शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 17 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 17

[ शिवाजी महाराज और फ्रेंच राज्य क्रांति ]

फ्रेंच राज- क्रांति के फलस्वरूप कुछ अत्यंत श्रेष्ठ शब्द मानव इतिहास में सदा के लिए जगमगा उठे, जैसे; लिबर्टी, इक्वैलिटी और फ्रैटरनिटी, यानी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व! फ्रांस के राष्ट्रीय सूत्रों की एवं त्रिसूत्री कार्यक्रम की रचना ही इन आदर्श शब्दों की धुरी पर हुई।

पहली परिभाषा : मानव अधिकार
सन् 1789 में जब मानव अधिकारों एवं नागरिक अधिकारों को परिभाषित किया गया, तब स्वतंत्रता की व्याख्या इस प्रकार की गई, ‘स्वतंत्रता, यानी दूसरों को कष्ट न पहुँचाते हुए हम जो चाहें, सो कर सकें।’ (अधिनियम 4 )
हर स्त्री पुरुष को अपने प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र रखा गया। ये अधिकार हर स्त्री-पुरुष को केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि समग्र मानव समाज के एकजुट स्तर पर भी दिए गए। इन अधिकारों को किसी भी रूप में बाधित नहीं रखा गया।

दूसरी परिभाषा : मानव समानता
सन् 1789 की सार्वजनिक उद्घोषणा में मानव और मानव के बीच समानता को कानून की समानता के रूप में रेखांकित किया गया है। (अधिनियम 6 )
कानून सबके लिए एक समान है। सुरक्षा के लिए, चाहे दंडित करने के लिए; कानून की नजर में सब नागरिक एक हैं। ये नागरिक सभी कार्यालयों में, सभी सार्वजनिक पदों पर, रोजगार के सभी क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए एवं अपनी योग्यता व गुणों के आधार पर, समान नियुक्तियाँ पा सकते हैं। ये नागरिक बिना किसी मतभेद के इस योग्य हैं कि हर अधिकार का उपभोग ये स्वयं के पक्ष में समान रूप से कर सकते हैं।

तीसरी परिभाषा : मानव बंधुत्व
तीसरी परिभाषा इतनी व्यापक, गहन एवं अनुपम है कि इसे प्रथम दो परिभाषाओं के बाद की कड़ी के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसमें मानव बंधुत्व की परतें उकेरी गई हैं। यह अधिकार और कानून जैसे संघर्षशील तत्त्वों पर बात नहीं करती। यह भाईचारे के तत्त्वों को प्रकट करती है। यह किसी अन्य को बाँधने पर नहीं, बल्कि स्वयं बँधने पर जोर देती है। यह बहस या दाँव-पेंच पर नहीं, बल्कि शांति, सहयोग और समझौते पर विचार करती है। यह किसी एक व्यक्ति की बजाय समूचे समाज के साथ अधिक जुड़ती है। यह सभी को भाईचारा सिखाती है।
यदि आज के अमेरिका का उदाहरण लिया जाए, तो अमेरिकन समाज प्रत्यक्ष रूप से भाईचारे को, मानव बंधुत्व को विशेष महत्त्व देता हुआ नजर नहीं आता, किंतु सत्य यही है कि अमेरिकन समाज के विकास में मानव बंधुत्व की भावना का अत्यधिक योगदान रहा है।
अमेरिका के विकास में मानव बंधुत्व ने अलग-अलग नामों से अहम भूमिका निभाई है। जब वह एक राष्ट्र के रूप में साकार हो रहा था, तब प्रजा के बीच राष्ट्रीयता, जाति एवं धर्म की ऐसी विभिन्नता सबके सामने थी, जिसने राजनेताओं को स्तब्ध कर दिया था। परस्पर उस हद तक भिन्न लोगों को उतनी व्यापकता के साथ एकरस करना असंभव ही लग रहा था। दूसरी ओर; यह वह कार्य था, जिसे निष्पादित किए बिना अमेरिका एक राष्ट्र के रूप में उभर ही नहीं सकता था। आज स्पष्ट कहा जा सकता है
कि अमेरिका ने अनेक जातियों को एक झंडे के नीचे ला कर उन्हें मिल-जुलकर साथ रहने के लिए तैयार करने में बेहतरीन सफलता पाई है। अन्य किसी भी देश में चुनौती की ऐसी व्यापकता एवं सफलता का ऐसा आयाम नहीं देखा गया है।
इस परिच्छेद के प्रारंभ में जिन तीन परिभाषाओं का विवेचन किया गया है, उसे जरा दोहराकर देखें। उसमें मानव अधिकार, मानव समानता एवं भाईचारे के माध्यम से समग्र समाज के स्वभाव का सिंहावलोकन हुआ है। असंगठित प्रजा में भाईचारे की भावना नहीं होती। ऐसी प्रजा एक-दूसरों को भय एवं संदेह से ही देखा करती है। हर व्यक्ति जाने-अनजाने किसी अन्य के साथ स्वयं की तुलना कर रहा होता है। जब उसने ऐसा किया है,
फिर मैं क्यों न करूँ, अमुक वस्तु उसके पास है, फिर मेरे पास क्यों नहीं है? ऐसी भावना से मानव अधिकार, समानता व भाईचारे के तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
शिवाजी ने मानव स्वभाव की इस फितरत को ध्यान में रखकर ही अपनी प्रजा के साथ सुंदर बरताव किया। सभी मुद्दों का वे सच्चाई व साहस के साथ निरीक्षण करते थे। सब उनकी ओर विश्वास एवं प्रेम से ही देखा करते। उनके प्रति लोगों का प्रेम बढ़ता ही था, घटता नहीं था। सजा एवं पुरस्कार दोनों के संदर्भ में वे समान भावना रखते थे। गलती से भी उन्होंने भेदभाव नहीं किया। सभी के कार्यों की वे प्रशंसा किया करते। गुनाह करने वाले को सजा अवश्य मिलती थी, किंतु सजा पानेवाला भी नहीं कह पाता था कि उन्होंने कुछ गलत किया। सैनिकों के व्यवहार का वे सूक्ष्म अध्ययन किया करते। यदि किसी सैनिक ने कोई खास काम किया है, तो उसे प्रोत्साहन देने से कभी नहीं चूकते थे। ऐसे सैनिक को फौरन तरक्की दी जाती और वेतन में बढ़ोतरी भी। क्या आश्चर्य, यदि सभी ने शिवाजी पर स्नेह और विश्वास की वर्षा ही की हो।
शिवाजी के प्रांतों में स्वतंत्रता का ठोस माहौल हुआ करता। इस कारण प्रजा को आजीविका के साधन उन प्रांतों में भी उपलब्ध रहते थे, जिन्हें पिछड़े प्रांतों में गिना जाता था। विशेष साहसी एवं मेहनती व्यक्तियों को कुछ कर दिखाने के अधिकतम अवसर दिए जाते। दूसरे प्रांतों या दूसरे देशों के लोग जब आम जनता के बीच विचरण करते नजर आते, तो सभी को असुरक्षा महसूस होती, लेकिन शिवाजी ने इस असुरक्षा को लुप्त कर दिया। संकट के समय अपने ही बूते पर आत्म-रक्षा करने के लिए समाज में जो धमक, युक्ति व साहस होना चाहिए, उसे शिवाजी ने छोटे गाँवों तक में उपलब्ध करा दिया था। युद्ध अथवा आत्म-रक्षा करने के लिए जो अस्त्र-शस्त्र चाहिए, उन तक सभी की पहुँच बनी रहती थी। यह एक बड़ी सामाजिक क्रांति थी। प्रशिक्षण व साहस मराठा प्रजा को घर पर ही मिल जाते। प्रशिक्षण पाने के लिए गाँव या कसबे को छोड़कर बड़े शहर तक जाने की मजबूरी कहीं थी ही नहीं। छोटे-से-छोटे स्थान में बड़े से बड़ा सैन्य प्रशिक्षण उपलब्ध था। यही था मराठों के स्वराज्य का उद्गम।
स्वयं शिवाजी गाँव-गाँव घूमकर इस कार्य को करते थे। इसके लिए वे जितना भी समय आवश्यक होता, दिया करते। उनका यह कार्य किसी अमीर अय्याश आदमी द्वारा थोड़े समय के लिए हाथ में लिया गया मौज का कार्य या सनक नहीं थी। महाराज यह कार्य ईश्वर को साक्षी मानकर, निडर होकर, प्राणों की परवाह न करके, समाज की भलाई के लिए करते थे।
क्रमशः शिवाजी का महत्त्व सभी को ज्ञात हुआ। अनेक वर्षों तक युद्ध एवं उथल-पुथल देखकर प्रजा के मन में जो डर समाने लगा था, वह समाप्त हुआ और आत्म-विश्वास बढ़ा। सब शिवाजी का साथ देने लगे। लोग जो सीख नहीं सकते थे, समझ नहीं सकते थे, सिखाने के लिए कोई व्यक्ति नहीं मिलता था, वह अब सरलता से उपलब्ध था। यहाँ सामाजिक स्पर्धा भी नहीं थी। लोगों के दिलों में सुरक्षा व आत्म-विश्वास की एक नई जोत जल उठी।
शिवाजी के राज्य में बिना काम का कोई व्यक्ति नहीं था। सभी को उसकी सूझ एवं उमंग के अनुसार काम आबंटित हो जाता। सबको यह एहसास कराया जाता कि उसका काम स्वराज्य के लिए कितना आवश्यक है। सबको मालूम था कि उन्हें आलस करने का अधिकार नहीं है। सभी क्षेत्रों के लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार बुलाया जाता।
ब्राह्मण से लेकर सामान्य जनता तक; सभी के मन में शत्रु को टक्कर देने का साहस निर्मित हो गया था।
शिवाजी के राज्य में जैसा अपराध, वैसा दंड दिया जाता था। काम के बदले वेतन भी योग्य दिया जाता था। कामचोर को पहले चेतावनी दी जाती। न सुनने पर काम से निकाल दिया जाता।
अमंत्रं अक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ॥
इस कथन के अनुसार, कुछ अवगुणों एवं उपद्रवी लोगों का उपयोग राजा कुशलतापूर्वक कर सकता है। ऐसे लोगों के दुर्गुणों को दुर्लक्षित करके राज्य के खतरनाक कार्यों को उनसे करवाया जा सकता है। काम नहीं किया, तो उन्हें रास्ते से हटाया भी जा सकता है। दक्ष राजनेता वह है, जो सभी लोगों का उपयोग योजनापूर्वक करना जानता हो।
उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि कोई भी अक्षर ऐसा नहीं, जिसमें कोई मंत्र न हो। कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं, जिसमें औषधीय गुण न हो। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य ऐसा अयोग्य नहीं कि जिसका उपयोग ही न हो सके। मनुष्य के गुणों-अवगुणों के अनुसार योजना बनाकर आगे बढ़नेवाला व्यक्ति आसानी से नहीं मिलता। शिवाजी ने योजनापूर्वक गुणों एवं साहस से ओत-प्रोत व्यक्तियों का निर्माण किया एवं देश की सुरक्षा के लिए उनका उपयोग किया।
सभी कार्यकर्ताओं पर शिवाजी की कठोर नजर हुआ करती। कमजोर खंभे इमारत के लिए सुरक्षित नहीं होते। इसीलिए शिवाजी कमजोर एवं अयोग्य व्यक्तियों को काम से निकाल देते थे। पहला पेशवा शामराज नीलकंठ किसी हद तक ठीक था, लेकिन जंजीरा के किले पर आक्रमण के समय वह कमजोर साबित हुआ और उसके स्थान पर नरहरि आनंदराव पेशवा की नियुक्ति की गई। इसे भी एक वर्ष के उपरांत हटाकर उसकी जगह मोरोपंत को रखा गया और वह आखिर तक टिका।
शिवाजी किसी को काम देने के बाद उसकी कुशलता को परखते थे। उनकी प्रणाली कुछ ऐसी थी कि कोई भी दोषी छूट नहीं सकता था। योग्य एवं उत्तम व्यक्ति ही उनके राज्य में काम करे, ऐसा उन्हें हमेशा लगा करता।
शाहजी के समय के प्रथम पंक्ति के लोगों में से सोनाजीपंत डबीर अंत तक शिवाजी का विश्वसनीय सलाहकार बना रहा। दीर्घ अनुभवों ने उसे तपाकर तैयार किया था। ऐसे ही मोरोपंत पेशवे, अन्नाजी दत्तो सचिव, निलो सोनदेव मजूमदार, दत्ताजी त्र्यंबक वाकनीस, त्र्यंबक सोनदेव डबीर, निराजी राहुजी व रघुनाथ पंडितराव, ये सब शिवाजी के प्रधान हुए। बाहरी रूप से सेवक होते हुए भी वे शिवाजी के मित्र थे। उन पर शिवाजी का संपूर्ण प्रेम व विश्वास था। आठवाँ प्रधान, जिसका काम शिवाजी उत्तम रीति से जानते थे, उसकी प्रतिष्ठा एवं तेजस्विता अन्य प्रधानों से अलग ही थी।
शिवाजी के सभी प्रधान अपने-अपने कार्यों में पारंगत थे। वे तो सिर्फ शिवाजी के ही नहीं, बल्कि स्वराज्य के विश्वसनीय सलाहकार (प्रीवी काउंसलर) थे। हिंदू राजनीति में उन्हें मित्र की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
‘शिवाजी और मानव-समानता’ का विशद् वर्णन ‘शिवाजी और न्याय-दान’ नामक आगामी प्रकरण में शामिल किया गया है।
‘शिवाजी और मानव बंधुत्व’ का विशद् वर्णन ‘मित्र मावले एवं राष्ट्र निर्माता’ नामक आगामी प्रकरण में शामिल किया गया है।


संदर्भ—
1. श्री शिव छत्रपति संकल्पित शिवचरित्रा ची प्रस्तावना आराखडा व साधने/ त्र्यंबक शंकर शेजवलकर
2. राजधर्म सुत्रे / संपादन मोहिनी दातार
3. Shivaji: the Great Maratha/H.S. Sardesai