भाग 46 जीवन सूत्र 54 समुद्र की तरह सब कुछ समा लेने का गुण
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है: -
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2/70।।
इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में अनेक नदियों के जल उसे विचलित किए बिना ही समा जाते हैं,वैसे ही जिस पुरुष में कामनाओं के विषय भोग उसमें विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह पुरुष परम शान्ति प्राप्त करता है, न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।
समुद्र का स्वभाव अनुकरणीय है।नाना प्रकार की नदियों का जल उसमें समा जाता है। पहाड़ों से निकलती चंचल,बलखाती,उफनती नदियां जब समुद्र के पास पहुंचती हैं तो अपना तूफानी वेग और विनाशक शक्ति खो देती हैं।यह है समुद्र की गंभीरता,उसके शांत स्वभाव और सब कुछ समाहित कर लेने की क्षमता।स्थितप्रज्ञ मनुष्य का स्वभाव भी इसी तरह सब कुछ आत्मसात कर लेने का होता है।उसमें सारे भोग बिना क्षोभ और विचलन उत्पन्न किए ही समा जाते हैं।वहीं अनेक बार हमारे जीवन में भी व्यावहारिक रूप से यह होता है कि हम खुशी का प्रसंग प्रस्तुत होने पर नाचने लगते हैं और दुख की स्थिति आने पर संतुलित नहीं रह पाते और दुख में डूब जाते हैं। कुछ ग्रहण करने के समय भी यही बात होती है।हम उन चीजों से इतना गहरा भावनात्मक तादात्म्य बिठा लेते हैं कि यह हमारे जीवन में अनावश्यक विचलन की स्थिति निर्मित कर देते हैं। जिन भोगों को ग्रहण करना हमारे जीवन के लिए अपरिहार्य है,उसे तो ग्रहण करना होगा;लेकिन इसके लिए इस तरह दीवानगी नहीं होनी चाहिए कि अगर वह नहीं मिला तो हम विचलित हो गए।हमारा काम ही रुक गया।अब हम दो कदम भी आगे नहीं चल सकेंगे।आना हो तो भोग आएं हमारे जीवन में, और हममें इस तरह समायोजित हो जाएं कि उससे हमारी शांति, हमारे संतुलन और हमारी कार्यक्षमता पर प्रभाव ना पड़े।जो चीजें ग्रहण करना हमारे लिए अनिवार्य ना हो,उसे हमें उसी तरह छोड़ देना चाहिए,जिस तरह क्रिकेट में एक बैट्समैन ऑफ साइड से बाहर जाती गेंदों को छोड़ देता है और अपना विकेट गंवाने से बच जाता है।
हमारा संतुलित व्यवहार जीवन पथ की कठिनाइयों, झंझावातों,तूफानों अड़चनों को स्वयं में समाहित कर सकता है। बस दृष्टिकोण में परिवर्तन की आवश्यकता होती है। जिसे हम कठिनाई समझ लेते हैं कभी-कभी वही एक बड़ा अवसर लेकर उपस्थित हो जाता है।
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय