खण्डकाव्य रत्नावली 15
खण्डकाव्य
श्री रामगोपाल के उपन्यास ‘’रत्नावली’’ का भावानुवाद
रचयिता :- अनन्त राम गुप्त
बल्ला का डेरा, झांसी रोड़
भवभूति नगर (डबरा)
जि. ग्वालियर (म.प्र.) 475110
पंचदस अध्याय – संत
दोहा – सोमवती जब जब पड़े, रतना करती ध्यान।
चित्रकूट के दृश्य लख, हो आनंद महान।। 1 ।।
शिक्षण का जो नित क्रम चलता। उससे ही तो घर है पलता।।
सोमवती संतन के जत्था। निकलें द्वारे करे व्यवस्था।।
रतना उनसे पूछत रहती। कहां गुसांई मिलहै कहती।।
कहें संत अब जगे गुसांई। उनके दर्शन को सब जाई।।
कहैं स्वामि जी चंदन घिसते। राम संत बन उनसे मिलते।।
जब उनने पहिचान न पाये। हनुमत शुक बन उन्है बताये।।
दोहा – चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर।
तुलसीदास चन्दर घिसे, तिलक करें रघुवीर।। 2 ।।
भई धन्य मैं सुन तब वानी। प्रभु की महिमा जात न जानी।।
बोली हरको जल ले आओ। आटा दाल ले भोग लगाओ।।
सुन जड़ आये बहुतक लोगा। सेबा कारन बनो सुयोगा।।
इलाहबाद के पथ में पड़ता। पथिकों की केवल यह रस्ता।।
तब तक रामू भैया आये। बैइा पीढ़ा पर हरषाये।।
साधुन कहा कथी रामायन। गोस्वामी जी अति हि सुहावन।।
काशी में चरचा सब करते। रामायण गोस्वामी कहते।।
कथा सुने झूमे नरनारी। करें राम धुन दे दे तारी।।
दोहा – समाचार यह दैन को, आया था में मात।
सेवा घर में राम की, संध्या करने जात।। 3 ।।
भजन राम का जब जब करती। तब तस्वीर तुम्हारी दिखती।।
जो जो वस्तु तुम्हारी पाती। उसमें झांकी तुम्हरी आती।।
जभी नींद नहिं मुझको आती। तभी कोई गीत हूं गाती।।
युगदृष्टा जब कोई कहता। तभी हर्ष से हृदय उमड़ता।।
मैं तो सुनकर भई बाबरी। फूल न अंग समात गातरी।।
दोहा – हों कब दर्शन ग्रन्थ के, मन में उठे विचार।
हे प्रभु तुमसे है विनय, करो इसे साकार।। 4 ।।
एक दिवस रामू घर आये। संध्या समय मनहि हरषाये।।
भौजी खबर सुनो अभिराम। मंदिर पर आये श्री राम।।
समझाओ क्या कोई आया। उत्तर मिला गुरू की माया।।
सुनकर समझ गई सब रतना। पूरन हुआ आज वह सपना।।
सभी ग्राम है जुड़ा पहां पर। तुमको खबर दई मै आकर।।
आठ साधु हैं संग में उनके। भोजन आज होयंगें घर के।।
गई थकान मन हरषित भारी। लगी करन रसोई तयारी।।
सामग्री भोजन की आई। पता नहीं किसने पहुंचाई।।
रामू कह ढिंग उनके जाऊं। श्रवण करूं कथामृत पाऊं।।
व्यारू समय उन्हैं ले आऊं। तुमसे उनकी भैंट कराऊं।।
दोहा – मंजन कर पावन हुई, अरु आराधे ईश।
करन रसोई जुट गई, सभी मसाले पीस।। 5 ।।
गणपति की मां को बुलवाया। आकर उसने हाथ बटाया।।
रामू लेन गये गोस्वामी। संग संत थे उनके नामी।।
स्वागत करके चरण धुवाये। आसन पर उनको बैठाये।।
रतना ने जल परसन कीना। किया आचमन आसन लीना।।
थाली परस सामने लाई। एक एक कर भोग लगाई।।
खुदहि परोसन काज संवारी। संतन तृप्त किये सुखकारी।।
अंत दक्षिणा करन गहा्ई। स्वामी को दीनी सिर नाई।।
चीख छूट गई अश्रु प्रवाहू। बोले सब प्रभु करें निबाहू।।
दोहा – अब दरसन कब होयंगे, निसि दिन रहूं उदास।।
रामायन प्रति कब मिले, एक मात्र मम आस।। 6 ।।
प्रात काल ही चल दिये, श्री यमुना के पार।
पहुंचावन आये सभी, करते जै जै कार।। 7 ।।