सोई तकदीर की मलिकाएँ - 46 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 46

 

46

 

रात को देर से सोने के बावजूद रोज के अभ्यास के चलते सुभाष की नींद अलस भोर में ही खुल गई । उसने धीरे से सिर उठाया और आँगन में झांका । बाहर अभी आसमान सुरमई रंग का ही था । सूर्य भगवान ने अपनी बंद आँखें अभी खोली न थी । वे अपना कोहरे का कम्बल लपेटे ऊँघ रहे थे । चाँद अपना काम खत्म करके घर जा चुका था ।तारे लोप हो चुके थे । आसमान में शुक्र तारा अभी भी अपनी पूरी शुभ्रता के साथ चमक रहा था । हाँ सप्तऋषि अपनी चारपाई बिल्कुल अंतिम छोर में ले जा चुके थे यानि पाँच बजने वाले थे । सुभाष चारपाई छोङ कर उठ गया । उसने अपना खेस तहाया । बिस्तरा लपेटा । दोनों चीजों को चारपाई की पैताने टिकाया और पाँव में जूती फँसाते हुए बरांमदे से बाहर आ गया ।
आँगन के एक छोर पर बने चौके में आग जल रही थी । आग की रोशनी में चौंके की कंधोली पर उकेरी हुई मोरनियाँ लिशक रही थी । चूल्हे पर पतीली चढी हुई थी और उसके सामने सरदारनी पीढे पर बैठी दही बिलो रही थी । मथानी एक लय में चल रही थी और साथ साथ सरदारनी का पूरा शरीर भी लय में आगे पीछे हो रहा था । वहाँ से दो कदम आगे चला तो झाङू से धरती बुहारने की आवाज सुनाई दी । वह आवाज की दिशा में बढ गया । नौहरे में केसर हाथों में झाङू थामे नौहरा साफ कर रही थी । गेजा चारा काटने की मशीन से अकेला ही उलझा हुआ था । एक हाथ से मशीन का हत्था घुमाते हुए दूसरे हाथ से चारा मशीन में डाल रहा था । सुभाष ने आगे बढ कर चारा मशीन का हत्था थाम लिया । गेजे ने चौंक कर देखा फिर हत्था छोङ कर एक ओर हो गया और मक्के की भरियाँ उठा कर चारा मशीन में डालने लगा । बीस पच्चीस मिनट लगे होंगे जब काफी सारा चारा कट गया ।
गेजे ने हाथ रोक लिया – बस भाई , अब के लिए बहुत हो गया । बाकी जो रह गया है , शाम को कुतर लेंगे । - उसने झुक कर टोकरे में चारा भरा , उसमें भूसा और भिगो कर रखा हुआ दाना और खली मिलाई और पशुओं को डालने चला ।
सुभाष की कमीज लगातार मशीन घुमाने के श्रम से पसीने से भीग गयी थी । वह वहीं एक नांद पर बैठ कर पसीना सुखाने लगा । पशु उसे अजनबी मान कर घबराए हुए थे । रस्सा तुङा कर भागने को हो रहे थे । गेजा उन्हें पुचकार कर सम्हालने की कोशिश करने लगा । सुभाष ने उठकर गाय की पीठ पर हाथ फिराया और नौहरे से बाहर आ गया ताकि पशु आराम से चारा खाने लगें और गेजा दूध निकाल ले ।
बाहर केसर अब आँगन साफ कर रही थी और बसंत कौर ने मक्खन निकाल कर चाटी ढक दी थी । चाय भी बन कर तैयार हो चुकी थी । बसंत कौर ने उसे आँगन में खङे देखा तो पुकारा – उठ गया । आ जा चाय ले ले । बन गई है ।
सतश्री काल सरदारनी । आप भी इतनी जल्दी उठ गये । आप तो नहा भी आए – उसने गिलास और बाटी पकङते हुए कहा ।
हाँ भाई , मैं तो रोज इसी वक्त उठती हूँ । जब बीजी जिंदा थे , तब भी और अब हवेली की सारी जिम्मेदारी है तब भी । तू चाय पी , मैं गुरद्वारे माथा टेक कर आती हूँ ।
सरदारनी ने गिलास में चाय भरी और सुभाष को पकङा कर ऊपर चादर ओढी और बाहर चल पङी । सुभाष ने चाय उठाई और अपनी चारपाई पर बैठ कर चाय पीने लगा । तभी उसे जयकौर सामने से आती दिखाई दी । उतरा हुआ चेहरा , उलझे बिखरे बाल और लगातार जागने या रोने से लाल अंगार हुई आँखें । सुभाष का दिल धक से रह गया । वह अपने आप को अपराधी समझने लगा । रात उसने जयकौर को वापस फेर दिया था । खुद तो वह आराम से सो गया और यह सारी रात जागती रही । इतना बङा पाप उससे कैसे हो गया । आया तो उसका दुख बाँटने था पर यहाँ आकर उसके दुख का कारण हो गया । सोच में डूबे हुए घूंट भरते ही चाय उसके गले में अटक गई । वह बुरी तरह से खांसने लगा । धसका ऐसा भयंकर उठा कि उसका सांस लेना दूभर हो गया । नल पर हाथ मुँह धो रही जयकौर ने उसे इस तरह खांसते देखा तो गिलास में पानी भर लाई पर सुभाष तो पानी पकङने की हालत में था ही नहीं । जयकौर ने भरा हुआ गिलास चारपाई के नीचे टिकाया और उसके पास बैठ कर उसकी पीठ मलने लगी ।
अपनी पीठ पर जयकौर की हथेलियों की गरमी पाकर सुभाष को बहुत राहत मिली । उसकी सांस लौट आई ।
अब ठीक है ?
हाँ , अब ठीक हूँ । - सुभाष ने गिलास से चाय की घूँट भरते हुए कहा ।
ला गिलास इधर कर । तेरी सारी चाय तो खांसी के चलते छलक छलक कर नीचे गिर गई । और चाय ला देती हूँ - जयकौर ने गिलास पकङने के लिए हाथ बढाया तो सुभाष की निगाह नीचे फर्श पर पङी । सचमुच नीचे सारी चाय छलकी हुई थी । वह संकोच से भर गया ।
तब तक जयकौर चाय के दो गिलास ले आई थी । उसने दोनों गिलास सुभाष को पकङाए और फर्श पर गीले हाथ से पोचा लगा दिया ।
मैं चाय पीकर कर देता यह । तू चाय पी लेती ।
जयकौर बिना बोले अपने काम में लगी रही । जब सारा फर्श साफ हो गया तो हाथ धो कर उसने चाय पकङी और चौकें में बैठ कर पीने लगी । चाय पीकर उसने गिलास मांजे और कमरे में गयी कि पीछे पीछे सुभाष भी उसके कमरे में जा पहुँचा । उसने जयकौर के कंधे थामे – यार माफ कर दे । मैं रात ज्यादा ही बोल गया । बुरी तरह से डर गया था मैं । अगर कोई देख लेता । वो पानी पीने गया था तो वो तुम्हारी नौकरानी केसर आ गयी थी । मुझे पूछ रही थी कि तुझे नींद नहीं आ रही क्या । सच में बौखला गया था मैं ।
वह नौकरानी नहीं है । जब बारह तेरह साल की रही होगी , जब पाकिस्तान बना था तब इसके सारे घरवाले दंगाइयों ने काट दिये थे तलवारों से , एक अकेली यही बच गई थी । इसे ये सरदार उठा लाया । तब से यही है हवेली में । यह सरदारनी को बङी बहन मानती है और सरदारनी इसे छोटी बहन । जन्म से मुसलमानी है इसलिए चौंके का काम नहीं करती । बाकी सारा काम करती है । सरदार हर दूसरे दिन इसी की कोठरी में होता है ।
सरदारनी को पता है यह सब ? - सुभाष सुन कर हैरान हो गया ।
सरदारनी का दिल बहुत बङा है । सब कुछ जानते बूझते उसने इसे हवेली में शरण दे रखी है । बङे घर की बेटी है । बङप्पन उसकी रग रग में है । जब मैं इस घर में आई थी तो एक बार तो वे बहुत रोई पर सुबह उठते ही मुझे चाय रोटी खिलाई । मेरे लिए नहाने का , कपङों का इंतजाम किया । मुझे मायके भेजने की पूरी व्यवस्था की । सच में उनका धीरज और सब्र देखने और पूजा करने के लायक है । मेरी भाभियों से तो लाख गुणा अच्छी हैं । हवेली मे सब का ध्यान रखती हैं ।
और सरदार ?
वह भी अच्छा है । बस सरदारनी से डरता है । उसे नाराज करने का जोखिम नहीं ले सकता ।
जयकौर ने बात को जिस ढंग से कहा , सुभाष की हँसी छूट गई ।

बाकी फिर ....