गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 38 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 38

भाग 37:जीवन सूत्र 42-43

42 मुख्य कार्य में

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2/59।।

इसका अर्थ है,इन्द्रियों को विषयों से दूर रखने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं,पर उनमें आसक्ति निवृत्त नहीं होती है।इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य की तो आसक्ति भी परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से निवृत्त हो जाती है।

पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने विषयों की आसक्ति को त्यागने की बात की है। इस श्लोक में इसे और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि इंद्रियों को बलपूर्वक विषय से हटाने के बाद भी मनुष्य का ध्यान उधर ही चला जाता है। यह तो आसक्ति को त्यागना नहीं हुआ।

आचार्य सत्यव्रत ने एक दिन शाम को अपने दो शिष्यों को उनका मनपसंद खेल खेलने के लिए दिया।यह कंदूक क्रीड़ा थी। दोनों को दूर के एक लक्ष्य को कंदूक या बॉल फेंककर निशाना लगाना था। दोनों मित्र बड़ी देर तक खेल खेलते रहे। अचानक बिना पूर्व सूचना के गुरु ने दोनों शिष्यों को वापस बुला लिया। पहले शिष्य को तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह खुशी- खुशी लौट आया। दूसरा शिष्य वापस आने के बाद भी कंदूक के खेल की ओर अपना ध्यान लगाए रहा।

अब आचार्य ने दोनों शिष्यों को गणित का कोई प्रश्न हल करने के लिए दिया। पहला शिष्य धीरे-धीरे प्रयत्न कर उसे हल करने की कोशिश करने लगा।दूसरा शिष्य अधिक मेधावी था। फिर भी वह अपनी एकाग्रता खो रहा था और बार-बार कंदूक के लक्ष्य पर प्रहार करने के संबंध में सोचता रहा। परिणाम स्वरुप वह समयसीमा में प्रश्न हल नहीं कर पाया।

आचार्य ने दूसरे शिष्य को समझाते हुए कहा कि तुम्हारा ध्यान अभी तक उस खेल में अटका है। भौतिक रूप से खेल का मैदान छोड़ देने के बाद भी तुम्हारा ध्यान उधर ही जा रहा है ।इसे बदलने की जरूरत है। हम जहां रहें,वहां अपना ध्यान रखें।जो कार्य कर रहे हैं,उसमें अपना ध्यान लगाएं क्योंकि अभी वह कार्य आवश्यक है जो आप कर रहे हैं।वह नहीं जो आपको पसंद है और जिसे आपने छोड़ रखा है।जीवन में हर चीजें हर समय मनपसंद की नहीं मिल सकती हैं। इंद्रियों के विषयों से ध्यान हटाने में भी यही बात लागू होती है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।(2/60)।

इसका अर्थ है," हे कुंती पुत्र अर्जुन! इन्द्रियाँ संयम का प्रयत्न करने वाले बुद्धिमान मनुष्य में भी उन इंद्रियों के प्रति आसक्ति का नाश न होने के कारण उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।"

इंद्रियों का स्वभाव ही है इंद्रियों से संबंधित विषयों की ओर दौड़ना।मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है,मनुष्य की बुद्धि भी वहीं साथ दौड़ पड़ती है।अब इस बात का निश्चय कैसे हो कि जो चीजें मनुष्य को चकाचौंध और लुभाने वाली दिखाई दे रही हैं,उनमें से कौन सी सही नहीं हैं और इसके बजाय उसे अपने कार्य में या फिर परमपिता परमात्मा की आराधना में ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

कारण यह है कि इंद्रियों का स्वभाव ही है चंचल होना और अगर व्यक्ति के मन में इंद्रियों के उस विषय के प्रति आसक्ति की भावना है तो वह तेजी के साथ इंद्रियों का अनुसरण करने लगता है।इंद्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति एक दिन में पैदा नहीं होती एक तरह से हमें इसकी आदत पड़ जाती है।अगर विद्यार्थी पढ़ाई के समय में आवश्यकता न होने पर भी टीवी, मोबाइल देखने का आदी हो गया है तो सबसे पहले, कहीं न कहीं, कभी न कभी उसने यह कार्य पहली बार किया होगा और धीरे-धीरे उसे इसकी आदत लग गई होगी। अब ऐसा विषय कभी भी उपस्थित होने पर उसका यह लगाव आसक्ति में तब्दील हो चुका है। उसे पढ़ाई करने वाला कार्य कष्टकारी लगेगा और मोबाइल पर गीत-संगीत देखना-सुनना अधिक रुचिकर व आवश्यक लगेगा।आसक्ति यहां तक गहरी हो जाती है कि अगर उसने कहीं मोबाइल रखा हुआ देखा या टीवी पर अपनी पसंद का कोई कार्यक्रम देखा; तो वह अपना पढ़ाई वाला कार्य छोड़ कर इसी कार्य में अपना पूरा समय लगा देगा। अब समस्या यह है कि उस विद्यार्थी के आगे उस टीवी या मोबाइल से बड़ा आकर्षण बिंदु कैसे खड़ा किया जाए? केवल कह देने से तो वह टीवी देखना या मोबाइल का अनावश्यक उपयोग नहीं छोड़ेगा; क्योंकि उसकी आसक्ति इतनी गहरी हो गई है कि वह अब तो अपने अवचेतन मन की उत्प्रेरणा के आधार पर ही मोबाइल हाथ में ले लेगा।

इस तरह की परिस्थिति का समाधान स्वयं भगवान कृष्ण ने बताया है।वह है:- प्रसंग उपस्थित होने पर भी विषयों में आसक्ति का न होना।

अगर मन इस बात को समझ जाए कि वह किसी चीज का अभ्यस्त हो रहा है तो इसका मतलब है, वह विषय का प्रसंग उपस्थित होने पर अपना कर्तव्य छोड़ने की प्रवृत्ति के कारण साथ-साथ अस्वस्थ भी हो रहा है।जैसे स्वस्थ रहने के लिए कड़वी दवा तो जरूरी है लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कुछ चीजों से परहेज करना।इसी तरह पढ़ाई में ध्यान लगाने वाले विद्यार्थियों को भी यह समझना होगा कि उनके जीवन में उन्नति के लिए पढ़ाई एक कड़वी दवा की तरह आवश्यक है।साथ ही स्वस्थ,सबल बने रहने हेतु,उन्हें भटकाने वाली चीजों से परहेज भी अपने विकास और अपनी सफलता के लिए बहुत आवश्यक है।

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय