ममता की परीक्षा - 131 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 131



शहर की भीड़भाड़ के बीच कार मुख्य सड़क पर फर्राटे से भागी जा रही थी।
शाम का धुंधलका फैल चुका था। नित्य की भाँति सूर्यदेव अपनी गति से गंतव्य की तरफ अग्रसर थे और उस जगह पहुँच गए थे जिसे क्षितिज कहा जाता है। साधना के ख्यालों में खोए कार में आगे की सीट पर बैठे गोपाल की नजरें कार के शीशे से पार बहुत दूर क्षितिज पर जाकर टिक गई थीं। एक क्षण को उसे ऐसा लगा 'जैसे सूर्य की उपस्थिति में धरती और आसमान का मिलन हो रहा हो और इस मिलन के अहसास से ही धरती और आसमान का वह हिस्सा गुलाबी आभा लिए अपने मन के रूमानी भावों को पूरी दुनिया के सामने प्रदर्शित कर रहा हो। कैसा सुखद संयोग है कि वह भी तो अब आसमान बनकर अपनी धरती रूपी साधना पर बस छाने ही वाला है और उनके इस मिलन का प्रत्यक्ष गवाह भी कोई और नहीं उसका अपना जिगरी दोस्त जमनादास होनेवाला है। वह दोस्त जो बचपन से युवावस्था तक उसका हमसाया रहा था, राजदार रहा था। देर से ही सही कुदरत ने उसे उससे दुबारा मिलवाया है तो अवश्य इसके पीछे कुछ न कुछ अच्छा ही होना होगा।

तभी उसके अंतर्मन ने उसे चेताया, 'अरे बेवकूफ ! जिस दृश्य को देखकर तू सुनहरे सपने बुनने लगा है क्या तुझे नहीं पता कि वह सच नहीं, बस नजर का धोखा मात्र है ? क्या धरती और आसमान भी कभी मिलते हैं कहीं ? नहीं !.. न मिले हैं और न कभी मिलेंगे ही सो ये ख्याल तो निकाल ही दे अपने दिलो दिमाग से और हकीकत की धरातल पर रहकर यह सोच की एक ऐसी स्त्री जिसने तेरे वियोग में अपनी पूरी जवानी अकेले गुजार दी, संघर्ष किया और तेरी निशानी को पाल पोसकर बड़ा किया वह दुखियारी महिला क्या आसानी से तेरे दिए जख्मों को भुला पाएगी ? और अगर एक प्रतिशत चलो यह मान भी लिया जाए कि हो सकता है वह तेरी मजबूरी समझकर और तुझपर तरस खाकर तुझे माफ भी कर दे लेकिन क्या वह फिर भी तेरे साथ अपनी सौत को स्वीकार कर पायेगी ?.… नहीं, कभी नहीं ! चाहे जो भी हो कोई भी भारतीय महिला अपनी सौत को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती।' यह विचार आते ही उसका अंतर्मन काँप उठा।

उसे अपने सपने टूटते हुए से लगने लगे। उसके विचारों की श्रृंखला और आगे बढ़ी, 'सही तो है यह ! अब आगे क्या करेगा तू ? क्या करेगा तू सुशीला का ? वह सुशीला जो तेरे नाम से चल रही पूरी कंपनी की अकेली मालकिन है। तू अच्छी तरह जानता है सुशिला और उसके बाप ने मिलकर धोखे से तेरे पिता की भी सारी कंपनियों के शेयर सुशीला के नाम से ही ट्रांसफर करवा लिया था और अब तू नाममात्र का ही मालिक है अग्रवाल इंडस्ट्रीज का। यही तो वजह है जिसकी वजह से पिछले बीस साल तूने घुट घुट कर बिताए लेकिन उस सुशिला के खिलाफ एक बार भी मुँह नहीं खोला जिसे देखते ही तेरे तनबदन में नफरत की आग धधक पड़ती है। ऐसी मक्कार औरत से तू अब कैसे निबट पाएगा ? क्या होगा अब आगे ?'
और यहीं पर आकर उसके विचारों की श्रृंखला कानों में गूँजते शोर के रूप में परिवर्तित हो गई थी। नजर विंडस्क्रीन के पार क्षितिज पर टिकी हुई थी लेकिन कानों में गूँज रहा था ' .....क्या होगा अब आगे ? .....क्या होगा अब आगे ? ......क्या ......क्या ......क्या ......???'
और फिर घबराकर दोनों हथेलियों को कानों से ढँकते हुए वह चीख पड़ा ".......नहीं ...!"
और यही वह वक्त था जब चीख पड़े थे जोरदार ब्रेक की वजह से कार के टायर भी। एक तेज झटका लगा था सभी को और अगले ही पल हवा से बातें करनेवाली कार अचानक रुक गई थी।

एक बड़ी सी इमारत के मुख्यद्वार के सामने कार खड़ी करते हुए गोपाल की चीख सुनकर जमनादास चौंक पड़ा। कार से उतरते हुए उसकी निगाहें गोपाल के ही चेहरे का निरीक्षण कर रही थीं। उसके चेहरे पर उभर आए भावों को पढ़ने की भरसक कोशिश कर रहा था वह।

पीछे बैठे हुए अमर और बिरजू पहले ही कार से बाहर उतरकर इमारत के मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गए थे।
गोपाल ने कार से उतरते हुए पहले उस इमारत के मुख्य दरवाजे की तरफ देखा और फिर पलटकर सड़क की तरफ देखने लगा।

शाम का धुंधलका गहरा कर अब हल्के अंधेरे में बदल चुका था। सड़क पर तेज भागती हुई गाड़ियों में से कुछ गाड़ियों की हेड लाइट जल चुकी थीं तो कुछ अभी वैसे ही चल रही थीं। मुख्य दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ था और उसपर लगा एक तेज रोशनी वाला बल्ब भी अब रोशन हो उठा था जिसकी वजह से बोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा 'श्रीमती रमाबाई मोहनभाई भंडारी महिला कल्याण आश्रम ' पढ़ने में गोपाल को कोई दिक्कत नहीं हुई।

ताला जड़े हुए मुख्य दरवाजे में स्थित छोटे से गेट से अमर और बिरजू ने पहले ही अंदर प्रवेश कर लिया था। जमनादास के साथ चलते हुए गोपाल के चेहरे पर कई तरह के भाव आ जा रहे थे। सीने में भावनाओं का बवंडर उमड़ा हुआ था। तेज चल रही साँसों के साथ ही उसके कदमों की गति अप्रत्याशित रूप से काफी धीमी हो गई थी। उसे पीछे रह गया देखकर जमनादास हैरत में था। कहाँ तो उसकी सोच ये थी कि कार से उतरकर वह भागते हुए साधना से मिलने जाएगा, उस साधना से जिससे मिलने के लिए पूरे पच्चीस साल इंतजार किया था उसने, लेकिन अब क्या चल रहा था उसके दिमाग में ?
गोपाल का यह अजीब सा व्यवहार जमनादास के मन में कई तरह के सवाल खड़े कर रहा था लेकिन अपने विचारों को झटकते हुए जमनादास ने मुस्कुरा कर गोपाल की तरफ देखते हुए कहा, "अब और देर न कर यार ! मुझसे अब और इंतजार नहीं हो रहा।"

अपने कदमों में तेजी लाते हुए गोपाल बोला, "हाँ हाँ.. चल यार !"
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अमर के पीछे निकलने से पहले जमनादास ने रजनी को आश्वस्त किया था कि वह अमर की सहायता करने के लिए अपना पूरा जी जान लगा देंगे और बसंती को न्याय दिलाकर ही रहेंगे।
साथ ही रामलाल को दोनों हाथ जोड़ते हुए उनसे रजनी का ध्यान रखने का निवेदन भी किया था।

जमनादास को गए हुए काफी देर हो गई थी। सूरज सिर पर चढ़ आया था। रामलाल दालान में खटिये पर लेटे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और उनसे थोड़ी दूर खटिये पर बैठी अपने मोबाइल में व्यस्त रजनी हुक्के की गुड़गुड़ाहट की अजीब सी ध्वनि का आनंद ले रही थी। ऐसी गुड़गुड़ाहट उसने पहले कभी नहीं सुनी थी सो उसका पूरा ध्यान उसी आवाज की तरफ थी।
अचानक वह आवाज आनी बंद हो गई। रजनी ने रामलाल जी की तरफ देखा जो एक हाथ में हुक्का थामे उसपर ऊपर के हिस्से में लगी मिट्टी के चिलम को निकालकर जमीन पर पलट रहे थे जिसमें अभी भी गोबर के उपले जैसा कुछ जल रहा था। उस आग को जमीन पर पलट कर उन्होंने उसे उसी चिलम से ढंक दिया।

आग से सुरक्षित रहने की उनकी सजगता को देखकर रजनी मन ही मन उनकी सराहना करते हुए सोचने लगी, 'कितनी सरलता व सहजता के साथ लोगों में अपनापन व प्यार बाँटते गाँव के ये भोलेभाले लोग कितने ज्ञानी व सजग हैं यह इनके साथ रहकर ही समझा जा सकता है। प्रकृति से लेकर लोगों के दिलों तक, साथ ही पशु पक्षी, पेड़ पौधे और खेत खलिहानों तक से भावनात्मक रूप से जुड़े ये ग्रामवासी हर किसी की सुरक्षा व बेहतरी का ध्यान रखते हैं और हम शहरवासी इन्हें अनपढ़, जाहिल और गँवार कहकर इनका मखौल उड़ाते हैं। अरे लानत है हम पढ़े लिखे शहरी लोगों पर जो अपने आप में इतना खोये रहते हैं, इतने स्वार्थी होते हैं कि किसी घर में अकेली रह रही बुढ़िया के मरने का पता उसके पड़ोसियों को तब चलता है जब दो चार दिन के बाद उस के शव से दुर्गंध आने लगती है। शहरों में लोग सालोंसाल एक ही बिल्डिंग में रहते हैं लेकिन, कितनी हैरत की बात है ये कि ये अपने पड़ोसियों को पहचानते भी नहीं और जब पहचानते नहीं तो इनका आपस में क्या अपनापन और क्या भाईचारा ? यही वजह है कि शहरों में छोटी छोटी हाउसिंग सोइटियों से भ्रष्टाचार की गंगोत्री निकलती है जो धीरे धीरे समाज के सभी अंगों के जरिये पूरे देश में फैल जाती है जिसकी मार इन निर्दोष गरीब ग्रामवासियों को भी झेलनी पड़ती है........!'

बड़ी देर तक वह इसी तरह से देश व समाज के बारे में सोचती रही। जितना भी सोचती उसके मन में ग्रामवासियों के प्रति सम्मान व श्रद्धा बढ़ती जाती।
तभी आँगन से निकलती हुई बिरजू की माँ उसे नजर आई जो कुछ चिंतित सी नजर आ रही थी।

रजनी उठकर उनकी तरफ बढ़ी जो अभी अभी आँगन में गई थी। आँगन में एक कोने में चुल्हा जल रहा था जिसपर दो बर्तनों में कुछ पक रहा था और वह झुककर मुँह से चुल्हा फूँक रही थीं। लकड़ियाँ शायद गीली थीं इसलिए जलने की बजाय धुआँ ही अधिक छोड़ रही थीं। उन्हें जलाने के प्रयास में उनकी आँखें लाल हो गई थीं और इसी झुंझलाहट में वह बड़बड़ाये जा रही थीं, "एक तो आज पहले ही इतनी देर हो चुकी है और आज ही ये लकड़ियाँ भी अपने रंग दिखा रही हैं। कल शाम लकड़ियाँ घर में रखना भूल गई थी जो बाहर रह जाने की वजह से शीत से गीली हो गईं और फिर आज सुबह से ही सबका आनाजाना और बातचीत ......किसी को इनकी परवाह है ही नहीं कि इतनी देर हो गई ....ये क्या खाएँगे ? ....क्या करूँ मैं ....?" चुल्हा फूँकते हुए बिल्कुल रुआँसी सी हो गई थीं वह।

तभी चुल्हे पर चढ़े बर्तन में से एक में चावल चलाने के बाद वह बाहर की तरफ गईं और रामलाल से बोलीं, "अजी सुनते हो ! दाल और चावल बन गया है। कहो तो पुदीने की चटनी पीस देती हूँ, फटाफट भोजन कर लो। सब्जी और रोटियाँ बनने में तो बहुत देर हो जाएगी।" कहने के बाद स्वतः ही बड़बड़ाने लगीं 'इन मुई लकड़ियों को भी आज ही गीला होना था।

उसकी बड़बड़ाहट को नजरअंदाज करते हुए रामलाल बोले, "कोई बात नहीं बिरजू की अम्मा ! जो बना है, अब वही परोस दो। भूख तो वाकई जोरों से लगी है.. और हाँ बाद में सब्जी और रोटी जरूर बना देना और दाल घी से बघार देना ! वो क्या है न कि रजनी बिटिया को उसकी पसंद का न सही थोड़ा तो बेहतर भोजन मिले।"

क्रमशः