खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 17 ramgopal bhavuk द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 17

श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’  के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्ट‍व्यी हैं।

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 17

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

 

सप्‍तदश अध्‍याय – रतना मैया

दोहा – घटनायें आनंदप्रद, बनती कहिं अनियास।

असह व्‍यथा का समन हो, यदि प्रभु मैं विस्‍वास।। 1 ।।

यथा समय सब ही जुड़ आये। रतना मैया पौरि विठाये।।

यथायोग आसन तब लीनी। मानस तिखुटी पर रखदीनी।।

पीत वसन आच्‍छादित जिस पर। सीस नवा खोली तिखुटी धर।।

लिखी लिखावट सुंदर कैसी। मणि कांचन संयोग हि जैसी।।

सुमिर राम फिर वन्‍दन कीना। सस्‍वर पाठ मधुर स्‍वर भीना।।

मंत्र मुग्‍ध सम सुन कर सबही। मानो शारद वाचन करही।।

बांची आज पांच चौपाई। सुन सुन मोद बढ़ौ अधिकाई।।

आगे समय नियत है कीना। नित बाचन का नेम जु लीना।।

दोहा – भइ संध्‍या घर गये सब, तुलसी कथा सराह।

 बाबा तुलसी धन्‍य तुम, हिन्‍दी दई दरशाह।। 2 ।।

भोजन कर जब रतना लेटी। हरको चौपाई गा बैठी।।

रामहि प्रिय पावन तुलसी सी। तुलसीदास हित हिय हुलसी सी।।

सासु नाम सुन वंदन कीना। ससुर नाम जिसमें लवलीना।।

कैसे सास ससुर थे स्‍वामी। सुख की बेल हृदय जिन जामी।।

प्रतिदिन पाठ नियम से चलता। राम कथा सुन हृदय उछलता।।

सोते समय उसे दुहराती। सोच सोच मन में हरषाती।।

दोहा – सती हृदय अनुमान किय, सब जानेउ सर्वज्ञ।।

कीन्‍ह कपट में शंभु सन, नारि सहज जड़ अज्ञ।। 3 ।।

छमा नहीं शिव कर सके, आप छमा कर दीन।

कैसी हूं मैं स्‍वयं की, करती छाना बीन।। 4 ।।

नारद मोह प्रसंग में, काम अन्‍ध की बात।

बाही दिन की सुरति कर, बार बार पछताव।। 5 ।।

मानस पाठ सदा ही होता। सुबह शाम के कार्य संजोता।।

लगतीं मध्‍यान्‍ह नित शाला। जिसे चलावें गणपति लाला।।

मानस पाठ खबर है फैली। राम कथा सुन्‍दर अलवेली।।

ग्राम ग्राम जन सुनने आवें। सरस कथा सुन मन हरषावें।।

साधु संत सब सुनने आते। घर घर में वे खातिर पाते।।

रतना मां मन यही विचारे। निज जीवन को आप निहारे।।

हुलसी मां जनमत ही त्‍यागा। केकई मन ज्‍यों राम विरागा।।

अनुसुइया प्रसंग कह डाला। मानो मेरे हित की माला।।

दोहा – हरको रतना दोउ मिल, करती खूब विचार।

नारी जीवन की व्‍यथा, पढ़ती बारंबार।। 6 ।।

अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील विनीता।।

रिषि पतनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई।।

दिव्‍य वसन भूषन पहिराये। जे नित नूतन अमल सुहाये।।

कह रिषि वधू सरस मृदुबानी। नारि धर्म कछु व्‍याज बखानी।।

मात पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुन राजकुमारी।।

अमित दानि भर्ता वैदेही। अधम नारि जो सेव न तेही।।

धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परखिऐहिं चारी।।

वृद्ध रोग बस जड़धन हीना। अंध वधिर क्रोधी अति दीना।।

ऐसेहु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

एकइ धरम एक व्रत नेमा। काय वचन मन पति पद प्रेमा।।

जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं। वेद पुरान संत सब कहहीं।।

उत्‍तम के बस अस मन माहीं। सपनेहु आन पुरूष जग नाहीं।।

मध्‍यम पर पति देखई कैसे। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।

धर्म विचार समझ कुल रहई। सो निकृष्‍ट तिय श्रुति अस कहई।।

विन अवसर भय से रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।।

पति वंचक पर पति रति करई। रौरव नरक कल्‍पशत परई।।

छन सुखि लागि जनम शतकोटी। दुख न समझ तेहि सम को खोटी।।

बिनु श्रम नारि परमगति लहई। पतिव्रत धर्म छाडि़ फल गहई।।

पति प्रतिकूल जनम जंह जाई। विधवा होय पाय तरुणाई।।

सोरठा – सहज अपा‍वनि नारि, पति सेवत सुभ गति लहई।

      जस गावत श्रुति चारि, अजहुं तुलसिका हरिहि प्रिय।।

पतनी विरह राम का वरना। क्‍या मम जीवन की नहिं घटना।।

उनके नारी मन नहिं भाई। तासों उनने करी बुराई।।

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।

नारि स्‍वाभ सत्‍य कवि कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।

साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।।

निज प्रति विंवहि वरु गहि जाई। जानि न जाय नारि गति माई।।

दोहा – का नहिं पावक जर सकै, का न समुद्र समाय।

     का न करै अबला प्रवल, केहि जग काल न खाय।। 8 ।।

बोली हरको मीठी वानी। यह प्रसंग आपन नहिं जानी।।

जिस प्रसंग में जो है घटना। वह प्रसंग वैसी ही रचना।।

रामचरित रचने का कारन। मैं ही बनी एक निर्धारिन।।।

जल‍धि ज्‍वार बड़़वानल जलता। जस उरमिला हृदय दहकता।।

गुरुजी को लक्ष्‍मन ही जानो। तुमरौ नाम न कहूं दिखानो।।

सुन अनुमोदन कीनो मैया। रहा ठीक ही कथा कहैया।।

नहिं तो जुड़ता सारा तांता। जिससे जुड़ता मेरा नाता।।

लोग बाग तब क्‍या मन कहते। भला बुरा सब भावुक सहते।।

दोहा – यों बातें कह सो गई, लेते हरि का नाम।

     ताही बल सब जगत के, चलते दीखे काम।। 9 ।।

 अध्‍याय – रामचरित – मानस

दोहा – रामचरित की कथा अब, जन चरचा की बात।

      जंह देखो वंह ही चले, सभी लोग बतरात।। 1 ।।

प्रात: से सांय तक दिन भर। राम भक्‍त आते रतना घर।।

घर घर चलती राम कहानी। गावें रामायन की वानी।।

दूर दूर के सुन जन आते। रामायण सुन वे सुख पाते।।

इक दिन रामू गणपति आये। कर चरचा उन मात मनाये।।

हम हूं चह रामायन पढ़ना। दूसरि प्रति कैसे हो रचना।।

अनुमति आप अगर दे देवें। तो हम उसकी प्रति कर लेवें।।

सुन रतना यह बात कही है। कृति समाज की निधी रही है।।

जितना ग्रन्‍थ प्रचारित होई। उतनी भगति प्रसारित सोई।।

दोहा – कागज कलम मंगाय कर, प्रतियों की रख आस।

दोपहरी निश्‍चय करी, वैठे दोनों पास।। 2 ।।

बीच बीच शंकायें चलतीं। समाधान के साथ निपटतीं।।

यों लेखन का क्रम हैचलता। लक्ष्‍य साधना का भी पलता।।

व्‍यस्‍तहुआ अब अपना जीवन। मग्‍न हुआ मानस सेवा मन।।

श्‍वेत केश सिर पर अब छाये। वृद्ध हुआ तन नहीं सुनाये।।

दर्शन हित आवै समुदाई। जो जो निरखे करे बड़ाई।।

एक बात मैया मन आई। अंत समय प्रभु मिलें गुसांई।।

कीना प्रश्‍न किसी ने आकर। लव कुश कथा न कीन उजागर।।

त्‍याग राम सिय नहीं सुहाई। इसी लिये यह कथा न गाई।।

दोहा – भाषा क्‍यों रचना करी, यह विरोध की बात।

समझ न पायें संस्‍कृत, भाषा सरल सुहात।। 3 ।।

बढ़े साधना मानस गाये। हनुमत वरद हस्‍त सिर छाये।।

भूत प्रेत सुनते ही भागें। सब ही जीव सुनत अनुरागें।।

मानस पाठ करें हरषाई। मन वांछित फल सब कोई पाई।।

सोते समय विचारे मैया। वनोवास संयम रखवैया।।

संयम में यदि आवे बाधा। तो समझो जीवन है आधा।

जैसे शिव गिरिजाहि सुनावें वैसेहि आप मोय समझावें।।

लगता मुझे भूल नहिं पाये। रचना लिखने में अपनाये।

कैसहु नाम लेत फल भारी। हाड़ मांस की प्रीति विसारी।।

दोहा – दोनों की एकै दशा, रामनाम गुन गान।

फिर प्रभु मेरा आपका, करें न क्‍यों कल्‍यान।। 4 ।।

हाड़ मास की प्रीति छोड़े। राम भजन में नित चित जोड़े।।

राम चरित मधुवन की नांई।। जहां सु निशिदिन राम रहाई।।

जहां समर्पण यदि सच होता। वहां प्रेम आ सभी संजोता।।

तन मन सब आनंदित होता। बारंबार लगा कर गोता।।

दोहा – गीत गाय माला जपै, तव शैया पर जाय।।

नींद न आवे तब तलक, ध्‍यान राम का लाय।। 5 ।।

अजपा जापहु नित चले, प्रति दिन की यह बात।

राम राम रटती रहै, जीवन बीता जात।। 6 ।।