नमो अरिहंता - भाग 1 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नमो अरिहंता - भाग 1

अशोक असफल

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।।समर्पण।।

अभी मुझे

और धीमे

कदम रखना है

अभी तो

चलने की

आवाज आती है

-मुनि क्षमासागर

 

(1)

आरंभ

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थाना लश्कर पूर्व क्षेत्र में तैनात हेडकांस्टेबिल कैलाश नारायण शर्मा उन दिनों ढोलीबुआ पुल के पार लश्कर शहर की एक अत्यंत गंदी बस्ती में

किराए के मकान में रहा करते थे। मकान क्या था, आठ-आठ फुटी पाटोरें थीं जो गर्मियों में किसी कुंभकार के आँवे-सी तपतीं और बारिश में उलटा मेह बरसने पर चू उठती थीं।

यह बस्ती सोनालीका अर्थात् स्वर्ण रेखा नहर के किनारे बसी थी। नहर जो कि स्टेट के ज़माने में कभी एक सिंधिया नरेश द्वारा नगर के सौंदर्यीकरण एवं जल-प्रदाय हेतु बनवाई गई थी, अब गंदे नाले में तब्दील हो आई थी कि जिसमें गंदगी के ढेरों पर मच्छर-मक्खियों का मजमा लगा रहता। उससे उठती सड़ांध हमेशा सिर चढ़ाए रखती।

नाले के किनारे शुष्क संडास और बस्ती में कच्ची नालियाँ थीं। मुख्य सड़क से मिडिल स्कूल का मैदान पार कर इस बस्ती के लिये एक पतली-सी कच्ची गली थी जो सदा दलदल से भरी रहती और स्कूल में खेल का मैदान सदा मनुष्यों, कुत्तों और सूअरों आदि के मल से पटा रहता। सो, दिन में तो खैर, जैसे-तैसे जूता-चप्पल पाँव की इज्जत बचा लेते पर रात में और खास तौर पर बिजली गुल हो जाने पर भरतनाट्यम और हनुमान कूद के बावजूद पैर लिस जाते! जी घिना उठता। पर हेडकांस्टेबिल कैलाश नारायण शर्मा की तीसरी संतान बालक आनंद बिहारी बस्ती में उन दिनों बड़े मजे से रह रहे थे। उनका ध्यान बस्ती की गंदगी और दशा-दिशा पर न जाकर सदा अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहता। नलों में गंदा और दुर्गंधयुक्त पानी आ जाए या बिलबिलाते कीड़े-वे कभी परेशान न होते। ब्राह्मण कुल में जन्म के कारण उनका यज्ञोपवीत संस्कार बचपन में ही हो गया था, इसलिए वे लघुशंका आदि के वक्त अपना जनेऊ कान पर धारण करना कभी न भूलते। रात को उघारे बदन सोते और उनका जनेऊ पीठ, छाती तथा पेट से कमर तक चमकता रहता।

नहाते वक्त वे इसी जनेऊ को पगहे की तरह खींच-खींचकर वृत्ताकार घुमाते हुए साफ करते-करते ‘श्रीराम चंद्र कृपालु’ से लेकर ‘महावीर विक्रम बजरंगी’ तक की स्तुति कर डालते और सूर्य को जल देते वक्त हथेलियों में लोटे के नीचे यह जनेऊ अवश्य ले लेते। फिर ‘रामचरितमानस’ से पाँच दोहों का नियमित पाठ कर, घर में रखी बासी रोटी, चाय के साथ आनंदपूर्वक खाकर स्कूल चले जाते। लौटकर अम्मा और भाभी द्वारा बताये गये घर के छोटे-मोटे काम निबटाते। अपना होमवर्क करते। नाले पार की बस्ती के हमजोलियों में कभी-कभार गुल्ली-डंडा, पिड्डू, चोर-सिपाही, छुपा-छुपल्ली आदि खेल, खेल आते। और शाम को ठाकुरजी के आले पर गोल-गोल अगरबत्ती घुमाते हुए ‘¬ जय जगदीश हरे’ गाने के बाद भोजन करते और कुछ देर पढ़कर गहरी नींद सो जाते।

प्रकृति से आनंद पढ़ाकू और मितव्ययी छात्र थे। उनका अपना कोई जेब खर्च नहीं होता। कभी-कभार पिता उन्हें अठन्नी-चवन्नी पकड़ा भी देते तो वे उसे बड़े जतन से अपनी गुल्लक में डाल लेते। कुछ महीनों में वो जरा वजनी हो जाता तो आनंद रातों में चुपचाप बड़े चाव से उसके सिक्वे गिनते। फिर ताक पर रख देने के बाद अपनी चारपाई से लेटे-लेटे देर तक उसे प्यार से ताकते रहते। उस दौरान वे न जाने कौन-से सपने बुना करते कि एक अनाम प्रफुल्लता उन्हें आ घेरती और वे सोकर भी मुस्कराए-से बने रहते।... कि वे एक अच्छे जोरा (संचयी) थे। और उसी जमा-पँजी से अपनी स्कूल की फीस चुका लेते, कॉपी-किताबें खरीद लेते, यूनीफॉर्म सिला लेते आदि।

उन्हीं दिनों उनमें एक संस्कार और पड़ गया था कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा लगायी जाने वाली शाखा में सुबह-शाम नियमित जाने लगे थे। क्योंकि उसी मकान में, जिसमें कि वे रहते थे-जिला संघ ग्वालियर के तारागंज खंड के प्रचारक भाईजी विमल कुमार ओक आ बसे थे।

ओक जी खूब हृष्ट-पुष्ट नौजवान थे और अधिकतर खाकी निक्कर और सफेद कमीज वाले गणवेश में नजर आते। आनंद की पढ़ाई की पाटोर के बगल में ही उनकी पाटोर थी। वे अकेले रहते। एक वक्त अपना खाना खुद पकाते। सुबह-शाम तारागंज खंड की शाखाओं में प्रचार हेतु जाते रहते तथा शाम को संघ कार्यालय भी जाते और दुपहर तथा रात्रि में मिडिल से लेकर इंटर तक के छात्रों को ट्यूशन पढ़ाते। मीठा बोलते। मोहक हँसी हँसते। न लड़ते-झगड़ते और न परेशान होते कभी या खुद

पर झींकते! जबकि आनंद के दोनों बड़े भाई हमेशा बू-बू चिल्लाते, बस्ती की गंदगी पर नाक-भौं सिकोड़ते रहते। बिजली चले जाने या नलों के वक्त पर न आने अथवा गंदा पानी आने पर सिर पकड़कर बैठ जाते। घंटों चिड़चिड़ाते रहते!

ओक जी की पाटोर में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप और रानी झाँसी सहित गुरुजी तथा डॉक्टर साहब की दैदीप्यमान तस्वीरें होतीं। राष्ट्रभावना से ओत-प्रोत कहानियों और गीतों की पुस्तिकाएँ होतीं। तब आनंद बिहारी अपने भाइयों के बजाय ओक जी से अत्यंत प्रभावित होते और उन जैसा बनने की सोचते रहते।

शायद उनकी इसी भावना को ताड़कर एक दिन ओक जी उन्हें अपनी तारागंज खंड की एक शाखा में ले गये।

आनंद को बहुत अच्छा लगा।

वहाँ पहले ही दिन ‘कश्मीर हमारा-कश्मीर हमारा’ खेल-खेलकर तो उन्हें आनंद ही आ गया और वे अगले दिन फिर मुँह अंधेरे ही वहाँ जा पहुँचे। तब मुख्य शिक्षक ने ‘ध्वज’ गाड़कर उन्हें प्रणाम करना सिखाया। पुलकित आनंद ने ध्वज के समक्ष सावधान की मुद्रा में खड़े होकर बताए अनुसार दायें हाथ को कोहनी से मोड़कर मुख्य शिक्षक के एक कहने पर अपने खुले और सतर पंजे को वक्ष से लगाया, फिर दो बोले जाने पर गर्दन को तनिक झुकाया और तीन कहे जाने पर झटके के साथ हाथ नीचे लटका कर वहाँ से हट गये।

यह शाखा तारागंज की गंदी बस्ती में ही सही पर एक छोटे-से साफ-सुथरे और घास भरे मैदान में लगायी जाती थी, जहाँ प्रातःकालीन बेला में शीतल वायु के झकोरे और कोमल ऊर्जस्वित सूर्य रश्मियाँ स्वर्ण-सी दिपदिपाकर वातावरण को सुखमय बना देतीं। यहाँ ‘खो खो’ और ‘कबड्डी’ जैसे खेलों में खूब मजा आता। नियमित उपस्थित स्वयंसेवकों को गणों में बाँट दिया जाता। प्रत्येक गण का एक गणप्रमुख बना दिया जाता। तब थोड़े ही समय में उत्साही नवयुवक आनंद ने गणप्रमुख की पदवी हासिल कर ली। वे अपने हमउम्र स्वयंसेवकों के प्रायः रोज ही गणप्रमुख बना दिए जाते। वे अपने इस दल को ‘खो खो’ तो कभी ‘कबड्डी’ खिलाने के साथ ही अंत में पी.टी. भी करा देते। फिर सामूहिक प्रार्थना होती, ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखम् वर्धितोहम!’ और विसर्जन हो जाता। किंतु आनंद दिन में कई बार यह प्रार्थना मन-ही-मन दुहराते हुए गुनगुना से उठते, ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखम् वर्धितोहम’ वगैरह!

नियमितता और चाव के कारण उन्हें छह महीने के भीतर ही संयोगवश रिक्त होने पर मुख्य शिक्षक का स्थान मिल गया। आनंद के तईं यह जैसे उनका प्रबल भाग्योदय था। उन्हें लगा, जैसे उनका लक्ष्य निर्धारित हो गया है! अब वे प्रति रविवार को जिला संघ कार्यालय में प्रशिक्षण हेतु जाने लगे थे उनका परिचय क्षेत्र अब ओक जी से बढ़कर संघ के नगर प्रचारक और जिला प्रचारक तक हो गया था। उन्होंने जान लिया था कि कैसे देश की दासता और दुर्दशा से दुःखित होकर सन् 1889 में जन्मे डॉक्टर के शव बलिराम हेडगेवार ने सन् 1925 में हिंदू समाज को संगठित करने और देश को ‘परमवैभव’ के शिखर पर ले जाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नागपुर में स्थापना की थी। उसे अपने अथक् प्रयासों से सन् 1927 में वर्धा और फिर बंबई और फिर सारे भारतवर्ष में फैला दिया। कि आजादी से पहले ही सन् 1940 में उनका देहांत जरूर हो गया, किंतु उनके बोये-रोपे स्वयंसेवक ही देश के जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना जगा पाये हैं! अभी तो बहुत कुछ करना है, बहुत कुछ!

आनंद सोचते और सोचते-सोचते रोमांचित हो उठते। उन्हें डॉक्टर साहब की मोटी और भूरी मूँछें, काले टोप से झाँकते सिर के सफेद बाल और संपूर्ण गरिमामय व्यक्तित्व याद आ जाता। आनंद डॉक्टर साहब की जीवनी से अपना जोड़ मिला उठते कि जन्म के समय उन्हें भी किसी प्रकार की अनुकूलता प्राप्त न हुई थी। पुरोहिताई की आजीविका पर टिका परिवार नागपुर की एक पुरानी बस्ती में निवास करता था। घर का वातावरण आधुनिक शिक्षा और देश के सार्वजानिक जीवन से सर्वथा अछूता था। किंतु जन्मजात देशभक्ति और समाज के प्रति गहरी संवेदना उन्हें ईश्वर ने खुद दी थी। तभी तो वे बालपन में इंग्लैंड की रानी की साठवीं वर्षगाँठ पर स्कूल में बाँटी गई मिठाई ठुकरा सके ! नागपुर के सीतावर्डी किले पर लहराते अंग्रेजों के यूनियन जैक को उतार फेंकने हेतु बालसाथियों को किले तक सुरंग खोदने के लिए उकसा सके ! कि उन्होंने ‘वंदेमातरम’ का उदघोष नीलसिटी हाईस्कूल में ही कर दिया था।

और क्यों न कर पाते? आनंद सोचते कि जब कोई राष्ट्र गुलाम होता है, तब देशभक्ति में जलते अंतःकरण बड़े ही संवेदनशील हो जाया करते हैं!

लू शुन की तरह डॉक्टर साहब भी डॉक्टरी पढ़कर महज डॉक्टर नहीं बल्कि एक सच्चे क्रांतिकारी बन गये। पर उनके आंदोलन का मार्ग भगत सिंह का, मारकाट का मार्ग नहीं था और न गाँधी वाला-सिर्फ पिटते चले जाने वाला मार्ग! और न वे दलगत राजनीति में फँसकर विखंडन के पक्षधर थे, न प्रसिद्धि के कामी।

उन्हें तो पता था कि हम दासता के कारण दरिद्र हुए हैं! आपसी फूट के कारण दास हुए हैं! एकता और अनुशासन के अभाव ने हमें परास्त किया है- किसी यवन, मुगल, अंग्रेज ने नहीं कि हमारे पतन के हम खुद ही जिम्मेवार हैं। संगठित होने पर यह चित्र बदल जाएगा और मैं इसे करके रहूँगा!

विचारमग्न आनंद सोचते कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ऋषि दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महायोगी अरविंद व रमण महर्षि सरीखी श्रेष्ठ आध्यात्मिक विभूतियों ने राष्ट्र का यही प्राण स्वर जगाया। जनचेतना में इसे गुंजायमान किया। किंतु उनका अभियान महज आध्यात्मिक, आत्म और समाज-सुधार किस्म का था। समूचे स्वतंत्रता आंदोलन में एक मजबूत मेरुदंड अर्थात् अनुशासित संगठन का अभाव था। इस संक्रमण युग में डॉक्टर साहब विविध आंदोलनों, सभा-सम्मेलनों, मंडलों व युवा संगठनों का प्रत्यक्ष अनुभव लेते हुए अखंड चिंतन कर रहे थे कि विशुद्ध देशभक्ति से प्रेरित, व्यक्तिगत अहंकार से मुक्त, अनुशासित और चरित्रवान व्यक्ति निर्माण का कार्य कोई नहीं कर रहा।

इसलिए सार्वजानिक कार्य करने के जो तरीके उन दिनों प्रचलित थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जो प्रयत्न किए जा रहे थे, उससे अलग हटकर उन्होंने अपनी प्रतिभा से शाखा की एक नई पद्धति खोज निकाली। और पाया कि अब अनुशासन दे सकते हैं! संस्कार दे सकते हैं। लोगों के मन में राष्ट्र के लिए, हिंदू राष्ट्र को ‘परमवैभव’ के शिखर पर ले जाने के लिए स्थायी संकल्प दे सकते हैं!

ओह! डॉक्टर साहब ने इस पुण्य लक्ष्य के लिए कितना संघर्ष किया! .आनंद एक अनूठे आत्मबल से भर उठते कि- हिंदू राष्ट्र के इस लघु रूप का जाल उन्होंने किसी भाँति देशभर में फैला दिया। कैसे देवदूत से निर्मल, निःस्वार्थ, अनुशासित, साहसी, लक्ष्य के प्रति समर्पित स्वयंसेवक खड़े कर दिए! और उनमें कितना पवित्र भाव भर दिया कि संघ ही मेरा परिवार है, वही ईश्वर है! उससे लेना नहीं, उस पर अपना जीवन होम देना है मुझे!

तब उनके प्रति अतीव श्रद्धालु आनंद रोमांचित से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस प्रतिज्ञा का शुभारंभ इस राष्ट्र में, हिंदू समाज में डॉक्टर साहब ने कराया है! इसके पहले तो सब कुछ अस्पष्ट और धूमिल-सा था। उसके पहले तो दुर्दशा मुक्ति के लिए मठ-मंदिरों में प्रार्थना ईश्वर से की जाती थी। यह डॉक्टर साहब की ही देन है कि हमने पहली बार जाना कि हमारा भी कोई आत्मगौरव है! हमारा भी एक अखंड और प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र है! और वही हमारा ईश्वर है, हम उसी की प्रार्थना करें। हम उसी की मुक्ति हेतु उसे ‘परमवैभव’ के शिखर पर पहुँचाने, उसे अपना स्वर्णिम अतीत वापस दिलाने हेतु अपना जीवन लगाएँ।

अपने अब तक के छात्र जीवन में आनंद बिहारी इस ख्वाब में मशगूल बने रहे कि बी.ए. पास करते ही उन्हें मास्टरी या क्लर्की जैसी कोई छोटी-मोटी नौकरी जरूर हाथ लग जाएगी और वे आराम से जिंदगी बसर कर लेंगे। घर में न ज्यादा गरीबी थी और न अमीरी। पिता पदोन्नत होकर एस.ओ. हो गये थे। बड़े भाई, जिन्हें बचपन से ही घर और बाहर के लोग बाबूजी-बाबूजी कहा करते थे, सचमुच बिजली विभाग में बाबू हो गये थे और सातवें आश्चर्य की भाँति मंझले भाई का दाखिला मेडिकल कॉलेज में हो गया था। सब कुछ सुख-शांति और सब्रपूर्वक था। मसलन-आनंद बिहारी पर एक जोड़ा पेंट-शर्ट, एक जोड़ा कुर्ता-पायजामा, एक अदद गणवेश-खादी निक्कर और सफेद कमीज। लेकिन पढ़ाई से ज्यादा अब उनकी रुचि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर मुड़ गई थी। वे अपने छोटे से कंधों पर गुरुत्तर दायित्व महसूस कर उठे थे। और यह बोध यूँ तो सदैव ही छाया रहता उनके मन-मस्तिष्क पर, पर इसमें इजाफा तब और भी ज्यादा हो जाता जब वे आर.एस.एस. की कोई खास मीटिंग अटेंड कर लेते। दिलो-दिमाग पर डॉक्टर साहब का वह आह्नान छाकर रह जाता कि जिससे प्रेरित होकर अनेक स्वयंसेवकों ने विवाह और गृहस्थ जीवन का मोह छोड़ कर राष्ट्र के लिए संपूर्ण जीवन लगा दिया था। आनंद तीक्ष्णता से महसूस करते कि यदि हृदय में ध्येय के प्रति धधकती निष्ठा हो तो गरीबी, साधनों की कमी, दुष्प्रचार, समाज का विरोध और उदासीनता, असफलता आदि विषम परिस्थितियाँ भी मार्ग में बाधक नहीं बन सकतीं। निस्संदेह, एक जगमगाते आत्मविश्वास और निर्भयता के साथ आगे बढ़ा जा सकता है।

शनैः-शनैः वे आर.एस.एस. के जनक और अपने जीवन के इस प्रथम आदर्श पुरुष के चरित्र के प्रति इतने प्रतिबद्ध हो उठे कि उन्हें डॉक्टर साहब का भूत घेरने लगा। उनके मस्तिष्क में एक चलचित्र-सा चल पड़ा कि डॉक्टर साहब जेल में भी संघ का कार्य कर रहे हैं। तिलकजी को अपशब्द बोलने वाले को मंच पर ही धुन दिया है उन्होंने। किंतु बाद में इस उग्र स्वभाव को भी बदलकर एक आदर्श स्थापित कर दिया है उन्होंने और लोग उनका अनुकरण करते हुए अपना मूल स्वभाव बदलकर परस्पर स्नेह सूत्र में गुँथ गये हैं।

और यथार्थ में आनंद पाते कि आज उन्हीं की देन है, उसी तेज की किरणें हैं जो देश में भारतीय किसान संघ, संस्कार भारती, भारतीय मजदूर संघ, सरस्वती शिशु मंदिर, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, हिंदू परिषद् व भारत विकास परिषद् आदि के रूप में फैली हुई हैं। कि वह बीज अब एक संपूर्ण वृक्ष बन चुका है। सोचते आनंद, सन् 1947 से अब तक देश की परिस्थिति में कितना गुणात्मक परिवर्तन हुआ है! दासता के बंधन टूट गये और राष्ट्र के पुनर्निर्माण की ओर ध्यान देने का काल आ गया है। राष्ट्र-जीवन को सभी क्षेत्रों में सुधारने की चुनौती उनके सामने आ खड़ी हुई है। देश के 15-20 हजार ग्रामों और नगरों में चलने वाली संघ-शाखाएँ तथा उनके लाखों स्वयंसेवक डॉक्टर साहब के निधन के तीन दशक बाद भी उनकी कल्पना का भारत खड़ा नहीं कर पाए हैं।...

इसलिए बात करने से नहीं, काम करने से कुछ होगा! इस मृतुन्जय भारत के सम्यक् उत्थान हेतु ‘विद्ययास्य धर्मस्य संरक्षणं परमं वैभकं नेनुमेतत् स्वराष्ट्रम्’ के लिए, इस मृत्युंजय देश के उन जीवनादर्शों की रक्षा और अभिवृद्धि के लिए जो अमर हैं, उस तत्वज्ञान के लिए जो इस मृत्युंजय देश ने अपने व्यवहार में उतार लिया है, हमें चौकस रहना है! सजग पहरेदार बने रहना है।.....

स्वभाव से साधारण से युवा दिखने वाले आनंद का चेहरा अब गंभीर रहने लगा था। वे हरदम यही सोचते कि संघ के क्रियाकलाप ही मेरा असली जीवन हों! मैं इनसे पूर्णतः एकरूप हो जाऊँ। दूसरा कोई रंग ही न बचे जीवन में तभी तो एक सच्चा स्वयंसेवक सिद्ध हो सकूँगा। अजातशत्रु हो पाने के लिए इस ‘स्वभावो दुरतिक्रमः’ को भी बदलकर अपने जीवन से आदर्श स्थापित करना होगा कि- इस देश से तो धर्म का नाता है मेरा। यहाँ पहले आध्यात्मिक जागृति हुई, तब दैहिक जीवन में सम्पन्नता आई। बुद्ध के जागरण के बाद अशोक का विशाल साम्राज्य आया। शंकराचार्य ने वैदिक धर्म की विजय पताका फहराकर तो स्वर्ण युग ही ला दिया। श्रीमन्माध्वाचार्य के धर्म जागरण से ही तो विजयनगर के समृद्धशाली साम्राज्य का निर्माण हुआ! संत ज्ञानेश्वर से लेकर समर्थ रामदास तक संतों की परंपरा ने महाराष्ट्र में धर्म जागरण की जो लहर पैदा की, उसी से तो शिवाजी महाराज को बेजोड़ नेतृत्व प्राप्त हुआ! गुरु नानक देव ने पंजाब में अध्यात्म की ज्योति जगाई, जिसने अंतिम पाँच गुरुओं को धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र धारण करने की प्रेरणा दी।

‘पर आज सब कुछ बिखर-सा रहा है’ हताश से आनंद निश्वास छोड़ते।

आध्यात्मिक और रणकुशल दोनों ही प्रकार के प्राचीन व आधुनिककाल के महापुरुषों का स्मरण अब छूट रहा है नई पीढ़ी से।... आयातित संस्कृति ने जीवन को दुरंगा बना दिया है। अधकचरी सभ्यता ने कहीं का नहीं छोड़ा हमें। जीवन-मूल्य गिर गये हैं! असमानता, भ्रष्टाचार और फैशन का पार नहीं है। हिंदू कहाने में, कहने में लाज लगती है हमें। सेक्युलरिरिज्म का छद्म ढोल लटका रखा है गले में हमने! न काशी विश्वनाथ की चिंता है, न राम की जन्मभूमि की!

सो अभी तो बहुत कुछ करना है! पर कैसे? पता नहीं। वे किंकर्त्तव्यविमूढ़-से अक्सर बिस्तर में ढह जाते। रात में वही-वैसे ही रोमांचकारी सपने आते। जाने कहाँ-कहाँ भटकता उनका कच्चा मन जिस पर न जाने कितने-कितने रंगरेज, कैसे-कैसे विचित्र और पक्के रंग डाले दे रहे थे। फलतः वे आठों पहर विचार करते कि यह बहुत कुछ इस अदना से जीवन में कैसे कर पायेंगे हम। अभी तो सिर्फ एक शाखा मात्र के मुख्य शिक्षक हैं! ओक जी की भाँति खंड प्रचारक भी नहीं। निस्संदेह कार्यवाहक आदि प्रशासनिक पदों या क्रीड़ा प्रमुख जैसे पदों के बजाय उन्हें बौद्धिक प्रमुख, सेवा प्रमुख जैसे प्रचारक पद आकर्षित करते थे। कि ऐसा ही कोई माध्यम पाकर वे भारत के जन-जन में उसके स्वर्णिम अतीत के प्रति गर्व जगाकर देश को फिर एक बार परम् वैभव के शिखर पर ले जा सकते हैं। पर अभी तो वे खंड प्रचारक भी नहीं हैं। इसके बाद नगर प्रचारक, जिला प्रचारक, विभाग प्रचारक, प्रांत प्रचारक, प्रांत के बाद अंचल और तब कहीं जाकर सरसंघ चालक बनेंगे। ओह! कितना लंबा रास्ता है? कितने त्याग-तप, परिश्रम, संघर्ष और लगन-अध्ययन की जरूरत है!

और वे जुट जाते एक नये सिरे से। एक नई तेजी से।.....

उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक माधव सदाशिव गोलबलकर हुआ करते थे कि जिन्होंने अपने यशस्वी अथक् प्रयासों से भारतभर में शाखाओं की संख्या लगभग 20,000 तक पहुँचा दी थी और उन्होंने ‘हमारी राष्ट्रीयता’ नामक पुस्तक लिखकर सोये हुए स्वयंसेवकों में एक नई चेतना जगा दी थी। उन्हें हरेक आरएसऐसी सम्मान और श्रद्धा से गुरुजी कहा करता था। जबकि डॉक्टर साहब के मुताबिक संघ ने किसी व्यक्ति विशेष को गुरु स्वीकार नहीं किया था, क्योंकि यह हाड़-मांस का पुतला मनुष्य तो कभी भी विकारों का शिकार हो सकता है! इसलिये संघ ने भगवाध्वज (हिंदू-धर्म और राष्ट्रीयता के प्रतीक) को ही अपना गुरु मान लिया सदासर्वदा के लिये।

और यों तो आनंद को न खेलों में रुचि थी न स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में। ऐक्टिंग करना, गीत गाना या भाषणबाजी जैसी प्रतियोगिताओं के चक्कर में भी वे कभी नहीं पड़े। अपने छात्र जीवन में उन्होंने सिनेमा भी नहीं देखा था और कभी पिकनिक पर भी नहीं गये थे। किंतु संघ की ओर से पगारा डैम पर आयोजित शीत शिविर में अपनी शाखा के स्वयंसेवकों की अगुआई करते हुए उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया था।कि इस शिविर में उनका उत्साह देखते ही बनता, कि इस त्रिदिवसीय शिविर के लिए उन्होंने महीनों से तैयारी की थी। अपने लिए नया गणवेश सिलवाया था। अतीतकाल के भारतीय वीरों की वीरगाथाएँ कंठस्थ की थीं। वीरता पर दो-तीन मौलिक कवितायें भी रच डाली थीं उन्होंने। और अपनी गुल्लक तोड़कर साथी स्वयंसेवकों तक के किराये का भुगतान किया था।

डैम के चारों ओर अपूर्व शांति और खुशनुमा माहौल था। घर से निकलकर पहली बार वे इतनी बड़ी खुली जगह में आये थे-जहाँ सुदूर क्षितिज तक जल-ही-जल के दर्शन होते कि जहाँ एक समूची नदी पूरी तरह बंधी हुई शांत खड़ी थी। आसपास सुंदरवन, जिसमें भाँति-भाँति के पेड़-पौधे, जिन पर कलरव गान करते भाँति-भाँति के बहुवर्णी पक्षी।...

आनंद भाव-विभोर हो उठते।

उन्हें लगता कि प्रकृति समूची उद्दामता के साथ उन्हें अपनी ओर खींच रही है कि जीवन महज एक घर, एक नगर, एक नौकरी का नामभर नहीं है। जीवन इतना-सा संकुचित नहीं, बहुविराट हैकि उसके रोजी-रोटी, घर-परिवार, समाज जित्ते अंजुलिभर उद्देश्य न होकर बहुत व्यापक अर्थ हैं। जीवन को जीवन की

इस व्यापकता से जोड़ना है तो बहुत कुछ करना होगा! क्या? इसकी उन्हें खबर न थी।...

शिविर में पृथक्-पृथक् तंबू तान दिए गये थे। रोज प्रातः 4 बजे हर हर महादेव ऽऽ हर हर महादेव ऽऽ! के तुमुल घोष के साथ जागरण होता। शौचक्रिया से निवृत्त होकर खेल-कूद, आसन, योग-ध्यान हेतु शाखायें लगायी जातीं।

ध्वज एक ही होता। सभी कतारबद्ध हो अंत में समूह स्वर में प्रार्थना करते। फिर जलपान, फिर खेल-कूद। उसके बाद स्नान-भोजन और विश्राम! तदुपरांत दुपहर बौद्धिक में किसी एक विचार पर विमर्श हेतु ‘चर्चागठ’ तैयार किये जाते। इन ग्रुपों में चर्चा उपरांत किसी एक प्रवासीय प्रांतीय अथवा विभागीय प्रचारक का बौद्धिक (भाषण) होता।

यह बौद्धिक सत्र काफी उत्तेजक होता था। इस में प्रायः आभास कराया जाता कि हम एक महान् राष्ट्र और संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं और हमें यह महसूस करना चाहिये कि इस महान् संस्कृति के पुनरुत्थान और प्रतिष्ठापन की जिम्मेदारी हमारे ऊपर है। हम अपने शरीर और आत्मा को सिर्फ भारतमाता की सेवा में लगायें।

जो संस्कृति-शत्रु हमारा इतिहास भारत में आर्यों के पदार्पण से निरूपित करते हैं, वे बुद्धिवादी, षड्यंत्रकारियों के पक्षधर और विजेता का इतिहास लिखने वाले चारण-भाट हैं। वे नहीं मान सकते कि कोलम्बस के अमरीका का पता लगाने से पहले हमारा विस्तार एक ओर तो अमरीका तक फैल चुका था और दूसरी ओर चीन, जापान, कम्बोज, मलय, श्याम, हिंदेशिया तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी देशों तथा उत्तर में साइबेरिया और मंगोलिया तक फैला था। हमारा सशक्त राजनीतिक साम्राज्य भी इन दक्षिण-पूर्वी सभी क्षेत्रों में 1400 वर्षों तक फैला रहा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस युग-युगांतर से चले आये राष्ट्रीय लक्ष्य को पूर्ण करने का संकल्प लिया है जिसके प्रथम पग के रूप में इस समय हिंदू समाज के बिखरे हुए तत्त्वों को संगठित करके आध्यात्मिक एवं भौतिक जीवन दोनों ही क्षेत्रों में एक अजेयशक्ति के निर्माण का काम हमें करना है। और यह जागतिक महान् लक्ष्य केवल हिंदू ही पूर्ण कर सकता है- अन्य कोई नहीं। जैसे सूर्य-चंद्र की परिभाषा हो सकने पर भी चरम सत्य की परिभाषा नहीं हो सकती, वैसे ही मुसलमान, ईसाई की परिभाषा है पर हिंदू अपरिभाष्य है! हिंदू राष्ट्रीयता हमारे राष्ट्रीय भवन की आधारशिला है। कि भारत में जो अहिंदू हैं, उन्हें हिंदू भाषा और संस्कृति अपनानी चाहिये! हिंदू धर्म की पूजा और उस पर श्रद्धा करना सीखनी चाहिये!

और हमारा यह कर्त्तव्य है कि उन्हें हम यह सिखायें कि मनुष्य हिंदू ही पैदा होता है- बिना नाम का, मात्र मानव के रूप में! बाद में सुन्नत या बपतिस्मा द्वारा अधर्मी उसे मुसलमान या ईसाई बना डालते हैं।

हिंसा सकारात्मक है और अहिंसा नकारात्मक। दुनिया ताकत को पूजती है। इसका गवाह हमारा प्राचीन तथा महान् राष्ट्र है। जिसका इतिहास-जिसके वीरों की शौर्य गाथायें हमारे आदर्श हैं।

ये धर्मनिरपेक्षता, ये समाजवाद, ये लोकतंत्र तो सिर्फ ढकोसले हैं!

ये तिरंगा सिर्फ शून्य भरता है हमारे भीतर!

ये वर्णहीन, वर्गहीन समाज की कल्पना तो थोथा नारा है।

जिन्होंने सांप्रदायिक एकता के बिना कोई स्वराज नहीं का ऐलान किया था, उन्होंने हमारी महान् और प्राचीन जनता की जीवनदायी शक्ति की हत्या करने का सबसे जघन्य अपराध किया हैकि दुर्भाग्यवश हमारे संविधान में इस भूमि के पुत्रों और आक्रमणकारियों को समानता का दर्जा देकर सभी लोगों को बराबरी के अधिकार दे दिए गये हैं। यह तो उसी प्रकार है- जैसे, कोई व्यक्ति अपने बच्चों और चोर के बच्चों को समानता के अधिकार दे दे और सारी संपत्ति उनमें बाँट दे।

और यह भी दिनोंदिन साफ होता जा रहा है कि महिलाओं को मताधिकार देना व्यर्थ है! इतिहास साक्षी है कि जहाँ भी महिलाओं ने शासन किया है वहाँ अपराध, असमानता और अराजकता इस प्रकार फैली है कि वह वर्णनातीत है।

हमारी संस्कृति में महिलाओं को एक कन्या, पत्नी, माता और सुमंगली के रूप में सम्मान दिया गया है, लेकिन विधवा को नहीं। विधवा को सार्वजानिक, सरकारी तथा धार्मिक समारोहों के लिए वर्जित माना गया है।

जबकि दुर्भाग्य से वर्तमान में एक विधवा ही सत्ता-अधिष्ठात्री है।

तब ऐसी चर्चा, ऐसा उद्बोधन, सारे भाईजीयों में एक सनसनी फैला देता और उन्हें एक ही बात सूझती कि मैं हिंदू-ये मेरी मातृभूमि, इसकी रक्षा मेरा परम् कर्त्तव्य ये रक्षा किसी विदेशी आक्रमण से नहीं ये रक्षा यहीं घुसे पूजागृहों, सत्तागृहों, उद्योग-धंधों में राष्ट्र के साथ भितरघात कर रहे तत्त्वों को निष्क्रिय करके, समाप्त करके करनी होगी।

और ऐसे उत्तेजक बौद्धिक के बाद प्रायः 5 बजे से 7 बजे तक फिर शाखा लगाई जाती। इस शाखा के बाद सभी मिल-जुलकर भोजन पकाते, खाते और रात्रि में कथा-काव्य के द्वारा मनोरंजन करते। इस हेतु अलग-अलग टुकड़ियाँ बना ली जातीं।

यहाँ आकर आनंद मानो एक विशाल सागर में विलीन हो गये थे कि उन्हें अपने होने का यानी जीवन की सार्थकता का पता चल गया था। शिशिर का चाँद जब संपूर्ण आभा के साथ नीले आकाश की झील में मंद-मंद तैरता तो आनंद को लगता कि उसके साथ वे भी ठंड से ठिठुरे जा रहे हैं। डैम से गिरती जलराशि की भयानक ध्वनि उन्हें रात में भी डराती नहीं, युद्ध में गाया जाने वाला शौर्य गीत प्रतीत होती। और वे तंबू से बाहर निकलकर दाँत कड़कड़ाते हुए भी यह दृश्य देखते अघाते नहीं। दूधिया चाँदनी में पेड़-पौधे और अथाह जलराशि सचमुच अद्भुत प्रतीत होती, गोया कि इन तीन दिनों में ही आनंद अपनी उम्र से बड़े हो गये थे! वे आकाश की ओर मुँह फाड़कर सितारों को ताकते हुए ब्रह्मांड के चिंतन में गुमसुम होना सीख गये थे।

सो लश्कर लौटकर अब वे पहले जैसे आनंद बिहारी नहीं रहे थे। यह बात अलग है कि वे अब भी पहले की ही भाँति नियमित शाखा लगाते। संघ के राष्ट्रीय त्योहार गुरु पूर्णिमा, रक्षा बंधन, विजयादशमी, मकर संक्रांति, वर्ष प्रतिपदा, हिंदू साम्राज्यदिवस इत्यादि सोल्लास मनाते।

इन उत्सवों में गुरु पूर्णिमा का सर्वाधिक महत्त्व होता। समस्त घटक इस दिन ध्वज लगाकर उसे गुरु का प्रतीक मानकर दक्षिणा अर्पित करते। संघ में कोई चंदा-शुल्क आदि का प्रावधान नहीं रखा गया था। छोटे-मोटे उत्सव, शिविरों, वन संचार, पथ-संचलन आदि कार्यक्रमों का सालाना खर्चा इसी दक्षिणा से चलाया जाता, इसलिये आषाढ़ मास की पूर्णिमा पर यह उत्सव आनंद पूरी प्राथमिकता से मनाया करते थे। इस अवसर पर संघ के प्रचारक अपने ओजस्वी भाषण में गुरु पूर्णिमा का अपूर्व बखान करते। निस्संदेह इस बाबत उनकी समग्र निष्ठा आर.एस.एस. के जन्मदाता डॉक्टर साहब हेडगेवार के प्रति होती।...

इसी प्रकार रक्षाबंधन पर्व पर भी ध्वज को राखी बाँधने के उपरांत सभी भाईजी एक-दूसरे को राखी बाँधकर एक-दूसरे की रक्षा का वचन या प्रतिज्ञा लेते। इस मौके पर भाईजी लोग हिंदू-हिंदू भाई-भाई अर्थात् राष्ट्रीय एकता और रक्षा का नारा देते। फलतः ये दोनों पर्व स्थानीय तौर पर निबट जाते। किंतु विजयादशमी को आनंद सहित समस्त शाखा शिक्षकों को अपने स्वयंसेवकों सहित नगर में एक नियत स्थान पर एकत्र होना पड़ता, जहाँ से वे पूर्ण गणवेश धारण कर ध्वज लेकर कतारबद्ध होकर नगर भ्रमण करते और मुख्य स्थान पर पहुँचकर ध्वज गाड़कर प्रार्थना के बाद विसर्जित हो जाते। इस पर्व पर भी संघ के प्रचारक हिंदू-राष्ट्र, हिंदू-धर्म का गुणगान करते हुए रावण पर राम की यानी असत्य पर सत्य की जीत का डंका पीटते हुए सारे हिंदू समाज को जागृत करने का व्रत लेने को प्रेरित किया करते।

मकर संक्रांति के पर्व पर सभी स्वयंसेवकों द्वारा तिल से तैयार मिठाइयाँ लाने की परंपरा थी, जिसे ध्वज के सम्मुख एक स्थान पर एकत्रित करा लिया जाता। ‘सूर्य उत्तरायण हुए हैं, हम भी हों’ ऐसा उद्बोधन दिया जाता। भीष्म पितामह की राष्ट्र सेवा याद दिलाई जाती। कि वे राष्ट्र-भक्ति की खातिर जान-बूझकर भी एक अधर्मयुद्ध के सेनानायक बने। हमें ऐसे महापुरुषों के सत्यनिष्ठ पथ का अपने जीवन में सदैव अनुसरण करना होगा।

और वर्ष प्रतिपदा के दिन (जैसा कि विक्रम संवत् के अनुसार चैत्रमास की पड़वा से नया वर्ष आरंभ होता है) अघोषित रूप से डॉक्टर हेडगेवार का जन्म दिन मनाया जाता और इसी तरह जेठमास में शिवाजी के राज्याभिषेक दिवस को हिंदू साम्राज्य दिवस के रूप में मनाया जाकर हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान का शंखनाद कर दिया जाता।

कहना न होगा कि तब आनंद बिहारी एक सच्चे घटक की हैसियत से अपने कर्त्तव्यपथ पर सर्वथा आरूढ़ थे। उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा, लगनशीलता तथा कौशल को देखते हुए संघ ने उन्हें बी.ए. करते-करते नगरीय संघ का प्रचारक बना दिया था।

ध्यातव्य है कि उनका जन्म प्रथम गणतंत्र दिवस की ठीक पूर्व संध्या पर हुआ था, इसलिये बिना नागा उन्होंने सन् 1972 में बी.ए. पास कर लिया था। तभी अकस्मात् भाग्य ने पलटा खाया और ऐसा पलटा खाया कि आनंद बिहारी यकायक धड़ाम से चारोंखाने चित्त गिर पड़े!

हुआ यों कि जरूरत से ज्यादा धन के लालची उनके बड़े भाई बाबूजी रिश्वत के आरोप में बिजली विभाग से बर्खास्त कर दिए गये थे। और उधर जरा से अंतराल में बेहट थाने पर थानेदार के रूप में तैनात पिताजी की रतवा की डांग में दस्युदल से मुठभेड़ में मृत्यु हो गई सो, अब आनंद को नौकरी ही नौकरी नजर आने लगी थी। कि नौकरी के लिये वे पागलों की तरह मारे-मारे फिर उठे थे।

संघ की गतिविधियों में अब पहले जैसा जी न लगता उनका!

अलबत्ता, नगर प्रचारक की हैसियत से उन्हें विभिन्न शाखाओं में बौद्धिक प्रचार के लिये मजबूरन जाना पड़ता।

उन दिनों बांग्लादेश बन जाने से हिंद में शरणार्थियों की बाढ़ और नवनिर्मित देश के सहायतार्थ सीमेंट, शक्कर जैसी वस्तुओं के भारी मात्र में निर्यात के कारण आवश्यक वस्तुओं का अभाव-सा होने लगा था। युद्ध के भारी खर्चे की बदौलत महँगाई आसमान में चढ़ गई थी और ऐसे कुसमय में आनंद को क्लर्की, मास्टरी या उससे मिलती-जुलती नौकरी तो दूर चपरासीगीरी या चौकीदारी मिलने के भी आसार नजर नहीं आ रहे थे। तब उन्हीं दिनों बेरोजगारी की पीड़ा से जूझते आनंद ने यह कविता भी लिखी-

सुबह-सुबह घर में किलकते हैं बच्चे

दोपहर पत्नी पास-पड़ोस में करती है चुहलबाजियाँ

और शाम को दोस्तों के बीच बैठकर

एक स्वर्गिक सुख में डूब जाती है मेरी आत्मा!

पर लगता है-

यह भी एक अलभ्य सपना है!

जब हाथ को काम नहीं,

तो चहकते-फुदकते बच्चे कहाँ?

रिसते-तपते घावों को ठंडक के अहसास से भर देने वाली

गृहिणी कहाँ!

कहाँ हैं जिंदगी को रौनक अता फरमाने वाले दोस्त!

पेड़ों पर चहकती-फुदकती चिड़ियाँ शिकारियों ने भूनकर खा ली हैं.

धरती की हरियाली-

जिसका चेहरा पत्नी सरीखा है,

बहुमंजिला इमारतों की छतों पर सूख रही है.

हाँ!

मेरे तईं मिट गई है कुदरत की सारी नेमत!

और मैं देखता हूँ अपने इन दो समर्थ हाथों को

जिन्हें सिर्फ काम की तलाश है?

जाहिर है, अब आनंद बिहारी राष्ट्र, राष्ट्रीयता, हिंदू, हिंदुत्व सब भूल गये थे। अम्मा दुःखी और दुबली हो गई थीं। बड़ा भाई (बाबूजी) बिजली फिटिंग जैसी छोटी-मोटी मजदूरी कर उठा था। बेचारी भाभी एक प्राइवेट स्कूल में (फ)टीचरी पाने के लिये सार्वजानिक सौम्य बनाम धूर्त संचालक के रोज-ब-रोज निहोरे कर रही थीं। कुल मिलाकर सब बेहाल थे आठो पहर! मानो त्राहि-त्राहि मची थी घर में। चूल्हा एक टाइम जलता। गरीबी और बदहवासी मानो चेहरों पर चिपक गई थी। पर पारिवारिक एकता और दृढ़ता की जीती-जागती मिसाल यह बनी कि उन्होंने मंझले को डॉक्टर बनाने का निर्णय नहीं बदला था।...

सो आनंद चले गये थे उन्हीं दिनों अपने छोटे मामाजी के यहाँ, जो बेचारे खुद सहकारी संस्था में पियून थे। पर उन्होंने अपनी पहुँच के मुताबिक बी.ए. पास आनंद बिहारी को एक सेठ के यहाँ मुनीमी में लगवा दिया था। यानी अकाउंटेंट बनवा दिया था।.....

(क्रमशः)