भाग 50: जीवन सूत्र 58:कर्मों की रेल में न लगने दें जड़ता की ब्रेक
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।(3-5)।
इसका अर्थ है-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।
वास्तव में कर्म का तात्पर्य केवल क्रिया या गति से नहीं है अर्थात मनुष्य जब कोई कार्य कर रहा है तब वह कर्म है और अगर वह एक स्थान पर बैठा है और कुछ नहीं कर रहा है तो वह कर्म नहीं कर रहा है।यह बिल्कुल गलत अवधारणा है।उदाहरण के लिए मनुष्य अगर विश्राम कर रहा है तो यह भी उसका एक कर्म है क्योंकि शरीर के लिए विश्राम भी आवश्यक है लेकिन पर्याप्त नींद लेने के बाद भी केवल आलस्य के कारण देर तक सोते रहना,इसे कर्म की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। कुल मिलाकर कर्म के लिए एक उद्देश्य होता है। एक लक्ष्य होता है,फल जो दिखाई देता है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है।
वास्तव में सांस लेना भी तो एक कर्म है।चलना-फिरना, उठना-बैठना, सोना ये सब कर्म हैं।शास्त्रीय आधार पर अगर हम कर्म, अकर्म और विकर्म को समझने की कोशिश करें तो किसी को कष्ट देना, दुख देना,सही कार्य को बाधित करना,भ्रष्टाचार हिंसा यह सब कर्मों की श्रेणी में नहीं आएंगे।इन निंदनीय कर्मों को गीता में विकर्म कहा गया है।वहीं आसक्ति त्याग कर निःस्वार्थ भाव से किए जाने वाले कार्यों को 'अकर्म' कहा गया है। आवश्यकता इस बात की है कि न्यूनतम आवश्यक विश्राम,नींद,भोजन आदि ग्रहण करते हुए हम अपने शेष समय को पूरी तरह से कर्मों को समर्पित कर दें और अगर यह अकर्म बन जाएं तो मानवता के लिए श्रेयस्कर होंगे। मोटे तौर पर अगर हम कर्म को अपने सही दायित्वों के निर्वहन के रूप में लें तो कभी-कभी अनावश्यक चिंतन प्रक्रिया में उलझ कर अपने कर्मों की रेल को न तो जड़ता का ब्रेक लगने दें और न इसे पटरी से नीचे उतरने दें।
यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपनी वर्तमान स्थिति से कभी संतुष्ट नहीं होता है। वह वर्तमान में जो उसके पास है,उससे अधिक, थोड़ा अधिक और कभी-कभी तो सब कुछ पा लेने की चेष्टा में लगा रहता है। मनुष्य के जीवन में कर्म उसके साथ साथ चलते हैं।
कर्म करते हुए मनुष्य, प्रतिफल की भी आशा करते हैं। विडंबना यह है कि वास्तविक जीवन में फल, केवल प्रेरक की भूमिका नहीं निभाता। वह मनुष्य के जीवन को ही नियंत्रित करने लगता है और हम लक्ष्य केंद्रित जीवन के बदले फल केंद्रित जीवन जीने लगते हैं।इसी के कारण हम अपने पास जो है,उससे असंतुष्ट होकर कुछ और पाने की होड़ में लग जाते हैं।कुछ पाने की चेष्टा तो कर्तव्यपरायणता की निशानी है, लेकिन इसके साथ वर्तमान के प्रति असंतुष्टि का भाव खतरनाक है। आज जो है, वह सर्वश्रेष्ठ है। वह आपकी मेहनत से कमाई गई सर्वोत्तम संभव स्थिति या उपलब्धि है। उसका सम्मान करें।किसी भावी सफलता,प्रतिष्ठा या उपलब्धि के लिए भारी मानसिक दबाव का सामना करते हुए अपने वर्तमान के आनंद से वंचित न होवें।
डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय