ममता की परीक्षा - 130 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 130



एकदूसरे से अलग होकर भी उन दोनों की निगाहें अभी तक एक दूसरे पर ही टिकी हुई थीं।
अमर के मन का मैल कब का धूल चुका था। सिर्फ गोपाल के लिए ही नहीं, जमनादास के लिए भी अब उसके मन में कोई दुर्भावना शेष नहीं बची थी। उल्टे दिल ही दिल में वह उनके प्रति कृतज्ञ व नतमस्तक था।
ये और बात है कि पूर्व में उनके प्रति नफरत की धारणा को सरेआम जाहिर करने को लेकर अब वह जमनादास से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

उसका मन उसे धिक्कार रहा था 'कितना गलत था तू अमर ! माना कि जमनादास से गलती हुई थी, लेकिन यह ऐसी गलती थी जो उसने अंजाने में की थी। उसके पीछे इसकी कोई गलत भावना नहीं थी और न ही कोई व्यक्तिगत फायदा। इतना ही नहीं उन्हें पूरा अहसास था इस बात का कि उनके लिए तेरे दिल में कितनी नफरत है फिर भी वह इंसान हर तरह से तेरी सहायता करने के लिए जी जान से जुटा हुआ है। क्या रिश्ता है उसका अभी तुझसे या गोपाल से ? सिर्फ इंसानियत का ही न ? और इंसानियत का रिश्ता अच्छे इंसान ही निभाया करते हैं, नफरत के काबिल नीच इंसान नहीं !'
इसी तरह के विचारों से युक्त शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे और वह कृतज्ञ नजरों से कभी जमनादास तो कभी गोपाल की तरफ देखे जा रहा था।

बिरजू भी माहौल में हो रहे बदलाव को महसूस कर रहा था और उसकी निगाहें भी अब गोपाल पर ही जमी हुई थीं।

जमनादास की तरफ देखते हुए गोपाल बोला, "अमां यार, भगवान ने मुझे पच्चीस साल बाद बेटे के गले लगने का सौभाग्य प्रदान किया है और तू चाहता है कि मैं इस खुशी का अहसास भी न करूँ ? अरे कुछ पल तो ठहर जा मेरे यार ! फिर दौड़भाग तो पूरी जिंदगी लगी रहेगी।"

उसकी भावनाओं को महसूस करते हुए जमनादास बोला, "और मैं जिस काम के लिए जल्दबाजी कर रहा हूँ वह काम भी तेरे लाडले का ही है।"
अपनी बात कहते हुए जमनादास के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी।

"कहो, मुझे क्या करना होगा ?" गोपाल ने प्रत्युत्तर में कहा और साथ ही अपना सवाल भी दाग दिया, "लेकिन मेरे यार, ये तो बता, अब और कितनी देर लगाएगा मुझे मेरी साधना से मिलवाने में ?" कहते हुए उसके स्वर में गहरी पीड़ा के साथ ही उम्मीद की एक किरण भी झलक रही थी।

"थोड़ा सब्र रख मेरे यार ! कहा गया है न इंतजार का फल मीठा होता है।" कहने के साथ ही माहौल को हल्का फुल्का बनाने की नीयत से जमनादास हँस पड़ा।

उसे हँसते देखकर गोपाल के चेहरे से भी निराशा की परत कुछ हटती हुई सी लगी।
सब कुछ देख सुन रहा अमर अचानक बोल पड़ा, "पापा, अब वाकई देर नहीं होगी। हम अभी माँ से मिलने निकल रहे हैं। बाकी बातें रास्ते में करेंगे। चलिए !" कहकर वह दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

जमनादास भी गोपाल का हाथ थाम कर उसे लिए मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गया। बिरजू पहले ही अमर के साथ बँगले से बाहर आ चुका था।

कुछ देर बाद जमनादास की कार शहर की मुख्य सड़क पर फर्राटे भरते हुए बढ़ी जा रही थी।
जमनादास बड़ी कुशलता से कार चला रहा था और गोपाल आगे की सीट पर बैठा न जाने किन ख्यालों में गुम था।
जमनादास कार चलाते हुए अपना पूरा ध्यान ड्राइविंग पर केंद्रित करना चाहता था, लेकिन उसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि उसके मस्तिष्क में विचारों की आँधी चल रही है। मानसिक उहापोह की स्थिति से गुजरते हुए भी उसका पूरा ध्यान वाहन चलाने पर ही केंद्रित था क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि 'सावधानी हटी - दुर्घटना घटी'।
वह चाहकर भी मस्तिष्क में चल रहे विचारों को झटक नहीं पा रहा था। मस्तिष्क में चल रहे सवालों की फेहरिस्त काफी लंबी थी जिनका भरसक जवाब तलाशने की वह कोशिश कर रहा था।

वह सोच रहा था,'भावावेश में आकर गोपाल को लेके जा तो रहे हैं साधना से मिलने, लेकिन वह गोपाल के साथ कैसा व्यवहार करेगी ? क्या वह उसे आसानी से माफ कर देगी ? क्या वह उसकी उपस्थिति को सहजता से लेगी या विक्षिप्तों जैसा व्यवहार करेगी ? कहीं गोपाल की बेइज्जती न कर दे ? अगर साधना ने गोपाल से बुरा सलूक किया तो क्या वह उसे सहन कर पायेगा ? क्या उससे खुद अपने दोस्त की बुराई सहन हो पाएगी ? क्या वह समझ पाएगी कि गोपाल की कहीं कोई गलती नहीं थी इस पूरे मामले में ? कहीं वह मुझपर और नाराज न हो जाए ? वैसे भी उसने अभी मुझे भी कहाँ पूरी तरह से माफ किया है ?.. और फिर अमर ने भी तो अभी मुझे माफ़ नहीं किया है, फिर क्या होगा मेरी बेटी रजनी का ?'

रजनी का ख्याल आते ही उसके चेहरे पर गम की परछाइयाँ झलकने लगीं। उसे याद आ गया अमर के प्यार में दीवानी रोती हुई रजनी का मुरझाया हुआ चेहरा। मन ही मन ईश्वर का सुमिरन शुरू कर दिया जमनादास ने, 'हे भगवान ! मेरी मदद करो। मेरी बेटी की खुशियाँ उसे वापस दिला दो भगवान ! साधना और अमर के दिलों में मेरे लिए जमी नफरत को खत्म कर दो भगवान क्योंकि उनके दिलों में जमी नफरत ही अब मेरी बेटी की खुशियों में बाधक है।'
तभी बोझिल वातावरण को हल्का फुल्का बनाने की नीयत से पिछली सीट पर बैठा बिरजू बोल पड़ा, "अमर भैया ! आज का दिन तो बहुतै बढ़िया रहा। हम कबसे याद कर रहे हैं और इ हमरा दिमाग है कि भूसा का गोदाम, ससुरी याद ही नहीं आ रहा कि आज हम किसका मुँह देख के उठे थे जो एक साथ इतनी खुशखबरी हमको घर बैठे बैठे मिल गई जितना पूरी जिंदगी में नाहीं मिली थी।"

उसके बोलने के अंदाज से अमर हँसे बिना नहीं रह सका। वह बोझिल वातावरण पल भर में हल्के फुल्के माहौल में बदल गया। अपना प्रयास जारी रखते हुए बिरजू ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा, "इ देखो भैया ! अब हमको बहका नाहीं पाओगे और हम तुमसे पार्टी लेके रहेंगे और राम कसम, हम सच कहते हैं कि अगर जरा भी आनाकानी किये तो हम रजनी भाभी से ले लेंगे .......पार्टी !" कहते हुए वह जोर से हँस पड़ा।

"सबसे पहले तो आज हम इ सेठजी के दर्शन किये जिनसे कभी नहीं मिले थे। बाद में रजनी भाभी जी के भी दर्शन हो गए और वहीं पता चल गया कि वही हमरी भाभी जी हैं। भगवान ने आज हमको कितनी प्यारी प्यारी भाभी से मिलवा दिया। इतना ही नाहीं, आज तो हम धन्य हो गए अपनी साधना काकी के भी दर्शन करके।... वकील धर्मदास से मिलकर तो हमरी आत्मा ही तृप्त हो गई और मन में विश्वास बढ़ गया कि अब हमरी बसंती को न्याय अवश्य मिल जाएगा... और फिर आज बाबूजी से मिलकर तो हम अपने आपको दुनिया का सबसे खुशकिस्मत इंसान समझ रहा हूँ। अब तुम ही बताओ भैया इतना सारा खुशी हम एक ही दिन में पा गए और इ ससुरा हमरा दिमाग इतना सा बात भी याद नहीं रख सका कि हम आज सुबह सोकर उठते ही किसका मुँह देख कर उठे थे। हमको तो बड़ा गुस्सा आ रहा है अपनी इस कमअक्ली पर !" कहते हुए उसने खुद ही एक चपत लगा ली थी अपने माथे पर जिसे देखकर अमर ठहाका लगा पड़ा और कार चलाते हुए भी पीछे शीशे में उसकी हरकतें देख रहे जमनादास के चेहरे पर भी मुस्कान गहरी हो गई। कार फर्राटे से अपनी मंजिल की तरफ भागती रही।

क्रमशः