भाग 48 जीवन सूत्र 56: अक्षय आनंद का स्रोत
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2/71।।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2/72।।
इसका अर्थ है,जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके इच्छारहित,ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है,वह शांति को प्राप्त होता है।हे पार्थ! यह ब्राह्मी स्थिति है।इसको प्राप्त कर कभी कोई मोहित नहीं होता।इस स्थिति में अन्तकाल में भी ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है।
इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चिर शांति की अवधारणा बताई है।उनके द्वारा अध्याय 2 के श्लोकों में मृत्यु और आत्मा की अमरता, समबुद्धि और स्थितप्रज्ञ मनुष्य के लक्षणों पर चर्चा की गई है और साधकों का मार्गदर्शन किया गया है। वास्तव में सुख और दुख, लाभ और हानि, जय और पराजय,यश और अपयश जैसे द्वंद्व जीवन में चलते ही रहते हैं। सुख और शांति के सूत्र इनके बीच ही ढूंढने पड़ेंगे।अगर मन आनंद की अवस्था को प्राप्त करना सीख जाए तो फिर विषम परिस्थितियों में भी जीवन कष्टपूर्ण नहीं होता।
यूं व्यावहारिक जीवन में हमारी शांति बार-बार भंग होती रहती है।हमें एकांत में भी शांति प्राप्त नहीं होती है।भीड़ और कर्तव्यस्थल के दौरान अड़चन आने पर तो हमारी शांति बार-बार भंग होते ही रहती है।आखिर स्थाई शांति का फार्मूला क्या है?मनुष्य वैसी अवस्था को कब पहुंचेगा जब चाहे वह एकांत में रहे तब उसका मन अशांत ना हो,या भीड़ में रहे तब भी वह बात- बात पर खीझ ना उठे और संतुलित होकर अपना कार्य करता रहे। श्री कृष्ण कहते हैं कि इसके लिए संपूर्ण फल के लक्ष्य से की जाने वाली कामनाओं को छोड़ना होगा। मोहवश हम घर, परिवार आदि से अत्यधिक बंधन का अनुभव कर अपने कर्तव्य मार्ग से हट जाते हैं।इसे भी छोड़ना होगा।सफलता,पद,सौंदर्य,ज्ञान,उपलब्धि,संपत्ति आदि को लेकर हमें जो घमंड रहता है,उसे छोड़ना होगा।अपनी असीमित इच्छाओं पर लगाम लगाना होगा।ये हैं स्थायी शांति के उपाय।यह ब्रह्म को प्राप्त होने वाली स्थिति है जो यहां तक कि अंतकाल में प्राणशक्ति के क्षीण होने की स्थिति में भी उस महाआनंद को क्षीण नहीं होने देती है।
"शांति है आधारित
कामनाओं के त्याग में
क्योंकि कामनाओं के त्याग से
प्राप्त होता है संतोष
और संतोष है आधार शांति का,
संतोष अर्थात जो अपने भाग का है
उसे करना प्राप्त
और जो अपना नहीं है
उसे भूल जाना है।"
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय