पर शिवाजी को व्यंकोजी काव्यंकोडी की हताशा के बारे में बताया, तब शिवाजी ने व्यंकोजी राव को सांत्वना व सलाह का एक आत्मीय पत्र इस प्रकार लिखाा—
“बहुत दिनों से आपकी तरफ से कोई समाचार नहीं आया। हमें चिंता हो रही है। रघुनाथ पंत लिखते हैं कि आप उदास और निराश बने रहते हैं; शरीर का ध्यान नहीं रखते। आप विरक्ति से घिरे रहते हैं और कोई त्योहार भी नहीं मनाते। आपके पास सशक्त और विशाल सेना है, किंतु उस पर आपका ध्यान नहीं है। दरबार के काम को भी आप महत्त्व नहीं देते। आप संन्यासी होकर किसी पवित्र स्थल में समय व्यतीत करने की भी सोचते रहते हैं। ये सारी बातें रघुनाथ पंत से पता चलीं। हमें इसका दुःख है।
“पूज्य पिताश्री शहाजी राजे के ठोस आदर्श हमारे सामने हैं, फिर भी आपके मन में नकारात्मक भाव कैसे आ गए, हमें इसका आश्चर्य होता है। पिताश्री ने संकट के समय में हमेशा धैर्य, मनोबल व दृढता से सूक्ष्म सोच-विचार किया। ऐसा कोई संकट नहीं था कि जिसने उनकी राह में बाधा डाली। अपनी मानसिक ऊर्जा को स्थिर रखकर उन्होंने न केवल आत्म-रक्षा की, बल्कि मान-सम्मान भी अर्जित किया। ऐसा उज्ज्वल चरित्र हमारे सामने होते हुए भी आप निराशा का अनुभव कैसे कर सकते हैं। हम दोनों को पिताश्री के गुणों से लाभान्वित होना चाहिए।
“हमने स्वयं भी प्रतिकूल परिस्थितियों में आत्म-रक्षा कैसे की और स्वराज्य की स्थापना कैसे की, आप सब जानते हैं। आप संसार को त्यागकर संन्यासी बनना चाहते हैं, किंतु क्या यह उचित है, क्या आप अपनी संपन्नता का नाश होते देखना चाहते हैं, यह तो स्वयं को स्वयं हानि पहुँचाने जैसी बात है, क्या यह ठीक है? यह कैसी होशियारी या समझदारी, ऐसी नकारात्मक सोच का परिणाम क्या होगा? हम आपके बड़े भाई हैं। आपकी सुरक्षा के लिए हम सदैव तत्पर हैं। हमसे डरने की आवश्यकता नहीं विरक्त न हों। उदासीन न हों। सुखपूर्वक जीवन को जिएँ। व्रत-त्योहार के समय, आनंद उत्सव के समय ऐसा व्यवहार रखें, जैसे कहीं कोई चिंता नहीं है, अंदेशा नहीं है।
“अपने अधीन लोगों को काम में व्यस्त रखें। उन्हें काम केवल सौंपकर न रह जाएँ। उन पर निगरानी भी रखें। योग्य तरीके से राज्य पर ध्यान दें एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करें। आप हमारे छोटे बंधु हैं। आपकी कीर्ति व उत्कर्ष से हमें खुशी होगी। आपके साथ रघुनाथ पंत हैं। वे अपने ही हैं। किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए, इसकी सलाह उनसे हमेशा ले लिया करें। वे आपको हमारे समान ही समझेंगे। हमारा उन पर विश्वास है। इसी तरह
आप भी उन पर विश्वास रखें। उन्हें न छोड़ें। स्वयं भी अकेले न रहें। इससे आपकी प्रसिद्धि बढ़ेगी। आलस का विशेष रूप से त्याग करें। जो भी अवसर सामने आए, उसका लाभ उठाएँ। अपनी सेना से श्रेष्ठ एवं विशिष्ट कार्य करवाते रहें। पराक्रम करने की उम्र में आप संन्यास की बात करते हैं। संन्यास बुढ़ापे में लीजिएगा। अभी तो उठिए, आलस छोड़िए और हमें पराक्रम करके दिखाइए और क्या, लिखे? आप स्वयं समझदार हैं

यह पत्र शिवाजी महाराज द्वारा जीवन के अंतिम पड़ाव पर लिखे गए अत्यंत महत्त्वपूर्ण पत्रों में से एक है। इसमें उन्होंने अपने छोटे भाई के प्रति शुद्ध प्रेम व लगाव की अभिव्यक्ति की है।
बादशाह औरंगजेब ने भी इसी तर्ज का एक पत्र अपने बेटे को लिखा है। शिवाजी महाराज के पत्र के साथ उसकी तुलना हम आगे करेंगे। इससे उजागर होगा कि दो समकालीन राज्यकर्ताओं के पत्रों से उनकी मानसिकता व सोच में जो अंतर झलकता है, वह कितना गहरा है।


संदर्भ—
1. शिव छत्रपति एक मागोवा / डॉ. जयसिंहराव पवार
2. Shivaji: The Great Maratha / H.S. Sardesai
3. Shivaji: His Life and Times / G.B. Mehendale