ममता की परीक्षा - 129 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

ममता की परीक्षा - 129



अचानक गोपाल उठ खड़ा हुआ और जमनादास का हाथ पकड़कर उसे भी उठने का इशारा करते हुए कहने लगा, "चल मेरे यार ! अब और देर न कर। मुझे मेरी साधना के पास ले चल। अब एक पल की देरी भी सहन नहीं हो रही।"" कहते हुए वह फिर से फफक पड़ा।

जमनादास सोफे पर बैठे बैठे ही बोला, "मुझ पर यकीन रख मेरे दोस्त ! मैं भी जल्द से जल्द तुम दोनों को एक दूसरे से मिलवाकर अपने गुनाहों का प्रायश्चित कर लेना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले तुझे मेरा एक छोटा सा काम करना होगा।.. बोल कर पाएगा ?"

तड़प कर जमनादास की तरफ देखते हुए गोपाल बोल पड़ा, "कितना बदल गया है तू मेरे यार ? एक तरफ तो मुझे दोस्त भी बोल रहा है और फिर अगले ही पल उसी दोस्ती को गाली भी दे रहा है। तुझसे ये बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी मेरे यार ! इतनी जल्दी मुझे बेगाना समझ लिया ?"

"अरे नहीं ....नहीं यार, ऐसा नहीं है। मैंने तुझे कब बेगाना समझा ?" कुछ न समझ पाने के भाव जमनादास के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहे थे।

"तेरे लिए तो मेरी जान भी हाजिर है मेरे दोस्त और अगर तू कोई बात कहने के लिए मुझसे इजाजत माँगे तो क्या यह मेरे लिए किसी गाली से कम है ?" गोपाल की बात सुनकर जमनादास को अपनी गलती का अहसास हुआ।
उठकर गोपाल के गले से लिपटते हुए उसके चेहरे पर गर्व मिश्रित खुशी और मुस्कान थी, "मुझे पता है यार, लेकिन वो क्या है न कि तुझसे इतने सालों तक दूर रहा न, और कोई मेरा दूसरा दोस्त भी नहीं तेरे अलावा, तो दोस्ती की परिभाषा भूल गया था। अब माफ करने के लिए नहीं कहूँगा तुझसे कि मुझे माफ़ कर दे....!" कहते हुए जमनादास ने गोपाल के सामने कुछ इस अंदाज में अपने दोनों हाथ जोड़ लिए जिन्हें देखकर रोते हुए गोपाल के चेहरे पर बरबस ही हँसी आ गई और फिर अचानक दोनों दोस्तों की हँसी से माहौल बदल ही गया।

अमर और बिरजू जो उन दोनों की हर हरकत और बातचीत को बड़ी तन्मयता से देख सुन रहे थे उनमें आए अचानक बदलाव से भौंचक्के से रह गए थे। ऐसा तो उन्होंने कभी न देखा था न सुना था। बहरहाल उनकी नजरें खामोशी से अभी उन दोनों दोस्तों को ही परख रही थीं।

दोनों मित्र गले मिलकर परस्पर एक दूसरे के आँसू पोंछ रहे थे और सामान्य नजर आ रहे थे।
कुछ पलों बाद ही गोपाल की गंभीर सी आवाज आई, "अब बता ! तू किस काम की बात कर रहा था, जो मुझे करना चाहिए ?"

जमनादास ने बहुत ही गहरी और अर्थपूर्ण नजरों से गोपाल की तरफ देखा और कहा, "अधिक कुछ नहीं करना है! बस तुझे भी एक प्रायश्चित करना है और अपनी भूल सुधारनी है।"
"साधना के साथ हुई मैं अपनी हर गलती का प्रायश्चित करना चाहता हूँ मेरे दोस्त ! मैं इसी लिए तो बेताब हूँ उस देवी के कदमों में अपना मस्तक रखने के लिए। हालाँकि मेरे अंदर हिम्मत नहीं बची है कि किस मुँह से मैं उसका सामना कर पाऊँगा और उसकी मेरे लिए जो भी प्रतिक्रिया होगी उसे कैसे संभाल पाऊँगा लेकिन ऊपरवाला जानता है मेरे मन की बात कि अब चाहे जो भी अंजाम हो, मैं उससे एक पल की भी दूरी बरदाश्त नहीं कर पा रहा हूँ। अब अगर मुझे साधना की नफरत व क्रोध का सामना भी करना पड़ा तो मैं मानसिक रूप से उसके लिए खुद को तैयार कर रहा हूँ। चल यार, अब और देर न कर।"

कहते हुए गोपाल सचमुच उठ खड़ा हुआ,लेकिन आराम से सोफे पर बैठे हुए जमनादास ने उसका हाथ खींचकर उसे वापस सोफे पर बिठाते हुए कहा, "मैं फिलहाल साधना की नहीं, किसी दूसरे प्रायश्चित की बात कर रहा हूँ जो तुझे पिता होने के नाते करनी होगी। वो राजीव उर्फ रॉकी तेरा ही बेटा है न ? उसके गुनाहों का प्रायश्चित तुझे करना होगा।"

"नाम न लो उस गंदे खून का !" रॉकी का नाम सुनते ही बिफर पड़ा था गोपाल लेकिन जल्द ही खुद को संयत करते हुए बोला, "दोस्त ! दुनिया चाहे जो कहे, लेकिन तू तो उसे मेरा बेटा कहकर मुझे गाली न दे। घिन्न आती है मुझे उसका नाम भी सुनकर। उसकी रगों में बहनेवाला खून मेरा नहीं बल्कि उसकी अय्याश माँ और उसके गंदे साथियों का है। शायद उसके बाप का नाम तो उसकी माँ भी नहीं जानती होगी। अय्याशी में वह बिल्कुल अपनी माँ पर गया है,और तुम चाहते हो कि उस गंदे खून के पापों का प्रायश्चित मैं कर लूँ ? अरे जिसे कभी बेटा ही नहीं माना उसके पापों के लिए मैं कैसे जिम्मेदार बन गया ?.. और जब जिम्मेदारी नहीं तो प्रायश्चित कैसा ?" आवेश में बोलते हुए गोपाल थोड़ा सा हाँफने लगा।

प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर बड़ी आत्मीयता से उसे दिलासा सा देता हुआ जमनादास बोला, "मुझे माफ़ कर दे यार ! पर एक बाप की हैसियत से न सही, लेकिन एक दोस्त और एक इंसान के नाते ही सही तुझे हमारी मदद करनी होगी।"

"मैं तेरे साथ हर उस जगह खड़ा हूँ मेरे दोस्त जहाँ वास्ता इंसानियत और सच्चाई से हो ! बता मुझे क्या करना होगा ? मैं कैसे इस मामले में तेरी मदद कर सकता हूँ ? और तूने अभी तक तो मुझे बताया भी नहीं कि उस गंदे खून ने किया क्या है ? वैसे मुझे अंदाजा तो है कि उस गंदे खून ने सिवा गंदगी फैलाने के कुछ और नहीं किया होगा। मैं हर तरह से तेरे साथ हूँ दोस्त !" कहते हुए गोपाल ने जमनादास को आश्वस्त किया।

"मुझे तुझसे यही उम्मीद थी मेरे दोस्त !" कहते हुए जमनादास ने अमर की तरफ इशारा किया, "इन्हें पहचानता है ?"
इस बीच अमर उठ खड़ा हुआ था।

असमंजस के भाव लिए गोपाल कुछ देर तक अमर को घूरता रहा, और दिमाग पर जोर देने का प्रयास करते हुए बोला, "नहीं तो ..! मुझे नहीं याद आ रहा है कि पहले कभी इनसे मिला हूँ या नहीं।"

"नहीं पहचाना ? ...ये तेरा ही खून है गोपाल ..! अमर..! अमर है इनका नाम !" अगले ही पल अमर गोपाल के कदमों में झुका हुआ था जबकि आश्चर्यमिश्रित खुशी से भावविह्वल गोपाल को कुछ सूझ नहीं रहा था। एक झटके से अमर को कंधे से पकड़कर अपने सीने से लगा लिया और उसके माथे पर चुम्बनों की बौछार कर दी। एक बार फिर उसकी आँखों से अविरल आँसुओं की धार बह निकली। वह उससे कुछ बात करना चाहता था लेकिन ऐसा लग रहा था मानो उसकी जुबान उसका साथ नहीं दे रही थी।

बिरजू की आँखें भी छलक पड़ी थीं और वह एकटक उन दोनों बाप बेटे के मिलन की तरफ ही देखे जा रहा था।
अमर को सीने से लगाकर गोपाल को महसूस हो रहा था जैसे उसका इंतजार पूरा हो गया हो और वह इसी दिन के लिए पल पल मरकर भी जिंदा रहा था, पल पल अपनी आत्मा को मरते हुए देखता रहा था।
उधर अमर को भी गोपाल के सीने से लगकर उसे उस प्यार और अपनेपन की अनुभूति हुई जिसके लिए वह अब तक तरसता रहा था। एक पिता का प्यार क्या होता है इससे अंजान वह अब पिता की छत्रछाया को अपने दिल में बसा लेना चाहता था, उसे महसूस करके अपना जन्म सफल बना लेना चाहता था। उनके प्रति मन में छिपी हुई नफरत की भावना तो पहले ही कबकी आँसुओं के रूप में उसके दिल से निकल चुकी थी।
दोनों पता नहीं और कितनी देर तक एक दूसरे के साथ होने का एकदूसरे को अहसास कराते रहते कि तभी जमनादास ने उन्हें टोका, "अरे बरखुरदार ! अब ये बाप बेटे का मिलन हो चुका हो तो आगे काम की बात भी करें ?"

क्रमशः