नमो अरिहंता - भाग 20 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नमो अरिहंता - भाग 20

(20)

अंजलि उर्फ मैनासुंदरी

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मदरइनलॉ यानी सासु-माँ की आज्ञा को सिर पर धर कर आज्ञाकारी दामाद श्री माणिकचंद्र काला सपत्नीक गोहद से गंगापुरसिटी और वहाँ से पिताश्री मदनलालजी काला की अनुमति लेकर वाया दिल्ली, मुरादाबाद होते हुए रामनगर पहुँच गया। जो कि उत्तरप्रदेश जिला बरेली में स्थित होकर अहिच्छत्र कहलाता है क्योंकि उपसर्ग की अवस्था में एक-सौ फण का छत्र होने के कारण धरणेंद्र ने इस स्थान का नाम अहिच्छत्र प्रकट किया था।

अब अव्वल तो यह स्थान एक महाभारतकालीन किला है। यहाँ विस्तृत भू-भाग पर यत्र-तत्र तमाम प्राचीन खंडहर मिलते हैं। यहाँ कई शिलालेख व जैन मूर्तियाँ भी मिली हैं। और पार्श्व के काल से ही यह क्षेत्र जैन धर्म का प्रमुख केंद्र रहा है। उन्होंने इसी जगह अपने प्रथम धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था। बाद में यहाँ जैन राजाओं का दीर्घकाल तक राज्य रहा और राजा वसुपाल ने तो यहाँ सहस्र कूट जिन मंदिर का निर्माण ही करा डाला। कसौटी के पाषाण की भगवान् पार्श्वनाथ की नौ हाथ ऊँची लेपदार प्रतिमा विराजमान कराई थी।

कहा जाता है कि यहीं पर भगवान् के फण पर पात्रके शरी नामक ब्राह्मण को अपनी शंका का उत्तर लिखा हुआ मिला। जिससे उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। और वे प्रसिद्ध आचार्य पात्रके शरी के रूप में विख्यात हुए।

अहिच्छत्र में भगवान् पार्श्वनाथ की मूलनायक प्रतिमा है, उसे तिखाल वाले बाबा भी कहा जाता है। बाबा का बड़ा चमत्कार है। इस मूर्ति की बड़ी मान्यता है। दूर-दूर से अनेक लोग मनौती मनाने आते हैं।

कि-रामनगर गाँव में एक विशाल जैन मंदिर है। इसमें 6 वेदियों में भगवान् विराजमान हैं। यहाँ अनेक धर्मशालाएँ भी हैं। प्रति वर्ष चैत्र कृष्ण पक्ष अष्टमी से लेकर तेरस तक यहाँ पर मेला भरता है और आषाढ़ी अष्टह्निका पर्व में यात्रीगण आकर श्री सिद्धचक्र विधान करते हैं। सो यह उत्सव भी लघु मेले का रूप धारण कर लेता है।...

किंतु माणिक कोटी और अंजलि यहाँ जून में आए हैं। इस वक्त दिल्ली का टेम्परेचर तो खैर, 48-49 के आसपास है बारिश के आसार हैं नहीं अभी। पर यहाँ उत्तराखंड के प्रभाव से दिल्ली के मुकाबले तापक्रम कम है। फिर भी गर्मी अच्छी है। स्वीटी अखल-बखल हो रही है। धर्मशालाओं में कूलर, ए.सी. कहाँ? आग उगलते पंखे हैं। तिस पर बिजली हमेशा नहीं रहती। अंजलि का जी ऊबता है गर्मी से। लेकिन सवाल पति की रोग-मुक्ति का है, सो वे सुबह से निकलते हैं दिए और दूध के दौने लेकर, अष्टद्रव्य लेकर और सासु-माँ की आज्ञानुसार सबसे पहले उत्तरमिधाना बावड़ी के सड़ते जल में स्नान कर, उस अतिशय-युक्त कुएँ को प्रणाम कर प्रातःकालीन सुहावनी जलवायु का आनंद उठाते हुए आम्रवन के मध्य खुले मैदान में सड़क से 15 फीट की ऊँचाई पर विचरते हुए अंततः मंदिरजी में प्रवेश करते हैं। जहाँ गर्भ गृह से बायीं ओेर पृथक् वेदी है। यहाँ तीन सुंदर हंसों एवं लाल कमल की वेदी के ऊपर महावीर स्वामी की छह फीट ऊँची अत्यंत मनमोहक मनोज्ञ प्रतिमा पद्मासन में विराजमान है। इसके बाद दूसरी वेदी में मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ की अत्यंत मनोहर हरित पन्नामय सप्तफणी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है और जिसका अनुमानित निर्माणकाल 10वीं लगायत 11वीं शताब्दी का है।

माणिक और अंजलि अत्यंत हर्षित हैं। अष्टद्रव्य से मनोयोग पूर्वक पूजा करते हैं। प्रतिमा के आगे चरण पादुका हैं, जिसका लेख संयुक्त स्वर में पढ़ते हैं वे-

‘श्री मूल संघेनेद्य सम्बाये बलात्कारगणे कुंदकुंदाचार्या वये अहिच्छत्रनगरे श्री पार्श्वनाथजिन चरणौ प्रतिष्ठावतिः श्रीरस्तु।’

बहुत भीड़ नहीं है अभी। दस-पंद्रह लोग हैं गिने-चुने। आते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं लोग। किसी भी वेदी पर इतने से ज्यादा इकट्ठे नहीं हो पा रहे। मेला नहीं है, न! कोई बताता है- ‘यह वेदी तिखाल वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध है तिखाल के संबंध में किंवदंती प्रचलित है कि प्राचीनकाल में जब इस मंदिर का जीर्णोद्धार हो रहा था, उन दिनों रात को मंदिर के माली एवं पुजारी ने मंदिरजी के अंदर खट्खट् की आवाज सुनी तो ताला खोल कर देखा-एक दीवार बनी हुई है जो संध्या तक नहीं बनी थी। और उसमें एक तिखाल (आला) भी बना हुआ है! एवं उसमें यह मूर्ति विराजमान थी।’

तब रोमांचित-सी अंजलि बोली, ‘अवश्य ही यह किन्हीं अदृश्य हाथों द्वारा रची हुई है।’

उसके मन में यह विश्वास पुख्ता हो गया कि इस अतिशय युक्त तिखाल वाले बाबा की आराधना से समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं तथा समस्त संकट कट जाते हैं। तब माणिक ने उस वेदी के शिलालेख को पढ़ा-

‘यही वह प्राचीन-पवित्र भूमि है जहाँ पर भगवान् पार्श्वनाथ ने दुर्द्धर अखंड तप किया। दशभव के बैरी कमठ ने प्रचंड आंधी, ओले, शोले की वर्षा कर घोर उपसर्ग किया। इसी अतिशय स्थल पर धरणेंद्र और पद्मावती ने फण-मंडप रचकर उपसर्ग निवारण किया। इसी पुण्यभूमि पर पार्श्वनाथ ने केवलज्ञान पाकर अरिहंत पद प्राप्त किया। इसी पुण्यभूमि की प्राचीनकाल से तिखाल वाले बाबा के नाम से पूजा होती है। इसी तीर्थ पर लाखों भक्तों ने पुण्य लाभ लेकर अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण की हैं। यहीं अनेकों यात्रियों ने पश्चाताप करके अपने को सुमार्ग पर लगाया है।’

यह वेदी उसी प्राचीन दीवार पर प्रतिष्ठित है जिसके विषय में किंवदंती है कि यह देवों द्वारा निर्मित है। जीर्णोद्धार के समय जो प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं उन्हें देखने वालों (जैन समाज के पुरातत्वविदों) का स्पष्ट मत है कि यही भगवान् पार्श्वनाथ की तपश्चर्या व केवलज्ञान भूमि है। यहाँ यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि प्रमुख मंदिर में एक बहुत बड़ा सर्प अदृश्य रूप से आता है और भगवान् पार्श्वनाथ की प्रदक्षिणा लगाकर बिना कोई हानि पहुँचाए चुपचाप चला जाता है।

यह सब जानने के बाद श्रद्धा से अभिभूत माणिक और अंजलि ने फिर तीसरी वेदी में छह फीट ऊँची श्यामवर्णी ग्यारह हजार फण युक्त भगवान् पार्श्वनाथ की बहुत ही मनोज्ञ आकर्षक पद्मासन प्रतिमा देखी और कृतार्थ हो गये।

सामने ही एक अत्यंत आकर्षक समवशरण बना हुआ था। जिसके बीच में ऊपर चार मनोज्ञ प्रतिमाएँ आकर्षक अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान थीं।

फिर आगे चलकर उन्होंने पाँचवी वेदी में भगवान् पार्श्वनाथ की श्यामवर्णी ही 11 फणी ही, किंतु इस बार 7 फुटी प्रतिमा देखी। प्रफुल्लित प्राणों से अष्टांग प्रणाम किए उन्होंने। आगे बढ़े और छठी वेदी में हलके कत्थई रंग की शिलापट्ट पर उत्कीर्ण 3 विशेष प्रतिमाएँ देखीं। ये भगवान् पार्श्व की शत्रुओं पर विजय प्राप्ति को दर्शाती हैं। उनके दायीं ओर यक्ष और बायीं ओर यक्षिणी हैं। निचले भाग में दोनों ओर इंद्र और इंद्राणी चँवर लिए खड़े हैं।

अपने पुरातात्विक ज्ञान को बघारती है अंजलि, ‘ये मूर्तियाँ तीसरी या चौथी या पाँचवी शती की प्रतीत होती हैं।’

किंतु उनमें जो कला की अभिव्यंजना हुई है उससे गदगद है माणिक।

फिर दोनों आगे बढ़कर सातवीं वेदी में क्या देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की सप्त फणालंकृत श्यामवर्ण प्रतिमा है! यह प्रतिमा देखते ही संगमरमर की प्रतीति होती है। इस मूर्ति के नीचे तीर्थंकरों की छोटी-छोटी रूप प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक के वक्ष-स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है। उनके कान कंधों को छू रहे हैं। ऊपर को फणावली सीधी है।

दायीं ओर पार्श्व की संगमरमर की खड्गासन प्रतिमा और बायीं ओर पार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्ति है। जिसके शीर्ष पर पंचमुखी फण है। यहीं पर नीचे छह अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं तथा एक सिद्ध भगवान् की प्रतिमा भी विराजमान है।

अंजलि की स्वीटी ठिन-ठिन करने लगी है। थक गई है। बोर हो गई है। भूख लग गई। बच्ची है। सारी बातें हैं! पता नहीं कौन-सी बात है? माणिक ‘प्च्चु-प्च्चु’ कर उठता है। अंजलि को चेताता है कि बच्ची को मनाए! पर वह दतचित्त एक पंडित का वचन सुन रही है, जो अपने यजमान सेठ परिवार को बायीं ओर की पद्मासन प्रतिमा के बारे में बता रहा है-

‘सन् 1857 के गदर के समय जब यवनों ने यहाँ कुछ गड़बड़ी की तो मंदिर का माली इस प्रतिमा को कुएँ में ले जाकर तीन दिन व तीन रात वहीं बैठा रहा कुएँ के अंदर! और जब खतरा टल गया तो प्रतिमा को लेकर ऊपर आया। तब से उस कुएँ में विशेष अतिशय है। उसके चारों कोनों में चार प्रकार का पानी निकलता है। जो पीने में अत्यंत मीठा और स्वादिष्ट होकर अनेक बीमारियों को दूर करता है।कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ तक ठीक हो गई हैं।’

और अंजलि को माणिक के गुप्तांग का कोढ़ ठीक होता दीख उठता है।

फिर वे लोग स्वीटी को बिस्किट और दूध से चुप कराकर देवी पद्मावती के मंदिर में आ जाते हैं और उनके चरणों में लोट-लोटकर रोग मुक्ति की प्रार्थना करते-करते रो उठते हैं।

भरी दुपहर में तपती भूमि पर, आग उगलते आकाश के नीचे चलते हुए कमेटी के दफ्तर में पहुँचते हैं। दान-धर्म के बारे में पता करते हैं। एक शीट थमा दी जाती है- विशेष योजनाएँ-

क्षेत्र पर एक विशाल 11 शिखर का तीस-चौबीसी मंदिर निर्माणाधीन है और यह मंदिर विश्व में एक ही होगा। इस मंदिर में पाँच ऐरावत व पाँच भरत, कुल दस क्षेत्रों की भूत, वर्तमान व भविष्य की 24 तीर्थंकरों की 72-72 मूर्तियाँ, कुल 720 मूर्तियाँ स्थापित होनी हैं।

चार्ट

ग्यारह शिखरप्रति शिखर-1 लाख 1 रुपये

720 मूर्तियाँप्रति मूर्ति-50 हजार 1 रुपये

720 कमल पंखुड़िप्रति पंखुड़ि-5 हजार 1 रुपये

शिलाप्रति शिला-1 हजार 1 रुपये

धर्मशाला के कमरे (शौचालय, स्नानागार,प्रति कमरा-81 हजार 1 रुपये

रसोई युक्त)

मंदिर के अंदर वेदी की छत

शीशे का कामप्रति वर्गफीट-5 सौ 1 रुपये

एकसौ फीट फर्शप्रति वर्गफीट-3 हजार 1 रुपये

दुकान का निर्माणप्रति दुकान-31 हजार 1 रुपये

एक कमरे का बरामदा21 हजार 1 रुपये

भक्ताम्बर स्तोत्र का एक पत्थर10 हजार 1 रुपये

स्थायी कोष पूजन-एक दिन1 हजार 1 रुपये

स्थायी कोष आरती-एक दिन501 रुपये

छत का पंखाप्रति पंखा-1100 रुपये

धर्मशाला की आलमारीप्रत्येक अलमारी-1001 रुपये

माणिक चंद ने अपनी चैक बुक निकालकर चैक काटते हुए मैनेजर से पूछा, ‘कितना रुपया भर दँ?’

मैनेजर उसकी आरती करने लगा, ‘भगवान् ने आपको लक्ष्मी दी है- रिद्धि-सिद्धि दी है, जो भर देंगे, थोड़ा होगा!’

माणिक ने एक लाख रुपया भर दिया और चैक मैनेजर को पकड़ा दिया।

फिर वे लोग लौट आए।

अतिशय युक्त कुएँ से जो जल भर लाए थे, उसे अंजलि ने फ्रिज में रख दिया था।

अब उसे रोज पीता है माणिक और गुप्तांग पर छिड़कता है।

रात को एकांत में देखते हैं दोनों बिजली के प्रकाश में। कहती है अंजलि, ‘कुछ-कुछ फर्क तो पड़ा है!’

और रोज यही कहती है।...

और मम्मी को भी फोन पर कह देती है यही। सब लोग खुश होते हैं। श्रद्धा और गहरा जाती है।...

फिर एक दिन अंजलि का भ्रम मिट जाता है। कुष्ठ जस का तस है! नहीं-और भी फैल रहा है। अंग गल रहा है!

माणिक उदास है।

यह खबर भी टेलीफोन लाइन से गोहद प्रसारित कर दी जाती है।

तब सेठ अमोलक चंद उर्फ़ पप्पू पहलवान भी कहाँ खुश हैं? उन्होंने तो जब से सुना है कि दामाद कोढ़ी है, चैन नहीं पड़ता। रात में अक्सर गिला करते हैं सेठानी से, ‘श्रीपाल कोटी और मैना सुंदरी की कहानी हमने भी दुहरा ली अनजाने में। अनजाने में ही पाप कर्म का बंध कर लिया। अपनी ही बेटी को नर्क में झोंक दिया।’

‘सब लिखा-बदा होता है’, कहती हैं सेठानी, ‘पूर्व भव के कर्म दंड हैं ये माणिक के। किसी साधु का तिरस्कार किया होगा। अंजलि ने भी सहयोग दिया होगा। हमने भी उपस्थित रहकर हस्तक्षेप न किया होगा।’

लंबी-लंबी उसासें लेते हैं दोनों।

थोड़ी देर सन्नाटा खिंचा रहता है। डूब रहे हैं सब अपने-अपने में। घबराहट-सी होती है चंद क्षणों में। बक-झक-सी करती हैं सेठानी-मैनासुंदरी को तो उसकी हेंकड़ी पर पोहपाल नरेश ने सबक सिखाने के लिए श्रीपाल कोढ़ी से बाँध दिया था पर हमने ऐसा कुछ कहाँ किया?’

‘हाँ-और क्या,’ सेठ भी याद करता है किस्सा-‘उसे तो अपने पर घमंड था, उसने तो कह दिया था राजा से कि मैं तो खाती हूँ अपने भाग का। सो राजा ने अहंभाव वश जंगल में कुटिया डाल कर रह रहे श्रीपाल कोटी से उसका ब्याह कर दिया। फिर देखो, बेटी-चो.. बाप की आत्मा देखो, वा ने कही कि बेटी भूल भई तुम कैसे जाकर रहोगी जंगल में कोढ़ी के संग! नहीं-जे ठीक नहीं। तुम कितनी सुंदर-सुकुमार राजन की बेटी और कहाँ जंगल और कोढ़ी पति!’

सेठ रुआँसा हो आया।

तब सेठानी कहन लगीं, ‘फिर मानी कहाँ बाप की मैना ने! अपने धरम पे डटि गई। नईं पिता, तुम जाउ अपंओ राज्य करो। हमाए भाग जो बदो! अपंए पूर्व भव के फंद काटने हैं मोइ तो!’

सेठानी चुप्प।

‘फिर का भओ? कैसें भओ, कहिओ नेक!’ सेठ ने भड़-भड़ाकर पूछा।

तब आगे कहा सेठानी ने-‘बेटी कोढ़ धोती थीं और सेवा करती थीं श्रीपाल कोटी की। एक दिन साधु निकले वहाँ से। सो बेटी ने उनकी प्रदक्षिणा देकर पूछा, हे-मुनि महाराजजी, मेरे पति की रोग मुक्ति का उपाय कहें तब मैना की भक्ति देखकर महाराजजी ने कहा कि अष्टह्निका पर्व में श्री सिद्धचक्र विधान का पाठ कराओ। आठवें दिन सुवर्ण-सी देह हो जाएगी।’

सेठानी शांत हुईं तो सेठ बोला, ‘और भगवान् की कृपा से आठ दिन में ही श्रीपाल राजा का शरीर कोढ़ मुक्त हो गया था। उनकी देह सोने-सी दमक उठी थी।’

फिर जैसे कुछ याद करता हुआ बोला, ‘काए, अबकी जई असाढ़ में सोनागिरि पे सिद्धचक्र को पाठ काए नईं कराइ लेउ?’

सुनते ही सेठानी की आँखें चमक उठीं। तय हो गया कि कल ही अंजलि को फोन मिलाया जाएगा।

और तब शेष रात्रि में वे लोग निश्चिंत होकर सो रहे।...

(क्रमशः)