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अनायास
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आनंद बिहारी का हेडक्वार्टर अब गोहद हो गया था।
छूट गया था वह महानगर जो लश्कर-ग्वालियर-मुरार तीनों शहरों से मिलकर बनता है! वह लश्कर जो कि राजा मान सिंह और उनके बाद में ग्वालियर नरेशों की सैनिक छावनी (लश्कर) रहा। जिस ग्वालियर शहर को माधौराव के पिता महादजी सिंधिया ने बसाया! वह छतरियों का लश्कर-ग्वालियर जो किला, हाईकोर्ट, फूलबाग, महाराज बाड़ा, जीवाजी यूनिवर्सिटी, कटोराताल, जे.ए. हॉस्पिटल, मेडीकल कॉलेज, फिजीकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि, छत्रपति शिवाजी और वीर सावरकर के स्टेच्यू तथा तानसेन के मकबरे के नाम से जाना जाता है। कि जहाँ अचलेश्वर महादेव हैं, और करौली वाली माता के भव्य मंदिर में ही कुँवर महाराज की समाधि है। छतरियों वाली उस प्यारी पुण्य जन्मभूमि को छोड़कर आये थे आनंद बिहारी, जहाँ जीवाजी चौक पर खड़गासन में जीवाजीराव और जयेन्द्र गंज चौक पर काले चिलचिलाते घोड़े पर काले चिलचिलाते माधौराव आज भी स्टेशन की तरफ सरपट्टा मारकर चले जाने को तैयार खड़े हैं। और उसी स्तंभ पर लिखा है कालिदास का यह श्लोक-
‘प्रजानां विनियाधानाद्रक्षणादपि।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्म हेतवः।।
और सिंधिया के दगा दे जाने पर क्रोधित महारानी किले को लूटकर भागती हैं, तो घोड़ा खेड़ापति हनुमान के आगे नाले में गिर जाता है। वह घोड़ा स्टेशन रोड पर आज भी अपने सिर्फ पिछले दो पैरों से खड़ा है, अगले दोनों पैर हवा में लहराता उड़ने को उद्धत नीलाकाश में! काला चिलचिलाता महान् ऐश्वर्यशाली घोड़ा। जिसकी पीठ पर सवार एक हाथ में तलवार और दूसरे में ढाल लिये तथा पीठ पर पोटली में पुत्र को बाँधे काली चिलचिलाती महातेजस्वी वीरांगना झाँसी की रानी आज भी उद्यत हैं युद्ध के लिये!.
पर आनंद की किस्मत उन्हें गोहद ले आई थी।
यह स्थान एक कस्बाई नगर था, जो लश्कर शहर से कोई 50-52 किलोमीटर दूर भिंड जिले की तहसील के रूप में आज भी आबाद है। उस काल में इस नगर के रहवासियों का मुख्य धंधा खेती-किसानी, दुकानदारी और व्यापार था। यों तो नगर में किला, डैम, नदी, नहर, सब कुछ था पर लश्कर में रह चुके , एम.एल.बी. कॉलेज में पढ़ चुके, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नगर प्रचारक आनंद बिहारी का जी यहाँ सहज में न लगता! सेठ का एक राइस मिल था जो नदी पार के मैदानी इलाके में 100 गुना 100 वर्ग फीट क्षेत्र में एक विशाल टीनशेड के रूप में बना हुआ था। गोदाम टाइप के इस कारखाने के एक बड़े भाग में धान ही धान भरा रहता और दूसरे भाग में दो चक्कियाँ थीं। चक्कियाँ दिन-रात इस धान से चावल और भूसी निकालती रहतीं।
इस गोदामनुमा कारखाने से कुछ हटकर तीन-चार कमरों की एक ऑफिसनुमा इमारत थी जिसके एक कमरे में तिजोरीनुमा बही-खातों की आलमारी, एक सीलिंग पेन, फर्श पर गद्दों के ऊपर बिछी सफेदी, दीवारों के सहारे चार-छह गावतकिये और सफेदी पर बिखरा स्वदेश नामक अखबार होता। एक दूसरी सादा आलमारी में काले रंग का फोन और दरवाजे से हटकर सफेदी पर एक डेस्क रखी होती! यह डेस्क मुनीम की डेस्क कहलाती। कि इसी डेस्क से सारा व्यापार संचालित होता, जो सेठ के अतिरिक्त लगभग 50 मजदूरों, हफ्ते में आने-जाने वाले कम-से-कम चार ट्रकों और बीसियों किसानों-व्यापारियों से संबंधित होता।
उन दिनों इस डेस्क पर मोटे प्रेम का चश्मा तथा सफेद धोती और नीली कमीज धारण करने वाला एक कृष्णवर्णी बुजुर्ग बैठा करता था जो आनंद के आने से पहले मुनीम और अब हेडमुनीम हो गया था। उसके कलमदान में दो कलमें, (पुराने ज़माने के होल्डर पेन जो नंगे सिर और बड़े निब तथा बिना जीभी वाले होते) रखी रहतीं। ये कलमें कलमदान के ही दो खानों में रखी अलग-अलग रंगों की स्याही में डुबोकर बही-खातों पर चलाई जाती थीं। हेडमुनीम अधिकतर काले रंग की स्याही का इस्तेमाल करता। कि वह बही पर अक्षर बनाने से पहले लाइन खींचता और बड़े जतन से हाथ साधकर पुराने छापे-सी इबारत लिखता चला जाता। सिर्फ अंक ही देवनागरी के नहीं लिखता बल्कि पौवा, अद्दा, पौना, ढइया आदि पुराने गणित का भी प्रयोग करता।
आनंद को अपना बॉलपेन, संवैधानिक अंक, अंकगणित और बिना लाइन की लिखावट व्यर्थ प्रतीत होती। वे समझ गये थे कि अब उन्हें मुनीमी-मुड़िया सीखनी पड़ेगी, नहीं तो खैर नहीं नौकरी की!
औैर तिजौरी पर लिखे ‘महावीराय नमः’ को देखकर तो वे और सजग हो गये थे कि अब उन्हें ‘वीर हनुमान’ की जगह ‘भगवान् महावीर’ से ‘अर्थ’ करना होगा।
मामाजी समझाते, ‘अरे-अरे तो उसमें क्या? हिंदू और जैन तो एक ही धर्म हैं। सेठ बहुत अच्छा आदमी है। मन लगाकर होशियारी से करोगे तो सरकारी डिपार्ट से ज्यादा पड़ने लगेगा। अभी देखो, चार-छह महीने में दीवाली आ रही है, पाँच का नोट बढ़ जायेगा। पोशाक मिलेगी और ‘इनाम’ सो अलग।’
आनंद अपनी आदत के मुताबिक चार-साढे़ चार बजे उठ जाते। चारपाई पर से ही झुककर हाथ से धरती का स्पर्श कर मस्तक से लगाते। कुछ देर वहीं बैठे-बैठे ईश-विनय और शहीदों का स्मरण करते। फिर लुंगी लगा कर तथा हाथ में लोटा लेकर शौच के लिये नदी किनारे निकल जाते। तब उन्हें पुराना जमाना रह-रहकर याद आता। वे सोचते कि कैसे-कैसे संकल्प लिये थे! कैसा जोश था! पर प्रारब्ध के आगे किसका जोर है? जीव तो नियति के हाथ का खिलौना भर है। समूचे जीवन की फिल्म पहले से बनी हुई है। सिर्फ देखना भर शेष है अपने तईं तो! और निस्पृह-से लौटकर टंकी में रखे बासी जल से स्नान करते। पूजा-पाठ करते। तब मामी द्वारा तैयार की गई चाय के साथ रात की बची हुई एक-दो रोटी खाकर राइस मिल पर निकल जाते। कार्यालय खुलने से पहले मिल का निरीक्षण कर उसकी आवक-जावक का लेखा-जोखा उन्हें हेडमुनीम को देना पड़ता था। रात में मिल पर आये-गये माल का हिसाब वहाँ तैनात एक विश्वास पात्र चौकीदार रखता था। हालाँकि माल की आवक और निकासी का पूर्व लेखा हेडमुनीम शाम को ही कच्ची बही में टांक लेता, फिर भी किसी धोखाधड़ी से बचने के लिये यह दोहरी व्यवस्था थी।
यह हेडमुनीम पुराना मिडिल था। खूब होशियार और अनुभवी। किंतु वह आनंद की डिग्री के कारण हीनता का शिकार होकर चिढ़ा-चिढ़ा रहता। इसीलिये वह आनंद बिहारी को दिन में कभी मंडी, कभी मिल और कभी सेठजी के घर दौड़ाया करता। बेचारे आनंद के पास अदद एक साइकिल भी न थी। सो दिन भर की भाग-दौड़ में वे बुरी तरह पस्त पड़ जाते।
सेठ का घर नगर की नवीन जैन बस्ती महावीर चौक में था। घर क्या था, कोठी थी अच्छी-खासी। नीचे दो शटर दुकानों के । उसके बगल में जीना। भूतल की ये दुकानें मकान की पूरी लंबाई-चौड़ाई में फैली होकर गोदाम के रूप में इस्तेमाल हो रही थीं। जिनमें चावलों की बोरियाँ अँटी पड़ी होतीं। फसल पर सेठ कभी-कभी सरसों भी भर लेता। दायें बाजू का शटर खोलते ही एक ओर बड़ा-सा स्थायी काँटा और दूसरी ओर गद्दी थी। और बायीं बाजू का शटर गोदाम में लोडेड ट्रकों के प्रवेश के लिये था। यहाँ का हिसाब-किताब भी हेडमुनीम के पास ही रहता। वह शाम के समय और देर रात तक यहीं बैठता था। और सुबह भी एक घंटा नियमित आकर बैठ जाता! यहाँ भी उसकी गद्दी के ऊपर सीलिंग पेन और अलमारी में एक काला फोन रखा रहता, जिसका एक्सटेंशन ऊपर की मंजिल में भी था। ऊपर की मंजिल तक जीने से जाया जाता। ऊपर दोनों दुकानों की चौड़ाई और उतनी ही लंबाई का एक विशाल चौकोर हॉल था, जो दुकानों के आगे बने सायबान के ऊपर तक फैला था। इसी गोख की वजह से दो मंजिला कोठी 5 मंजिला प्रतीत होती। कोठी के आगे एक विशाल डांबरीकृत मैदान, जो कि महावीर चौक कहलाता, में आबाद यह नीले रंग की कोठी मुख्य सड़क से ही नजर आने लगती। कोठी के नाम पर ही सेठ को नीली कोठी वाला सेठ कहा जाता कि जिसकी तीन लड़कियाँ थीं, जिन का कोई सगा भाई नहीं था। सेठ व्यवसाय में और सेठानी व्रत-त्योहार में निमग्न रहतीं। सेठ बढ़िया धोती कुरता और बढ़िया जूता पहनता। उसका वर्ण उजला था। उसके गले में सोने की भारी चेन, बायें और दायें दोनों हाथों की उँगलियों में रत्नजड़ित क्रमशः दो और तीन स्वर्ण मुद्रिकायें होतीं! कहते हैं वह पढ़ा-लिखा कम था, पर दिमाग का बहुत तेज और मेहनती आदमी था कि जिसकी तोंद नहीं निकली थी और जो छरहरे बदन का एक आकर्षक व्यक्ति प्रतीत होता। वह मितभाषी और हँसमुख तो था ही, मजदूरों की दृष्टि में दयालु और दानवीर भी था। कि जिसने महावीर चौक में स्थित एक जैनालय में अकेले दम पर एक लाख रुपये लगाये थे।
आनंद ने देखा था महावीर चौक स्थित वह जैन मंदिर-जिसमें विशाल सभागार के अतिरिक्त आठ-दस धर्मशालानुमा कमरे, वाचनालय, लेट्रीन-बाथरूम और सिंहासन पर चाँदी, अष्टधातु और संगमरमर की पद्मासन में विराजमान 8-10 जैन मूर्तियाँ थीं। इनमें से महावीर कौन-से हैं और दूसरे अन्य कौन-कौन? तब उन्हें पता नहीं था। इतिहास में तो केवल उन्होंने जैनियों के 24कं तीर्थंकर महावीर स्वामी के बारे में पढ़ा था।
सेठानी अपेक्षाकृत चौड़ीचकली मोटी तोंद वाली एक भारी भरकम स्त्री थी। किंतु उसकी तीनों पुत्रियाँ छरहरे बदन और उज्ज्वलवर्ण तथा सुडौल देह और आकर्षक व्यक्तित्व वाली थीं। इनमें से बड़ी का नाम अंजलि, मंझली का प्रीति और छोटी का सुधा था।
आनंद उन दिनों सूती सफेद कुर्ता-पायजामा और कभी-कभी टेरीकॉट का मूँगिया पेंट और रेड शर्ट पहना करते थे। वे अक्सर ही नीली कोठी का जीना चढ़कर गोख में पहुँच जाते और सेठ या सेठानी से व्यवसाय या घरेलू कामकाज संबंधी जुबानी आदेश ले आते और पालन कर डालते। इस तरह उन्हें हेडमुनीम, सेठ और सेठानीजी इन तीनों लोगों से आदेश और निर्देश प्राप्त होते, जिन्हें पूरा कर वे अपने महीने की पगार 75 रु. नगद प्राप्त किया करते।
आनंद मामाजी के यहाँ सोते-खाते, सो पूरा रुपया बच जाता जिसे वे महीने में एक बार घर जाकर अम्मा को दे आते। इस प्रकार जेठमास (ग्रीष्म ऋतु) उन्होंने पूरी संतुष्टि से काट लिया था। वर्षा ऋतु का आगमन हो गया था। बाँध की मोरी खोल दी गई थी, सो गड्ढों में ठहरी हुई नदी कलकल बह उठी थी।
अब तक आनंद नदी तीर पर बने छेंकुर वाले हनुमान मंदिर पर संध्या-वंदन हेतु नियमित जाने लगे थे। इस मंदिर में हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति छेंकुर के तने में लिपटी हुई खड़ी थी। मूर्ति के सिर की बराबरी से पेड़ को काट कर ऊपर ऊँचा गुंबद बना दिया गया था।
आनंद के मन में मूर्ति के इस रूप को लेकर बड़ी जिज्ञासा थी। उन दिनों वहाँ एक बूढ़ा साधु रहा करता था। लगभग 70-80 साल का। सीधे (दान) में जो सामान आ जाता, उसी से एक टाइम अपना भोजन बना लेता। बाकी समय बैठा-बैठा कंठी फेरा करता। अक्सर वह भगवा रंग का कुरता पहनता और सफेद आधी धोती को पंचे की तरह कमर में लपेटे रखता। उसे शायद कम दीखता था, इसलिये सदैव आँखें मिचमिचाया करता। वह गजब का झक्की था।
एक दिन मौका पाकर (उसका मूड देखकर) आनंद ने अपने मन की गुत्थी कही, कि तने में लिपटी मूर्ति का क्या रहस्य है, बाबा? अपनी कंठी रोककर अतीत को याद करते हुए बूढ़े ने कहा, ‘पहले गोहद और गोहदी नाम के दो गाँव हुआ करते थे। अब पूछो, इसका नाम गोहद क्यों पड़ा?’
‘क्यों पड़ा?’ जिज्ञासु आनंद ने पूछा।
‘अरे भाई! ऐसे पड़ा,’ बूढ़ा मानो झल्ला गया, ‘कि पहले कृष्ण भगवान् यहाँ तक गौएँ चराने आया करते थे। इसलिये पड़ा गौऽहद!’ उसने गोहद पर जोर देकर समझाया।
‘ठीक।’ आनंद ने मजा लेते हुए कहा और पूछा, ‘और गोहदी कैसे पड़ा?’
‘गोहदी!’ बाबा हँसा, ‘समझ लो कि वहाँ वे गौएँ गोबर-ओबर करती होंगी। भगवान् कलेऊ करते होइंगे!’
आनंद उसके इस विनोद पर मुस्कराये।...
‘लेकिन, इन दोनों गाँवों के बीच पहले जो नदी थी, वो बहुत विशाल नदी थी।
जो अब नाले-सी रहि गई है और खाली बरसात में चढ़त है!’
‘सो कैसे’ आनंद ने पूछना चाहा, तो साधु ने एकदम झटक दिया और आँखें झपकाकर बोला, ‘अरे भई ऐसे कि पहले इसपे कोई बंधा-फंदा नहीं था। जि तो हमाए आगे अबे कोई साठ साल पहले माधौराव ने बनवाओ है। जब उन ने गोहद के किले को राजा भगाइ दओ, तईं जि राज्य सिंधिया इस्टेट में आइ गओ।’
‘फिर वो हनुमानजी वाली बात, बाबा’
‘अरे-वोही तो बताइ रहे हैं,’ बूढ़ा तनिक झुँझलाया, ‘मूर्ति आई थी गोहदी में पधरिवे के लाने बीचई में नदी चढ़ि आई, तो लाने वालों ने मूर्ति बैलगाड़ी में से उतार के छेंकुरा से टिका दई। फिर जब नदी उतरि गई और घाट पे नाव लगी, तब मूर्ति उठाई गई, पर हुँ-ऊँ!’ बाबा ने आँखें बंदकर मुट्ठियाँ भींचकर गर्दन और कुहनियों से मुड़े हाथ एक लयबद्ध नकार में हिलाये, ‘मूर्ति पथरा हे गई, छेंकुरा के संग धत्ती में गड़ि गई। पसीना छूटि गये अच्छे-अच्छे ज्वानों के पर महाराज मूर्ति नहीं चिगी (खिसकी)।’
आनंद रोमांचित हो उठे। प्रमुदित मन से जै-जै कर उठे हनुमान हरी की। उनका विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि विज्ञान कितना भी आगे बढ़ जाये, ईश्वरीय सत्ता के रहस्य को न जान सकेगा। कोई झूठमूट मन गढ़ंत मूर्तियाँ होतीं ये, तो एक जगह मिलतीं, दो जगह मिलतीं ये तो सारे देश में हैं! और अनादिकाल से हैं। और बार-बार आतताइयों द्वारा नष्ट कर दिए जाने के बावजूद जहाँ की तहाँ हैं। अगर इनकी कोई सत्ता न होती, अगर ये महज मिथक होते तो कैलाश पर आज भी शिव परिवार विचरण करता दृष्टिगोचर न होता। कि अमरनाथ गुफा में स्वतः हिमखंडीय शिवलिंग बनता-विसर्जित न होता रहता। सेतुबंध रामेश्वरम् में आज भी श्रीराम द्वारा निर्मित पुल के अवशेष क्योंकर मौजूद हैं? क्यों संपूर्ण देश में महाभारत-कालीन चरित्रों के प्रमाण मिलते हैं, श्रीलंका तक श्रीराम के चरण? पांडवों का वनवास, राम का वनवास, श्रीकृष्ण की लीलाओं के प्रमाण! और भारत ही नहीं, विदेशों में भी तो इन्हीं की सत्ता है! सऊदी अरब और काबा तक में शिव तथा चीन में हनुमानजी नहीं हैं, क्या? यह बात अलग कि उनके नाम-रूप, लीलायें आदि स्थानीय भाषा-बोली और रीति-रिवाज, रहन-सहन के कारण भिन्न-भिन्न हैं। आज विश्व के 100 से अधिक देशों में हिंदू समाज फैला हुआ है। त्रिनिडाड में एक नदी है, जिसका नाम गंगा है और वो जिन दो सहायक नदियों से मिलकर बनी है, वे भागीरथी और अलकनंदा हैं। एक क्या कई एक देशों में शिवज्योतिर्लिंग स्थापित हैं। सोवियत संघ के यूव्रेन राज्य में मुस्लिम बहुलता के बावजूद त्रिशूल की पूजा होती है। अफ्रीका के लोग मक्का जाते समय ॐ का लॉके ट लटका ले जाते हैं। पवित्र पीपल का पेड़ जो देवताओं का वासस्थान है और स्वयं वासुदेव है, कई देशों में मिलता है।...
इस प्रकार चिंतन प्रति चिंतन से सनातनधर्म, वेदांत और मिथों में उनका विश्वास ओर भी पुख्ता होता चला जाता।
वे प्रति मंगलवार छेंकुर वाले हनुमानजी पर जाकर सुंदर कांड का पाठ करते। धीरे-धीरे रामचरितमानस के इस कांड की सारी चौपाइयाँ, दोहे, सोरठे, श्लोक, छंद उन्हें कंठस्थ हो गये। अब हनुमानजी की मूर्ति के आगे उन्हें सुंदरकांड सुनाते हुए आनंद कथा अनुरूप भाव-विध्ल होते रहते। मसलन, ‘कहै रीछपति सुन हनुमाना। का चुप साधि रहेउ बलवाना।’ गाते वक्त वे उठकर खड़े हो जाते, मुट्ठियाँ भींचकर आवेश में हनुमानजी की ओर दोनों भुजायें तानकर कहते, ‘कबन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होय तात तुम्ह पाहीं।’ .या फिर जब सीताजी अशोक वृक्ष से अग्नि माँगती और हनुमान अंगूठी गिरा देते और विरहिणी सीता का आर्तनाद सुनते, तब आनंद हनुमानजी का कथन स्वयं रोते हुए इस प्रकार कह उठते, ‘जननी जनि मानहु जिय ऊना। तुम्ह तें प्रेम राम कहिं दूना।’
उनकी यह भाव प्रधान नौटंकी काफी पॉपुलर होती जा रही थी। मंदिर के प्रांगण में भक्तों का रेला थम-सा जाया करता। जैसे वक्त का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस आत्मालाप में उन्हें कई बार राइस मिल पहुँचने में खासकर मंगलवार को विलंब हो जाया करता था। हेडमुनीम का चश्मा नाक पर नीचे तक खिसक आता। और वह कौड़ी-सी आँखों से, प्रेम के ऊपर से झाँकता हुआ आनंद के माथे का लाल टीका देखता रहता। सकपकाये से आनंद मन-ही-मन सोचते, ‘यह जैन है!’
लेकिन सेठ की मंझली लड़की प्रीति आनंद में कुछ रुचि ले उठी थी। जानते हुए भी कि पापा मिल पर नहीं हैं, नीचे गोदाम में या मंडी गये होंगे वह घर वाले 26 नंबर फोन का काला चोंगा उठाकर कहती, ‘हलो-हलो एक्सचेंज प्लीज 39 नंबर दे दीजिए’ और तत्काल आलमारी में रखा फोन घनघना उठता। हेडमुनीम जब तक पलट कर उसे उठाये, नजदीक बैठे आनंद बिहारी डायल विहीन इस फोन का चोंगा उठाकर अपने कान से सटा लेते, ‘हेलो ऽ’
‘देखो, पापा हैं! आप कौन बोल रहे?’ प्रीति पूछती।
‘आनंद मैं आनंद!’ वाक्य अधूरा रह जाता-
‘आनंद, तुम घर आ जाओ प्लीज! वो यहीं बताऊंगी, कुछ काम है’ प्रीति हड़बड़ाहट में कहती।
‘जी।’ आनंद फोन रख देते।
हेडमुनीम चश्मे के ऊपर से घूरता। और बेवजह आनंद के माथे पर पसीने की नन्हीं बूंदें उभर आतीं!
‘जी-वो सेठानीजी बुलाती हैं!’
‘चले जाना, देखो उधर! नाप-तौल देखो जाकर’ वह मानो झिड़क देता। वे अपनी हवाई चप्पल पहनकर टीनशेड की तरफ निकल जाते।
‘ऐसा क्यों होता है,’ आनंद सोचते। ‘ऐसा कैसे होता है!’ वे अपने मन से पूछते। कि वे प्रीति का नाम सुनकर असहज क्यों हो जाते हैं? उसका संदेश पाकर धक् से क्यों रह जाता है उनका हृदय। उससे सामना होते ही घबरा-से क्यों जाते हैं, आनंद! जबकि सेठानीजी का काम करते, बड़ी और छोटी बहनों का बुलावा पाकर उनके मन पर या शरीर में कोई हलचल क्यों नहीं होती! और प्रीति! जिससे कि वे डरते हैं, और बचना भी नहीं चाहते! कि उसके बारे में कभी-कभी अनायास सोचते हैं-आनंद। उसकी हँसी सुन पड़ती है उन्हें अक्सर।... फोन पर सुना अपना नाम, स्वर प्रीति का कानों में गूँजता रहता है देर तक। आखिर क्यों अचानक सोते-जागते, खाते-पीते, काम करते, चलते-फिरते उसकी सूरत नुमाया हो उठती है।
यह कौन-से प्रभु की माया है? यह तो पाप है!
प्रीति इंटर कर चुकी थी। आगे पढ़ाई थी नहीं वहाँ! पर अभी बड़ी के लिये ही उपयुक्त घर-वर नहीं मिला था, इसलिये घर में उसकी शादी का कोई कार्यक्रम नहीं बना था। जाहिर है पहले बड़ी का होगा, फिर छोटी का, इसलिये प्रीति अभी विवाह के क्यू में भी खड़ी नहीं हो पाई थी। पर उसे साड़ी पहनने का बहुत शौक था। मेंहदी रचाने और मेक-अप करने का भी कम शौक नहीं था। कई बार वह घर में माँ के गहने पहन लेती। साड़ी बाँध लेती। आदमकद दर्पण में खुद को निहारते, मन-ही-मन आनंद को बुलाती, पूछती, ‘देखो! कैसी लग रही हूँ? आप कुछ बोलते क्यों नहीं
आप तो निरे बुद्धू हैं!’
आनंद का चित्त अब पूजा-पाठ में ज्यादा देर नहीं लगता था। मामाजी उनके इस बदलाव को गोहद से उनके चित्त का उखड़ना समझ रहे थे। और वे अपनी समझ मुताबिक ठीक ही समझ रहे थे, क्योंकि आनंद एक ग्रेजुएट नवयुवक थे जिन्हें उनकी काबिलीयत के मुताबिक किसी सरकारी महकमे में ऊँचा ओहदा मिलना चाहिये था! वह तो वक्त की मार थी कि उनके इस योग्य भांजे को महज मुनीमी करनी पड़
रही थी। वे सोचते कि हम तो पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिये चपरासीगीरी में फँसे हैं। आनंद को ये नौकरी शोभा थोड़े ही देती है। करेंगे, उनके लिये कुछ और जुगाड़ करेंगे।...
उस साल रक्षाबंधन बीच माह में था, इसलिये आनंद घर नहीं जा पाये थे। अड़ोस-पड़ोस में चहल-पहल थी। पर यहाँ सन्नाटा था। कारण कि मामाजी के घर में कोई लड़की न थी। यूँ तो आनंद की भी कोई सगी बहन न थी, पर वे मुहल्ले-पड़ोस में राखी बंधा लेते थे बचपन से ही। फिर संघ के राष्ट्रीय पर्व रक्षाबंधन को सभी भाईजीयों के साथ मिलकर मनाने लगे थे। इसलिये आज खासे उदास थे आनंद बिहारी। दोपहर बाद मामाजी ने कहा, ‘जाओ सेठजी के यहाँ चले जाओ। उनकी लड़कियों से राखी बंधा आओ। व्योहार बनाने से बनता है। जब तक यहाँ हो, मस्त रहो। और वैसे भी आदमी को हर हाल में खुश रहना चाहिये।’
आनंद उनकी आज्ञा टाल नहीं सके । पर प्रीति से राखी बंधाने की कल्पना उन्हें न जाने कैसी हिचक से भर दे रही थी। मामाजी ने तीनों बहनों को एक-एक रुपया देने को कह दिया था। असमंजस में आनंद नीली कोठी की सीढ़ियों पर जा चढ़े।
‘अजंलि ऽ! चलो राखी बाँधो’ ऊपर पहुँचते ही उन्होंने अतिरिक्त साहस जुटाकर अंजलि को पुकारा। उस वक्त सेठानी फर्श पर बिछी चटाई पर आराम कर रही थीं, बोलीं, ‘बैठो! अंदर होगी, अभी आ जायेगी।’
आनंद सोपे पर बैठ गये। उस दिन उन्होंने पेंट-शर्ट पहन रखी थी।
सेठानी ने पूछा, ‘घर नहीं गये त्योहार पर?’
आनंद के मुख से अनायास ही फूटा, ‘जहाँ बसौ सोइ सुंदर देसू।’
सेठानी मुस्कराईं, ‘बड़े पक्के रामायणी हो, पंडित?’
वे बोले ‘राम से अनुराग तो हर जीव को होना चाहिये नहीं तो उसकी गति ही क्या है जब लंका अभियान के लिए सेतु का निर्माण किया जा रहा था, और नल-नील को यह अभिशाप प्राप्त था कि उनके हाथ से गिरायी गई कोई भी वस्तु जल में डूबेगी नहीं और हनुमान आदि वीरों द्वारा उखाड़ कर लाये गये पहाड़ों को वे जलनिधि में फेंकते जा रहे थे’
‘क्यों पंडित, ये अभिशाप था कि वरदान?’ सेठानी ने बीच में टोका।
आनंद बोले, ‘था तो ये अभिशाप ही, क्योंकि एक तपोनिष्ठ ऋषि जैसे ही ध्यान लगाने बैठते कि आश्रम के पास ही विचरण करने वाले नल, नील दो बाल वानर उनकी पूजा का सिंहासन ठाकुरजी समेत वहीं बहने वाली नदी में फेंक देते। ऋषि बहुत हैरान थे बार-बार शालिगराम भगवान् की गुटैया और सिंहासन का जुगाड़ करते-करते हार कर एक दिन उन्होंने नल, नील को शाप दे दिया कि- जाओ! आज से तुम्हारे द्वारा पेंकी गई कोई भी वस्तु जलमग्न न होगी’
सेठानी गर्दन हिलाती हुई मंद-मंद मुस्कराईं आनंद की इस पोंगापंथी पर। लेकिन वे हतोत्साहित न होकर अपनी बात कहने लगे,
‘तो नल, नील का यही अभिशाप सेतु निर्माण में वरदान बन गया था। भगवान् श्रीराम यह रहस्य जानते थे। किंतु वानरगण रामजी के प्रताप का बखान करते हुए उनकी जय-जयकार करते हुए निर्माण कार्य में लगे थे। तब राम ने भेद उजागर करने के लिए, कि मेरे प्रताप से नहीं, ऋषि के शाप से ये पत्थर जल पर सूखी लकड़ी की भाँति तैर रहे हैं, एक पत्थर स्वयं भी समुद्र में फेंक दिया जो कि तुरंत डूब गया!’
आनंद साँस लेने के लिए रुके । सेठानी बोलीं, ‘तब वानरों का अंधविश्वास टूटा कि नहीं!’
‘नहीं ऽ’ आनंद चिल्ला से पड़े, ‘महिमा तो सब उन्हीं की थी। उन्हीं के नाम की थी। वानर एक पत्थर डालकर हटें और दूसरा डालें तब तक पहला बह जाये लहरों में। तब रीछपति ने सुझाया कि एक पर्वत खंड पर ‘रा’ लिखो और दूसरे खंड पर ‘म’! इस तरह दोनों को मिलाकर डाल दो। फिर नहीं बहेंगे। ऐसा ही हुआ, पुल बंध गया वह तो रामजी की इतनी उदारता थी कि वे दूसरों को यश और मान देते ही थे! इसलिये, जब श्री रामजी ने कहा कि मेरा कोई बल प्रताप, पुण्य नहीं इसमें मेरे हाथ का पत्थर तो स्वयं डूब गया। तब जामबंत ने निहोरा किया था कि प्रभु आपकी ही महिमा है पत्थर तो इसीलिये डूब गया कि आपने ही उसे विसरा दिया, फेंक दिया, तो उसकी और गति क्या थी? उसे तो डूबना ही था। उसका उद्धार और कौन करता भला।’
आत्मलीन से आनंद इतना सब कुछ आवेश में कह चुकने के बाद जब होश में आये, तो अंजलि एक प्लेट में राखी, रोली और मिठाई लिए खड़ी थी। उन्होंने ग्लानि प्रकट की, ‘क्षमा कीजिये’ अंजलि मुस्कराई, फिर उसने आनंद को टीका कर उनकी कलाई पर राखी बाँधी और मिठाई खिला दी। आनंद ने झुककर पाँव छुए। एक रुपया निकालकर थाली में रखा और बोले, ‘सुधा वगैरह कहाँ हैं?’
‘सुधा सहेली के यहाँ गई है,’ सेठानी ने आनंद के प्रश्न का उत्तर देते हुए अंजलि से झल्लाकर कहा, ‘ये प्रीति कहाँ मर गई? पंडित कब से बैठे हैं’
‘अंदर है,’ अंजलि ने जाते हुए कहा।
‘भेज तो उसे ऽऽ सेठानी चीख्शीं।
‘आ नहीं रही’ दूर से अंजलि की क्षीण-सी आवाज आकर हॉल में बिखर गई।
‘क्यो ओं?’ सेठानी की आँखें निकलकर रह गईं। देर तक आनंद और उनके बीच एक गहरा सन्नाटा पसरा रहा। सोच रहे थे आनंद कि आ जाये तो अच्छा ही है, वे एक व्यर्थ की रागात्मकता से उबर सकेंगे। और सेठानी मन-ही-मन खीज रही थीं, इस लड़की के रंग-ढंग पर। देर बाद आनंद के लिए अंजलि चाय ले आई और सेठजी ऊपर चढ़ आये तब अपनी खिसियाहट मिटाते हुए सेठानी ने कहा, ‘पर हमारे यहाँ तो राम भगवान् नहीं हैं। महावीर भगवान् के बाद कोई तीर्थंकर नहीं हुआ। राम के कुछ कर्म ऐसे हो गये ‘हिंसा और पत्नी त्याग’ आदि कि उन पाप कर्मों के शमन के लिए कठोर तप करना पड़ा और अंत में मुनि दीक्षा लेकर आत्मसाधना के लिए चले गये। सीताजी धरती में न समाकर आर्यिका बन गई थीं। मोक्ष नहीं मिला उन लोगों को।
‘क्यों,’ उन्होंने सेठजी से मुखातिब होकर कहा, ‘अपने पद्मपुराण में तो यही कथा है-ना!’
‘हमें नहीं पता!’ सेठजी ने उदासीनता प्रकट की, ‘न हमने पद्मपुराण पढ़ा, ना कुछ। अपुन तो सच्चे कर्म और मानव सेवा में विश्वास रखते हैं!’
लेकिन सेठानी का उत्साह थमा नहीं। वे आनंद से हरहाल में जीतने को आतुर थीं, बोलीं, ‘हमारे यहाँ ‘हरवंश पुराण’ में कृष्ण की तो मुनि दीक्षा लेते-लेते मुक्ति हो गई थी!’
आनंद अचंभित रह गये। ‘बिनु पद चले सुने बिनु काना’ वाले निर्गुण ब्रह्म के अवतार राम और कृष्ण अंततः जैन मुनि बने? यह क्या रहस्य है। उनका दिमाग चकरा गया।
भीतर से सजी-धजी प्रीति आकर सेठजी से लिपट गई, ‘पापा, हम बंधे पर मेला देखने जायेंगे।’
‘जाओ ना! किसने रोका?’ उन्होंने प्यार से कहा।
‘मम्मी!’ प्रीति ने सेठजी के गले से अपनी बाँहें निकाल लीं, मानो रूठ गई हो!
‘जाओ-जाओ!’ सेठजी पुचकारते हुए से बोले, ‘आनंद मेला दिखा लाओ इसे।’
और प्रीति उछलने लगी। सेठानी की एक न चली।
आनंद अब चौकस घिर गये थे। मन तो था उनका प्रीति के संग जाने को, पर झिझक भी थी। अब संयोग ही ऐसा बन पड़ा था कि उन्होंने इसे प्रारब्ध मान लिया।
और वे प्रीति को लेकर गोहद के बांध पर चले आये।
यह एक छोटा डैम है और इसलिये बना दिया गया था कि अधिक वर्षा से बैसली के अचानक उफान पर न सिर्फ गोहद और गोहदी को डूबने से बचाया जा सके बल्कि जल संग्रहण भी किया जा सके ! जल के उपयोग के लिये डैम से एक नहर भी निकाली गई थी, जो मौ कैनाल कहलाई। किंतु टेल ऐरिया में कामयाब न होने से बंद कर दी गई। यूँ भी बरसात बाद डैम में पानी न के बराबर रह जाता है उसका तल नदी की मोरी से भी नीचे चला जाता है, इसलिये सुदूर कुँवारी तक यह बैसली नदी भी मात्र गड्ढों के रूप में भरी रह जाती है। पर यह बाँध एक विशाल जलाशय तो है ही! आषाढ़-सावन से लेकर क्वार तक इसका 200 गज चौड़ा रपटा अनवरत् चलता रहता है, जिसका शोर रात में गोहद तक सुनाई देता है।
बाँध पर एक किनारे तट से लगभग 100 गज अंदर नलकूप है, जिससे नगर की जल-प्रदाय व्यवस्था संचालित है। रपटा के समानांतर 150 गज के अंतराल पर नदी पर पुल बना है, जो गोहद को ग्वालियर-इटावा राजमार्ग से जोड़ता है। पर जब नदी उफनती है, तो पुल पर गाड़ियाँ धीमी हो जाती हैं ताकि यात्री डैम से नदी में गिरते जल की मनोरम छटा देख सकें। उसके अनुपम श्रवण-प्रिय शोर को सुन सकें। फुहार और धुंध का मजा ले सकें।
श्रावणी के दिन सड़क और डैम के लंबवत् भूखंड पर एक देहाती मेला भर जाता है। डैम में पानी के मध्य एक लंबा बाँस गाड़कर उस पर एक उलटा मटका रख दिया जाता है और इस मटके को तट से अपनी बंदूक का निशाना बनाने वाले निशांची को मेला आयोजन समिति द्वारा एक मोटी रकम इनाम स्वरूप दी जाती है। नदी के किनारे के अखाड़े पर पहलवानों के मध्य कुश्ती प्रतियोगिता होती है। कुल मिलाकर बड़ा मजा आता है इस मेले में।
आनंद प्रीति को लेकर डैम पर चले तो आये थे, पर मेले का आकर्षण बाँध नहीं पा रहा था उन्हें। दंगल देखकर भी मौन बने रहे, जबकि प्रीति अत्यंत मुखर थी। वह जीत गई थी मम्मी से, कि उसने हठपूर्वक नहीं बाँधी थी राखी आनंद की कलाई में। कि इस कांड में आनंद को भाई के रूप में मान्यता न देने में उसकी हिचकनुमा जिद की जीत ही नहीं हो गई थी बल्कि आनंद के साथ घूमने जाने की उसकी अप्रतिम इच्छा की भी पूर्ति हो गई थी।
औैर उसकी मनःस्थिति से भिन्न आनंद खुद को अपमानित-सा महसूस कर रहे थे। कि किस तरह सेठानीजी ने देवाधिदेव श्रीकृष्ण महाराज को साधारण-सा जैन मुनि निरूपित कर दिया। यानी हिंदू धर्म कुछ नहीं। वह सनातन धर्म जिसके कि कृष्ण स्वयं एक बहुत बड़े प्रवर्तक माने जाते हैं। कि वे विष्णु के अवतार
16 कलाधारी अंततः साधारण मुनि होकर रह गये। यानी दीक्षा न लेते तो मुक्ति न होती उनकी। अर्थात् सनातन धर्म में मोक्ष मार्ग नहीं है?...
प्रीति चलते-चलते आनंद के बाजू से टकरा जाती और फुदकती हुई चहकती जाती मसलन, उसे इडली-डोसा-ढोकला यानी साउथ इंडियन डिश बनाना आता है। कि मम्मी ने किचेन में जमीकंद पदार्थों को निषिद्ध करा दिया है। सिर्फ रसयुक्त और चिकने रूखे-सूखे आहार से मुझे चिढ़ होती है कि उसे कड़वे-खट्टे, लवण युक्त और तीखे पदार्थों से बना गरमा-गरम भोजन पसंद है।...
शनैः-शनैः शाम ढल रही थी। मेले में काफी रौनक बढ़ गई थी। बाँध की एक पट्टी पर जन-समुद्र उमड़ा पड़ रहा था। प्रीति ने वॉटर प्लांट पर जाने की जिद की। खतरे के कारण वहाँ कम ही लोग जाया करते। पर प्रीति तो प्रीति थी! उसकी जिद सेठजी भी नहीं टाल पाते थे, बेचारे आनंद की बिसात ही क्या थी? वे तट से बाँध के मध्य बने पुल द्वारा वॉटर प्लांट पर जा पहुँचे। अस्ताचलगामी सूर्य जल में अनुपम छटा बिखेरे हुए था। आकाश में काले-नीले और श्वेत बरसाती बादल एक-दूसरे में गुंथते हुए विविधवर्णी आकृतियों की रचना में व्यस्त थे। डूबते किंतु स्वर्ण से दमकते सूर्य ने अपनी रश्मियों की कूँची से इन चित्रों में अगणित रंग भर दिए थे मानो।...
तभी फायरिंग शुरू हो गयी। तट से कई बंदूकधारी क्रमशः गोलियाँ दाग रहे थे। तट पर एकत्र भीड़ हर्षातिरेक में तालियाँ बजा रही थी। गोया भीड़ मटके की तरफ थी और मटका फूट नहीं रहा था। उन्हीं क्षणों में प्रीति ने एक गीत गुनगुनाया, ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर’ जैसे वह हौसला दे रही हो निशांचियों को! भीड़ और बाँध के सम्मिलित शोर में वह गीत आनंद ठीक से सुन नहीं पाये। यह गीत आर.एस.एस. में नहीं गाया जाता था। वे सोच रहे थे कि मटका पूटे और उनका छोर छूटे। अर्थात् घर जायें बस! उसी बेखयाली में सहसा प्रीति ने उन्हें झकझोरा ‘फूट गया फूट गया’ वह बच्चों की तरह किलक रही थी। आनंद ने पाया, उसी विजयोल्लास में वह फिर गाने लगी, ‘हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब’ आदि!
भीड़ छंटने लगी थी और जल के भयानक शोर के कारण वॉटर प्लांट पर दहशत-सी मालूम पड़ने लगी थी। आनंद ने कहा, ‘चलो, चलें!’
प्रीति अड़ गई ‘अभी नहीं। सूर्य डूब जाने दो,’ और गाती हुई बोली, ‘हम तो सूर्यास्त देखेंगे।’
आनंद ने गौर से देखा कि उसके मुख पर भी एक अनूठा सूर्य प्रदीप्त हो आया है! गोया जल में रश्मियाँ घुल-मिल गई हैं, किसी ने अपरिभाष्य अलौकिक रंग घोल दिए हैं!
‘वो देखो,’ सहसा उँगली की दिशा में प्रीति उछल पड़ी!
रेलिंग का सहारा लिये आनंद मानो काँप गये।...
‘कैसा रूज-सा लगा दिया है किसी ने पानी के गालों पर।’ उल्लसित प्रीति का स्वर कितना निर्भय था!
‘रूज?’ आनंद को समझ नहीं आया। वे दाँतों तले उँगली दबा गये थे।
‘अरे-वो भी नहीं जानते आप! सच्ची?’ वह खिलखिला पड़ी। उसकी आँखें चमक रही थीं, ‘पावडर-पावडर जिससे चेहरे पर मेक-अप किया जाता है! व्हाइट कलर, क्रीम कलर, और रेड के लाइट शेड्स डाले जाते हैं’
‘अच्छा-हाँ!’ आनंद ने झेंप मिटाई, ‘चलो अब।’
और वे घर की ओर लौट पड़े। उनका मन शांत नहीं था। प्रीति कोई रागात्मकता न जगा पाई। जैसे, अशांत सरोवर में प्रतिबिंव देख पाना दुष्कर हो।
कई रोज तक आनंद के मन में वही बात घुमड़ती रही सेठानीजी की, राम भगवान् मुनि हुए! सीता मैया आर्यिका बनीं। लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भरतादि भाइयों सहित हनूमान, सुग्रीवादि ने मुनि दीक्षा ली यह सब क्या गोलमाल है!
एक दिन उन्होंने हेडमुनीम से पूछा, ‘दादा! वैसे आपके यहाँ धर्मग्रंथ तो होंगे।’
‘ढेर सारे!’ उसने बही से खोपड़ी उचकायी।
‘जैसे- एकाध का नाम’
‘एक हो तो बताऊँ?’ स्वर फटे बाँस-सा बिखर गया, ‘ग्रंथ-ही-ग्रंथ हैं। उम्र बीत जायेगी, पढ़ नहीं पाओगे। आदि-अनादि धर्म है हमारा तो।’
आनंद चुप हो गये, जिज्ञासा शांत न हुई थी। चलते वक्त उन्होंने फिर पूछा, ‘जैसे, पद्मपुराण!’
मुनीम फिर झल्ला गया, ‘पद्मपुराण ही क्यों हरवंश पुराण, महावीर पुराण, रत्नकांड, श्रावकाचार, श्रीपाल चरित्र, परमार्थ प्रकाश, तत्वार्थ सूत्र, पार्श्वनाथ चरित्र...कितने ही धर्मग्रंथ हैं। कोई सीमा है! पीएच.डी. करोगे तो ग्रंथों की सूची में ही 360 पेज भर जायेंगे। प्रथमानुयोग, करुणानुयोग, चरणानुयोग, द्रिव्यानुयोग...पार नहीं पाओगे। हमारे तो गुरुओं के मुख से सदा ही धर्मग्रंथ फूटते रहते हैं।’
आनंद पिटे हुए से घर लौटे आये थे। कोई ऐसा गुरु नहीं मिल रहा था, जो रहस्य खोल दे! आखिर ये घपला क्या है।.....
मामाजी से पूछा तो वे तपाक से बोले, ‘अरे तो इसमें क्या है? वाचनालय चले जाना सुबह। वहाँ जैन मंदिर में ही है इनकी बहुत बड़ी लाइब्रेरी। ले आना छाँटकर जो पढ़ना चाहो’
आनंद ने सोचा, यह ठीक है! और अगले दिन वे राइस मिल जाने से पहले महावीर चौक के जिनालय में चले आये। पुस्तकें उन्हें आसानी से देखने को मिल गई थीं। पर वहाँ तैनात मानसेवी लाइब्रेरियन ने एक-एक करके ले जाने की इजाजत दी थी। आनंद एकदम अपनी भूख मिटा लेना चाहते थे। भूख नहीं, मन की उथल-पुथल या कि शंका-समाधान कर लेना चाहते थे जल्द से जल्द! सो वे ग्रंथासार नामक एक संपूर्ण पुस्तक ले आये जैनागम पर। और उसके अध्ययन से वे कुछ मोटी-मोटी बातें शीघ्र ही जान गये थे।
जैसे जैन धर्म में चतुर्दश कुलकर और 24 तीर्थंकर हुए। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम महावीर स्वामी हुए। इनमें से 16 तीर्थंकरों का वर्ण सुवर्ण का-सा था। वासुनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये 5 तीर्थंकर बाल-ब्रह्मचारी थे। महावीर नागवंश में, पार्श्वनाथ उग्रवंश में, मुनि सुब्रतनाथ तथा नेमिनाथ हरिवंश में, धर्मनाथ और कुंथुनाथ और अरहनाथ कुरुवंश में तथा शेष 17 तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए। यह भी कि ऋषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ की मुक्ति पर्यक यानी पद्मासन में हुई तथा शेष समस्त तीर्थंकरों की मुक्ति खड़गासन से हुई। और यह भी कि भूत भगवान् महावीर का श्रुतितीर्थ यानी सिद्धांतगान 20,317 वर्ष तक चलता रहेगा, फिर व्युच्छिन्न हो जाएगा। इस काल में मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका एवं चातुर्वर्ण्य संघ जन्म तो लेता रहेगा, परंतु जनता क्रोधी, अभिमानी, पापी, अविनीत, दुर्बुद्धि, भयातुर औैर ईर्ष्यालु होती चली जायेगी।
प्रीति अब पहले से अधिक आनंद बिहारी पर ध्यान दे उठी थी, क्योंकि वे अब जैनागम की ओर उन्मुख थे। उसकी जानकारी में कई ब्राह्मण कुँवर ऐसे थे जो अपना सनातन धर्म छोड़कर दीक्षा लेकर जैन मुनि बन गये थे। ज्ञान-पिपासु आनंद भी एक दिन अवश्य जैन हो जायेंगे, ऐसा उसे लग उठा था।
पर वह आनंद को साधु नहीं बनने देगी! उसकी कल्पना में अपने जीवन-साथी की जो तलाश चल रही थी, वह आनंद पर आकर ठहरने लगी थी, जबकि उसकी आशा के विपरीत आनंद बिहारी जैनशास्त्रों से ऊबकर अब श्रीमद्भगवद् गीता का नियमित पाठ कर उठे थे।
मामाजी का घर तीन कमरों वाला था। रसोई, आँगन और बाथरूम अलग से। भीतर के कमरे में ठाकुरजी का आला था। आनंद इसी के समक्ष चौकी पर बैठकर नियमित ध्यान और गीता-पाठ करते। पर तब उनका ध्यान का तरीका बड़ा विचित्र था कि वे चौकी पर पद्मासन में विराजमान दोनों नेत्र मूँदे हुए श्लोकों का टुकड़ों में गायन करते हुए अर्थ भी करते जाते। यथाः
‘शांताकारं भुजंगशयनं पद्मनाभं सुरेशं’ जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किये हुए हैं, जिन की नाभि में कमल है ‘विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णम शुभांगम्’ कि जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत् के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वथा सर्वत्र व्याप्त हैं, नील मेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं ‘लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं, वंदे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकेकनाथम्’ जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण, रूपी भय का नाश करने वाले हैं-ऐसे लक्ष्मीपति कमल नेत्र भगवान् श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।’
उनके मुख से उच्चरित यह स्तुति सुनने मामी ठिठक जाया करतीं कमरे के आगे। झाड़ू-पानी रोक लेतीं दो मिनट के लिये। और स्तुति मानो स्कूल की घंटी होती कि- मामाजी जिसे सुनकर दौड़े चले आते गीता-पाठ सुनने के चाव में।
आनंद बिहारी प्रायः ही पाठ से पूर्व गीता माहात्म्य का बखान कुछ इस तरह करते-‘जो मनुष्य शुद्ध चित्त होकर प्रेम-पूर्वक इस गीताशास्त्र का पाठ करता है, वह भय और शोक आदि से रहित होकर विष्णुधाम को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य सदा गीता का पाठ करने वाला है तथा प्राणायाम में तत्पर रहता है, उसके इस जन्म और पूर्व जन्म में किये हुए समस्त पाप निसंदेह नष्ट हो जाते हैं। कि गीता ज्ञानरूप जल में एक बार भी किया हुआ स्नान संसार मल को नष्ट करने वाला है, यह साक्षात् कमलनाभ भगवान् श्री विष्णु के मुख से प्रकट हुई है सो गीता का ही भली-भाँति गान करना चाहिये। अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है? क्योंकि संपूर्ण उपनिषद् गौ के समान हैं, गोपाल नंदन श्रीकृष्ण दुहने वाले हैं, अर्जुन बछड़ा है तथा महान् गीतामृत ही उस गऊ का दुग्ध है और शुद्ध बुद्धिवाला श्रेष्ठ मनुष्य ही इसका भोक्ता है। देवकी नंदन भगवान् श्रीकृष्ण का कहा हुआ गीताशास्त्र एकमात्र उत्तम शास्त्र है। भगवान् देवकी नंदन ही एकमात्र महान् देवता हैं। उनका नाम ही एकमात्र मंत्र है और उन भगवान् की सेवा ही एकमात्र कर्त्तव्य-कर्म है।’
फिर वे पूरी श्रद्धा के साथ श्री गीताजी का पाठ करते और पाठ के बाद चाय के साथ बासी रोटियाँ खाकर राइस मिल चले जाते।
(क्रमशः)