लघु कथा
होली है कन्हाई
होली का रंग चढ़कर
बोल रहा है।फागुनी हवा ने जैसे पूरी प्रकृति को मस्ती में झूमने और डोलने को मजबूर
कर दिया हो। आसपास अमलतास, सेमल और गुलमोहर के पेड़ों में फूल खिले हैं।पास के पलाश
के पेड़ में दहकते से लाल फूल खिले हैं और जैसे प्रकृति ने खुद मानव को इन सुर्ख और
विविध चटख रंगों की भेंट दी हो।
कृष्ण मथुरा जाकर राजकाज
में व्यस्त हो गए हैं। वृंदावन से चलते समय गोपियों ने आशंका प्रकट की थी कि कृष्ण
मथुरा जाकर उन्हें भूल तो नहीं जाएंगे।कृष्ण ने उन्हें आश्वस्त किया था कि गोपियां
इतनी चिंतित क्यों हो रही हैं?वे सदा के लिए तो वृंदावन छोड़कर मथुरा जा नहीं रहे हैं।
मथुरा में भी तो हर घड़ी उनके ह्रदय में गोकुल,नंदगांव और वृंदावन की स्मृतियां रहेंगी।
वृंदावन के वन क्षेत्र
में विदा के समय कृष्ण ने राधा से कहा था- तुम और मैं एक दूसरे से अलग नहीं हैं राधिके।
दूरी तो वहां होती है,जहां दो पृथक अस्तित्व हों। हम दोनों तो एक ही हैं।इस पर राधा
जी ने कहा था,"यह सब मन बहलाने की बातें हैं कान्हा! अगर हम एक हैं साथ - साथ
हैं तो तुम्हारे दूर जाने से मुझे इतनी पीड़ा क्यों हो रही है और अब आगे मेरा जीवन
कैसे व्यतीत होगा,इसको लेकर मेरा मन आशंकित क्यों है?"
मुस्कुराते हुए कृष्ण ने कहा-हमारी यह दूरी भले ही तुम्हें कई कोस
की दिखाई दे रही है लेकिन तुम विश्वास रखो राधिके, जब भी तुम मुझे पुकारोगी, मैं तुम्हारे
सम्मुख प्रस्तुत हो जाया करूंगा।
अपनी बड़ी - बड़ी आंखों में छलक आईं आंसुओं की कुछ बूंदों को छिपाने
का यत्न करती हुईं राधा जी ने कहा: मुझे तुम्हारी इस बात पर कैसे विश्वास हो कान्हा?
कृष्ण:अच्छा तो तुम मेरी परीक्षा लेना चाहती हो राधिके?तो एक काम
करो।
राधा: वह क्या?
कृष्ण: अपनी आंखें बंद करो।
राधा जी ने कुछ देर के लिए अपनी पलकें बंद कीं। लेकिन यह क्या? आंखें
बंद होने पर भी उन्हें कृष्ण दिखाई दे रहे हैं।उसी चिर परिचित मुस्कान के साथ बांसुरी
को होठों पर लगाए हुए कान्हा। जैसे ब्रह्मांड का सारा सौंदर्य कृष्ण के मुखमंडल से
ही अपनी आभा प्राप्त कर रहा हो। जैसे सारी सृष्टि कृष्ण की मुस्कान से ही चैतन्य हो।
आज होली का
दिन है और कृष्ण से इस अंतिम भेंट का स्मरण कर सचमुच राधा की आंखों में आंसू आ गए।
यह कान्हा के मथुरा प्रस्थान के बाद सूनी हो गई वृंदावन की पहली होली है।राधा जी की
आंखें बार-बार द्वार की ओर देख रही हैं। घर से बाहर गोप - गोपिकाओं के होली खेलने की
आवाजें आ रही हैं। फाग गीतों की मिठास से सारा वातावरण लहका हुआ है। थोड़ी देर पहले
राधा जी ने झरोखे से बाहर का दृश्य देखा और उन्हें लगा जैसे होली खेलने वाले इस छोटे
से समूह में कृष्ण भी शामिल हैं। गोप -गोपिकाएं एक दूसरे को रंग गुलाल लगा रहे हैं
और गली में भी रंग बिखरा हुआ है लेकिन कान्हा सच में वहां नहीं हैं।
वापस आकर राधा जी
पलाश के पेड़ के नीचे बैठ गईं।पलाश के फूलों को वन की आग कहा जाता है। राधा जी ने इस
बार भी प्रमुख रूप से पलाश के इन फूलों को भिगोकर होली खेलने का नारंगी रंग बनाया है।
पलाश के फूल अभी भी पेड़ पर हैं और राधा जी के हृदय को ये सचमुच दहका रहे हैं।
राधा जी ने पलाश की ओर अपनी अंगुली दिखाते हुए कहा: ओ पलाश जी! सचमुच
तुम्हारा काम कहीं मेरे हृदय को दहकते अंगारे की तरह दग्ध करना तो नहीं? मैंने तो तुम्हें
कल रात से इसलिए भिगोया है कि तुम सुबह तक शीतल हो जाओ और कान्हा के गाल पर अपने प्रेम
का गहरा प्रभाव छोड़ जाओ। अब जब कान्हा आएंगे ना तो मैं उन पर तुम्हारे रंग का प्रयोग
नहीं करूंगी, जाओ।
अब राधा जी का ध्यान
थाल की ओर गया जहां उन्होंने गुलमोहर के हरे पत्तों को सुखाने के बाद पीसकर हरे रंग
के गुलाल का रूप दे दिया है।राधा जी ने इसी तरह अमलतास और गेंदे से पीला रंग भी बना
कर रखा हुआ है।
इन्हीं सब बातों
के चिंतन मनन में समय बीतने लगा। बाहर से राधा
जी को होली खेलने के लिए पुकारा गया लेकिन उन्होंने एक बार फिर मना कर दिया।राधा जी
रूआंसा हो गईं।सोचने लगीं, तो यह मेरा भ्रम था कि अपने वचन के अनुसार कृष्ण मथुरा से
मेरे पुकारने पर तत्काल मुझसे मिलने पहुंच जाया करेंगे। ऐसा सोचते - सोचते राधा जी
की आंख लग गई। थोड़ी ही देर बाद अपने गालों पर किसी की हथेलियों के स्पर्श से राधा
जी की आंख खुली। सामने कृष्ण को पाकर राधा भाव विभोर हो गईं। कृष्ण राधा जी के गालों
पर अबीर लगाते हुए अपनी उसी नटखट मुद्रा में कह रहे थे- होली है राधिके! होली की बधाई
हो। राधा जी ने क्षणभर को सोचा कि मथुरा गए हुए कान्हा अचानक कैसे यहां पहुंच गए? फिर
भी उन्हें पूरा विश्वास था कि कृष्ण आएंगे और इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने अपने दोनों
हाथों में अबीर भरा और कृष्ण के गालों पर मलते हुए मुस्कुराकर कहा-होली है कन्हाई!
सचमुच राधा जी सपना नहीं देख रही हैं।ये कृष्ण ही हैं। राधा जी की आंखों में आंसू की
कुछ बूंदें छलक आईं जिन्हें अपने पीत उत्तरीय की कोर से कृष्ण जी ने पोंछ लिया और अपने
हृदय से लगा लिया।
डॉ. योगेंद्र
कुमार पांडेय