(4)
क्षेपक
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बरसात हालाँकि 8-10 दिन पहले थमी थी, पर इतने ही दिनों में धरती का पानी सूख गया था और सब ओर हरियाली की चादर बिछ गई थी। किंतु डैम से गिरता पानी अब भी उत्पात मचाये था। उसका भयानक शब्द आज भी वहाँ से गुजरने पर पूर्ववत् सुनाई पड़ता। कि रात के वक्त वह शब्द सन्नाटा तोड़कर बस्ती में घुस आता और पेशाब आदि के लिये आँख खुलने पर अनवरत् सुनाई पड़ता रहता।
जबकि नदी अब पहले की भाँति तनी-तनी न थी, बल्कि लहराकर बह उठी थी।
गलियाँ और मैदान सूख जाने से और छतों का टपकना बंद हो जाने से बस्ती में बरसात का नामोनिशान मिट चुका था। उजेला पाख होने से आनंद को रात 8-9 बजे तक भी मिल से लौटने में कोई दहशत न होती। चाँदनी में डूबी सारी कायनात अत्यंत मनोरम प्रतीत होती थी।...
उस दिन जब वे लौटकर आये नौकरी से, बैठक का नक्शा बदला हुआ था। तख़्त और लोहे की पुरानी कुर्सियाँ निकालकर कबाड़खाने वाली कोठरी में रख दी गई थीं। आँगन भी खाली-खाली-सा था। उसकी अलगनी तक खोलकर रख दी गई थी। बैठक में फर्श और दरियाँ बिछी थीं। आँगन में टाट-पल्ली और पुरानी चद्दरें पड़ी हुई थीं। और आँगन गोया जगमगा रहा था। और बैठका! आनंद ने गौर किया-घर में वन-टेन सीरिज में बल्ब लगे थे।
मामाजी और मामी दोनों ही व्यस्त नजर आ रहे थे। जबकि रसोई आज ठंडी थी! और दिनों में इस वक्त तो वे दोनों ही रसोई में व्यस्त मिलते थे। कारण कि खाना एक टाइम ही बनाया जाता। सो प्रायः ही चौके में शाम के बाद गहमा-गहमी बढ़ जाती। किसी भंडारे की रसोई-सा दृश्य उपस्थित हो जाता।
सो, यह बदली हुई परिस्थिति देखकर आनंद को तनिक आश्चर्य हुआ। उन्होंने दोनों प्राणियों की ओर मुँह फाड़कर पूछा, ‘आज कुछ हो रहा है?’
‘कुछ नहीं!’ मामाजी बच्चों की तरह ना में गर्दन मटका कर बोले। पर उनकी मूंछें हँस रही थीं।
‘कुछ तो!’ आनंद मुस्कराये।
‘कुछ नहीं है,’ मामीजी भी सूखे से मुँह बोलीं, ‘सोई तो, क्या है कुछ दिख रहा है, तुम्हें?’
‘कुछ तो है’ कहकर आनंद कपड़े बदलने चले गये। मामाजी पीछे आ गये, ‘क्यों उतारते हो! अभी भीड़-भाड़ होगी।’
‘पर आज है क्या?’ आनंद ने जैसे परवाह न की और घरेलू कपड़े, लुंगी आदि तलाश उठे।
‘तो तुम्हें पता नहीं है? हमें तो लगता है, तुम बामन बालक नहीं हो!’ मामाजी ने विनोद किया।
‘कुछ पता तो चले!’ आनंद के चेहरे पर अप्रकट जिज्ञासा थी।
‘अरे भाई! आज भगवान् पर संकट आने वाला है!’ मामाजी ने गंभीरतापूर्वक मजाक-सा किया, ‘सो हम लोग तो आज अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे-देख लो, चूल्हा बुझा पड़ा है तुम्हें करना हो तो, बात अलग! वैसे सूतक लग चुका है।’
और आनंद के सामने से रहस्य का परदा एकदम से हट गया।
कोई आया था, इसलिये मामाजी बाहर चले गये। मामीजी भी किसी धरा-उठाई, साज-संवार में लग गई थीं। आनंद लुंगी पहनकर, बनियान के नीचे से जनेऊ निकालकर और उसे कान पर चढ़ाकर छत की मोरी पर पेशाब के लिये चले गये।.....
तभी उन्हें छुटपन में किसी भागवत सप्ताह में पंडितजी के मुख से सुनी कथा याद आने लगी कि एक समय इंद्र और बलि दोनों भाई आपस में ही लड़ते-लड़ते जब परास्त हो गये, युद्ध अनिर्णीत रहा, कोई फैसला नहीं हो सका दोनों के मध्य हार-जीत का तो भगवान् के पास गये और पूछा, ‘हमें शक्ति कैसे मिले? हम तो थक कर चूर हो गये हैं। हमारी सेना मरी-कटी पड़ी है। अब जीत का डंका कैसे बजे? धरती का राजा कौन हो!’
भगवान् ने उन्हें समुद्र मंथन की सलाह दी। कहा, ‘उसी से अमृत निकलेगा। जिसका पान कर तुम, तुम्हारी सेना सब अमर हो जाओगे। फिर युद्ध का निर्णय हो जायेगा। जो जीतेगा, सो वसुंधरा पर राजसुख भोगेगा।’
तब उन लोगों ने एक सम्मिलित प्रयास किया। कि उन्होंने मदिरांचल की मथानी बनाई, उसमें शेषनाग को रस्सी की तरह लपेटकर समुद्र मंथन आरंभ कर दिया।
आनंद को हँसी आ गई, ये सुर थे तो बड़े तेज! उन्होंने शेषनाग के फन की ओर दैत्यों को लगा दिया और पूँछ की ओर खुद लग गये।
फिर उनके चेहरे पर विस्मय तैर उठा तब उस मंथन से 14 रत्न निकले। मजे़ की बात यह कि सबसे पहले विष निकल पड़ा। अब सभी घबड़ा गये, कि इसे कौन पिये? हम तो आये थे अमृत की खोज में। लेकिन वहाँ शिव मौजूद थे। विष्णु ने उन्हें पानी पर धर दिया, ‘यह संकट तो आप ही टाल सकते हैं प्रलयंकर!’ सो शान पर चढ़कर शिव ने वह हलाहल शर्बत की तरह गटागट पी लिया।
आनंद ने सोचा, अगर शिवजी रामनाम का जापकर विषपान न करते, तो मर ही जाते। उन्होंने तो ‘रा’ के रकार और ‘म’ के मकार के बीच ही पूरे विष को कंठ में समो लिया था। नीचे कहाँ उतरने दिया।...
पर यह संकट टल गया और समुद्र से लक्ष्मी का अवतरण हुआ तो उन्हें विष्णु ने ले लिया। गज ऐरावत और अश्व उच्चैश्रवा निकले तो इंद्र ने हथिया लिये।
दैत्य तो अमृत के लिये धीरज धरे बैठे थे। जानते थे, अमृत पा जायेंगे तो इन जानी दुश्मन देवों को हराकर सारे रत्न खुद ही छीन लेंगे।.....
मगर! आनंद के चेहरे पर एक मधुर स्मित उभर आई, अमृत कलश निकला और दैत्यों ने छीना-झपटी की तो विष्णु ने तुरंत मोहिनी का रूप धर लिया, बोले, ‘पाँत से बैठो! एक-एक घूँट सभी को मिलेगा।...’
और आनंद के भीतर एक सरल बालक ताली मार उठा, उनके मानसपटल पर वह दृश्य जीवन्त हो उठा जिसमें कि मोहिनी बने विष्णु को मूर्ख दैत्यों ने वह कलश सौंप दिया और पाँत बनाकर बैठ गये।
विष्णु ठहरे जनम के ठग! उन्होंने अमृत देवों की पाँत से बाँटना शुरू कर दिया! देव और दैत्य एक-दूसरे से पीठ टिकाये पंक्तिबद्ध बैठे थे! और देवताओं को अमृत बाँटते-बाँटते विष्णु जब चंद्र और सूर्य के पास आये तो उनसे पीठ टिकाकर बैठे बलि के सेनानायक दैत्य राहु ने अपना मुख देवताओं की ओर कर लिया। उस मायावी ने देव-स्वरूप भी धर लिया था। मोहिनी का रूप धरे विष्णु उसे पहचान न पाये, देवता समझकर उसके चुल्लू में भी अमृत डाल बैठे। तभी सूर्य-चंद्र ने एक साथ चिल्ला कर कहा, ‘यह तो असुर है ऽऽ!’
तब विष्णु ने तुरंत अपना मोहिनी रूप तजकर चक्र से राहु का शिरोच्छेद कर दिया। किंतु वह अमृत पान कर चुका था इसलिये मरा नहीं। देवताओं ने कहा विष्णु से, ‘अब चक्र को रोक लीजिए। अब आप जितने टुकड़े करेंगे इसके, उतने ही अमर दैत्य खड़े हो जायेंगे हमारे लिये!’
उसका अलग हुआ सिर राहु और धड़ केतु के रूप में नया दैत्य बन गया था।
फिर इसी बात को लेकर वहाँ घमासान युद्ध छिड़ गया। चूँकि सुर अमृत पान करके अमर हो चुके थे। इसलिये असुरों को परास्त होकर भागना पड़ा। उनका राजा बलि उन्हें पाताल लोक में लेकर चला गया।...
बस तभी से जब सूर्य और चंद्र अपनी कमजोर अवस्था में होते हैं, राहु उन्हें ग्रस लेता है!
आनंद सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गये।
बैठक में दस-पंद्रह आदमी आ चुके थे। और आते जा रहे थे। आँगन में औरतों का जमावड़ा हो गया!
मामाजी ने इस संकट की घड़ी में भजन-कीर्तन का आयोजन किया था।
आज भाद्रपद का मासांत दिवस था। पूर्णिमा थी और पूर्ण चंद्रग्रहण था आज! आनंद ने अखबार में पढ़ा था।
उन्होंने कुल्ला करके मुँह धोया और भीतर कमरे में जाकर पायजामा तथा कुर्ता पहन आये।
मामाजी बैठक में तैश में बोल रहे थे, ‘विज्ञान चंद्रमा पे नईं, सूरज पे पहुँच जाय
हमारे पत्रा को फैल करिदेइ तो जानें।’
‘पंडिज्जी! सबल्लील कै बजे है?’ एक आदमी ने पूछा।
मामाजी पास की नजर का चश्मा चढ़ाकर गंभीरतापूर्वक पत्रा के पन्ने में आँखें गड़ाते हुए बोले, ‘तुम्हारा सूतक तो लग चुका है दुपहरिया में 1०:38 से ही और कोर दबेगी रात में 10:38 पे, सबल्लील (मध्य) होगा बारह बजके अठारा मिनट पे और छूटेगो (मोक्ष) 1:56 पे।’ कहकर उन्होंने चश्मा उतार दिया, सामने देखते हुए बोले, ‘लेउ साब! इसमें तुम विज्ञान नई वैज्ञानिक के बाप बने रहो,’ मामाजी उँगली तानकर बोले, ‘एक क्षण मात्र का भी फरक पाड़ देओ तो जानें!’
‘अरे हओ!’ एक बुजुर्ग ने मोहर लगाई, ‘उतरि गये होंगे ससुर किसी पहाड़ पे और गड़हा (गड्ढे) से भरि ले आये होंगे मट्टी! चंद्रमा पे काये, नखलऊ पहुंचि गये वे!’
मामाजी गोया सत्यारूढ़ थे और उनका चेहरा चढ़ा रह गया था मिनट भर के लिये। किसी पोस्टर की भाँति-एक ठहरा हुआ-सा चित्र।.....
‘जि कही पंडिज्जी,’ अन्य व्यक्ति ने निहोरा-सा किया, ‘जि गहन कौन-कौन के लाने भारी है?’
अब तक आगंतुकों की संख्या में काफी इजाफा हो चुका था। औरतें जब निकलतीं तो आदमी लोग रास्ता छोड़ देते, फिर वहीं जम जाते! बैठक छोटी पड़ रही थी। भीतर आँगन में भी खासी गहमा-गहमी हो गयी थी। मामीजी ने बुलौवा लगवा दिया था और शौक-शौक में प्रीति भी सुधा को लेकर चली आयी थी।
चश्मा चढ़ाये मामाजी पूर्ववत् पत्रा शोध रहे थे ‘देखो भाई, पशु-पक्षी, बाल-वृद्ध और गर्भवती स्त्रियों के लिये तो क्षम्य है, मगर और सब लोग सूतक में अन्नजल न लेयं! स्नान बताया है- रात्रि में तीन बजकर उन्नीस मिनिट पे। उसके बाद भगवान् की पूजा अर्चना कर, उसारे का द्रव्य, जैसे- अनाज, पैसा-फैसा जोइसी व मेहतरानी वगैरा को देवें, तब अगले दिन खाना-पीना करें।
और बताई गई है, कुंभ-मीन को दर्शन योग्य नहीं है।
इसका फल जि होगा, मामाजी सोच-सोचकर मुखाग्र बोल रहे थे, ‘कि जैसे तस्कर, जल से आजीविका चलाने वाले, राष्ट्रद्रोही, आतंकवादी हैं, पशुपालक हैं, गर्भवती हैं, मजूर हैं, उच्च लोग श्रीमंत धनिक वगैरह हैं जिन सबके लिये नेष्ठ फलसूचक है।...
और इस काल में समुद्री चक्रवात आइ सकते हैं, तूफान वगैरा जिनसे मार्गरोध होगा। अपहरण वगैरा चौर्य कर्म बाधक भी है। अग्निपात सरीखी घटनायें घटि सकती हैं।’
मामाजी की दिलचस्प जानकारी के बाद आनंद ऊपर चढ़ गये कि एक तो उनकी राशि मेष थी, सो ऐसा कोई खतरा नहीं था चंद्र छाया का! दूसरे आँगन की महिलाओं में प्रीति भी आ बैठी थी।...
आनंद ने एक नजर में ही देख लिया था कि उसने मेहरून कलर का सलवार-सूट पहन रखा है, उसकी चुन्नी झक सफेद है, उसके स्याह बाल वनटेन बल्बों की तेज रोशनी में चमक रहे हैं।
छतें काफी बड़ी और आँगन को छोड़कर आपस में जुड़ी थीं। आनंद उन पर ऐसे चल पड़े, मानो नदी पार नौकरी पर जाते हो! फिर थोड़ी देर बाद अपने हाथ काँखों में दबाकर कुछ सोचते हुए धीमे-धीमे टहल उठे।
आकाश एकदम निर्मल था। शुभ्र चाँद के कारण तारे लगभग अदृश्य। सब ओर छतों और अटारियों पर, पेड़ों पर, क्षितिज में एक छोर से दूसरे छोर तक और समूचे आकाश-पृथ्वी पर, दसों दिशाओं में दूधिया चाँदनी पसरी पड़ी थी।
वे आकाश को निरख उठे एकटक। फिर लगा समूचा आकाश उनके भीतर भरता जा रहा है। कहीं-कहीं तारे झिलमिला रहे हैं नीले समुद्र में और चाँद तैर रहा है पूरब से पश्चिम की ओर, तनिक दक्षिण की ओर झुका-झुका-सा!
मुँडे़र पर बैठ गये आनंद बिहारी।
प्रीति का चेहरा अब नहीं दिख रहा था उन्हें! न भीतर, न बाहर।...
सहसा उत्तर-पूर्व की ओर से चाँद की कोर दब उठी।
कुछ लोग चबूतरे पर ऊपर की ओर मुँह फाड़ रहे थे, उन्होंने कहा, ‘लग गओ गहन, लगन लगो।’
मामीजी आँगन में काँसे की थाली के पानी में देखकर बोलीं, ‘स्पर्श हे गओ!’
बैठक में कीर्तन चल उठा।
आँगन में औरतों की ढोलक बज उठी।
आनंद रोमांचित हो उठे। लगा, सचमुच राहु ग्रस उठा है चंद्र देव को।
और धीरे-धीरे उसका फंदा कसता ही जा रहा था।...
प्रीति दबे पाँव छत पर आ गई। आनंद को पता न चला। आकाश का मनोहारी दृश्य, तारों की जगमगाहट, शीतल समीर का सफर, सब कुछ निरर्थक हो गया उनके लिये। कि- अब चाँद रक्त-रंजित, कटा हुआ-सा, अंग-भंग, धड़ से जुदा, लोहू के थक्कों-सा प्रतीत हो उठा था उन्हें!
और एक विषाद मिश्रित भय उनके चेहरे पर उतर आया था। नीचे के भजन-कीर्तन उन्हें कोलाहल सदृश लग उठे। ढोलक की थाप युद्ध का नगाड़ा बन गई।
कि एक पौराणिक युग में प्रवेश कर गये थे वे! उनके भीतर बहुत कुछ घट रहा था इस वक्त, एक समूचा देवासुर संग्राम! जैसे, कि इस भयंकर युद्ध के चश्मदीद साक्षी आनंद-बाह्य जगत् से निरपेक्ष, तूर्या अवस्था में पहुँच गये मानो। अब जगाने से भी न जागेंगे। गोया अपने शून्य में उतरकर शरीक हो गये एक मिथकीय जगत् में साक्षात् देख उठे थे एक द्वंद्व युद्ध, जिसमें भयानक रात्रि में भागते हुए चंद्र ऋषि का रथ ध्वस्त कर राहु ने उसका शिरोच्छेद कर डाला था। शरीर को असंख्य टुकड़ों में विभक्त कर एक लोथड़ा-सा बना डाला था।
आनंद सिहर उठे।
तभी प्रीति के स्वर ने उन्हें डरा दिया-
‘अब पेड़ दैत्यों से नजर आ रहे हैं।’
चौंककर उन्होंने साहस बटोर कर मुड़कर देखा! होश में आते हुए से बोले, ‘कितना डरावना लग रहा है सब कुछ ठंड-सी महसूस होने लगी है।’
‘क्यों न हो,’ प्रीति चहकी, ‘आखिर चाँद पर छाया पड़ गई धरती की! सूर्य की किरणों से ही तो चमकता है वो! तब कुछ तो गर्मी मिलती है चाँदनी से हमें! अब न रही चाँदनी तो वर्षात् की नम हवा ठंड तो छुड़ाएगी ही कुछ-न-कुछ’
आनंद ने देखा, वह सहज है। उत्फुल्ल है। बात करते हुए सिर मटकता है उसका तो कानों के बुंदे झूला-सा झूलते हैं।
चाँद गगन में अब धीरे-धीरे खुल रहा था। जिस कोने से दबा था, उसी कोने से।
प्रीति बोली, ‘जब एकदम पूरा ढका था, तो कैसे जीरोवाट का दूधिया-सा बल्ब फ्यूज हुआ था? है, न!’
आनंद होले-से मुस्काये।
‘और वो देखो-अब अब!’ प्रीति खुद चौंककर उन्हें भी चौंका रही थी, ‘ईद का चाँद हो गया, न!’
‘हाँ!’ आनंद ने गौर किया। फिर कुछ सोचकर बोले, ‘आज थोड़ी ही देर में इसने अपनी सारी कलाएँ दिखा डालीं।’
‘तुमने भी तो।’ प्रीति ने मजाक किया।
‘मैं डरा थोड़े ही था!’ आनंद ने मुस्कराकर हल्की-सी गर्दन झटकी।
‘कैसे नहीं?’ प्रीति ने खिलवाड़-सा किया, ‘हवाइयाँ उड़ रही थीं तुम्हारे मुँह पर। जैसा दयनीय चंद्र था वैसा ही आपका चेहरा’
‘चिढ़ाओ’ आनंद ने मन-ही-मन सोचा और रूठे-से बैठे रहे। प्रीति उन्हें छूने की हिम्मत न जुटा सकी।
छाया मुक्त होने पर चाँद पूर्व -सा चमक उठा। मानो उसका अभी-अभी उदय हुआ हो! और कभी अस्त न होगा। और न कभी फिर से कोई राहु ग्रसेगा उसे।
कि उस तेज प्रकाश में धरती खुद जगमगा उठी थी, चाँद-सी!
नीचे के भजन-कीर्तन ठप्प हो गये थे, न जाने कब के ! जिसको जहाँ जगह मिल रही थी, सोने की चेष्टा कर रहा था। प्रीति की खोज में सुधा छत पर आ गई और प्रीति पर नजर पड़ते ही उसे डाँटकर बोली, ‘तुम यहाँ हो! कहकर तो आतीं?’
प्रीति ने विवाद न किया, चुपचाप उठकर जाने लगी।
आनंद ने पलटकर भी नहीं देखा-सुधा का चढ़ा हुआ चेहरा। उसके तेवर, स्वर से ही भाँप गये थे कि- वह जब गुस्सा होती है तो और भी बचकानी लग उठती है।
और उन्हें ताज्जुब होता है कि वह तो प्रीति से दो-तीन साल छोटी है, तब भी उसकी डाँट पर प्रीति का जैसे पेशाब छूट जाता है, गोया वह प्रीति के लिये सेठानी का सिपाही हो!
फिर आनंद नीचे नहीं आये। छत पर ही लुढ़क लिये और गहरी नींद में न जाने क्या कुछ सपना-सा देखते रहे कि जब वे जागे, आँगन खाली था, घर सुनसान।
और आसमान की ओर सहसा नजर गई तो विस्मित रह गये थे वे, कि आज सूर्योदय पश्चिम में कैसे हो रहा है? फिर तनिक स्थिर हुए तो पता चला-अरे, चाँद डूब रहा है ये तो!
लेकिन उसकी छटा, उसका आकार बहुत चित्ताकर्षक था। उस पैंदी में सहसा ही उन्हें प्रीति का चेहरा प्रतिबिंबित होता दिखा।
उन्होंने आँखें मूंद ली। मानो उस दृश्य को भीतर उतार लेना चाहते हों। फिर उन्हीं खयालों में गुमसुम से बैठे रहे, कि जैसे वही छटा उनके चेहरे पर भी खिल उठी! तनिक ही देर में पूर्व में सूर्योदय हो उठा था। और आश्चर्य, कि आनंद ने इधर नजर उठाई तो इधर भी वही प्रीति थी।.....
वे नीचे उतर आये।
उन दिनों सिहोनिया में एक प्रसिद्ध जैनाचार्य ससंघ चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी आश्विन कृष्ण पक्ष द्वितीया को जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर श्री 1008 भगवान् शांतिनाथजी का महामस्तकाभिषेक समारोह बड़ी धूम-धाम से मनाया जा चुका था, जिसकी रिपोर्ट स्थानीय अखबारों में बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इसके अतिरिक्त उस अतिशय क्षेत्र में निरंतर प्रवचन कार्यक्रम चल रहा था, सो सेठानी रोज उकसा रही थीं सेठजी को। पर वे टस-से-मस नहीं हो रहे थे।…
आनंद को लग रहा था कि यह एक अच्छा मौका है। यूं वे बहुत शीघ्र जैन धर्म का रहस्य जान सकते हैं! सो एक दिन उन्होंने अच्छे भले में सेठानी से पूछ धरा कि- सिहोनिया जैसे इंटीरियर में ये मंदिर किस उद्देश्य से बनाये गये, किसने बनवाये और कब?
सेठानी को आमतौर पर दुपहर में बहुत फुरसत होती थी और वे हॉल में ज्यादातर अपनी छोटी सरौतिया से बैठी-बैठी छालिया काटा करती थीं। आनंद भी दुपहर में ही राइस मिल से लौटते। मामाजी के घर खाना तो एक वक्त शाम की शाम ही बनता था इसलिये थोड़ी बहुत भूख लग आती तो नीचे गोदाम में काम करते-करते कोई बहाना लेकर ऊपर हॉल में चढ़ आते और अंजलि वगैरह से अमूमन पूछ धरते, ‘आज क्या पका है?’
‘कढ़ी है पंडिज्जी! खाओगे?’ सेठानी अपनी हीनता भुनातीं पंडित लोग तो बडे़ टिपोछी (पाखंडी) होते हैं, इत्ता छोत-पाक कि चौके में भी सींचा (शरीर पर जल छिड़क कर शुद्ध करने की क्रिया) लेकर जायेंगे। किसी के घर खायेंगे तो बर्तन छोड़ देंगे जूठे और कोई इनके बर्तन में खा ले तो ‘माँज-धो’ के रखे। दूसरे के चौके में कच्ची नहीं खा सकते।…
‘खाओगे पंडित कढ़ी?’
वे धर्मभ्रष्ट करने लालच देतीं। मगर आनंद अनभिज्ञ इस दुष्टता से, लज्जा सने स्वर में कहते-
‘ले आओ! दे-दो एक रोटी।’
पर उस दिन हॉल की सीढ़ियाँ चढ़कर क्या बना है पूछने के बजाय वे सिहोनिया के मंदिर पूछ बैठे! और सेठानी किसी ऑडियो कैसेट की भाँति बज उठीं-
‘कोई पचास-साठ साल पहले अम्बाह के ब्रह्मचारी गुमानी मलजी को एक रात स्वप्न आया कि सिहोनिया में ‘ककनमठ’ के आसपास जो टीले हैं, उनमें भगवान् की प्रतिमाएँ हैं!
फिर क्या था,’ सेठानीजी की आँखें चमक उठीं, ‘समाज ने टीलों की खुदाई करवा डाली। और वहाँ हकीकत में भगवान् शांतिनाथजी की विशाल प्रतिमा निकली।
जो कि 7-8 गज से कम नहीं है। उसी में भगवान् अरहनाथ और कुंथुनाथ की भी प्रतिमाएँ कढ़ीं। तब वहाँ मंदिर बनवाया गया।’
आनंद विस्मय से सुन रहे थे।
सेठानी वैभव से बता रही थीं, ‘कि जब वहाँ पहला मेला लगने से पहले पानी नहीं था। लेकिन मेले के अवसर पर सूखे कुएँ में अपने आप पानी आ गया। भगवान् शांतिनाथ की वो प्रतिमा अतिशय युक्त प्रतिमा है। वो कम-से-कम हजार-डेढ़ हजार साल पुरानी होगी। प्रतिमा के अतिशय से ही तो सिहोनिया तीर्थ क्षेत्र बन गया! पानी का संकट दूर हो गया। वहाँ भगवान् का समोसरण आया था। वो अतिशय क्षेत्र है। हम जैन ही थोड़ी, सब जनता उन्हें चेतनाथ बाबा कहकर मानती है।’
आनंद उठकर नीचे चले गये। उनके मन में प्रवचन सुनने और तीर्थ क्षेत्र के दर्शन की लालसा जाग गई थी। यह जान कर प्रीति भी खासी उत्साहित हो गई। हारकर सेठजी को एक दिन हामी भरना पड़ी। जाने के लिये उन्होंने सिंचाई विभाग के अपने इंजीनियर मित्र की जीप माँग ली। और प्रातः 5 बजे ही आनंद सहित सपरिवार मुरैना जिले में स्थित सिहोनिया ग्राम के लिए कूच बोल दिया।
‘साधुओं के चातुर्मास के कारण सिहोनिया में अच्छा-खासा मेला लगा हुआ था। भव्य मंदिर के आसपास बनी धर्मशालाओं में सैकड़ों श्रावक-श्राविकाएँ अपना डेरा जमाये पड़े थे। बाहर से आने वाले लोग आमतौर पर यहाँ पर दो-तीन दिन के लिये आते, फिर उनका स्थान नव्यागत ले लेते। इस तरह की आवाजाही के कारण, अनवरत् क्रम से वहाँ की भीड़ में कोई कमी नजर न आती थी। और धर्मशालाओं में तिल धरने को ठौर न था। सो, सेठजी ने यह फैसला किया कि आज का ही प्रवचन सुनकर लौट चलेंगे।’
प्रवचन से पूर्व सबने जिनालय में जाकर भगवान् शांतिनाथजी, कुंथुनाथजी एवं अरहनाथजी की खड़गासन में स्थापित मूर्तियों के दर्शन किये। उत्सुक आनंद को सेठानीजी ने बताया कि भगवान् श्री 1008 शांतिनाथजी का समवशरण यहाँ आया था, इसी से यह अतिशय क्षेत्र है।
‘समवशरण क्या रथ होता है?’ आनंद ने पूछा।
‘अरे नहीं!’ सेठानी ने उन्हें प्यार से हटका, फिर समझाया, ‘एक विशाल सभा मंडप-जिसमें 20 हजार सीढ़ी ऊपर भव्य सिंहासन जहाँ से भगवान् धर्मोपदेश करते हैं!’
‘अच्छा!’ आनंद विस्मित हुए।
‘हाँ!’ सेठानी ने उनके अचंभे को और विस्तार दिया, ‘भगवान् सबकी बोली में-तुम चाहे जो भाषा-बानी वाले हो भगवान् सभी को उन्हीं की भाषा-बोली में बोलते सुनाई पड़ते हैं! हमारे यहाँ लेख है कि भगवान् की बोली में शब्द नहीं होते! ओंकार-सी ध्वनि होती है जिसे उनके गणधर जनभाषा में बोलते जाते हैं।’
आनंद मुँह फाड़े सुन रहे थे और देख रहे थे अपने समक्ष एक विशाल समवशरण! जो कि इस भू-मंडल से पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में सूर्य और तारागण के समान प्रतीत हो रहा था, जिसमें चारों दिशाओं में पादलेप औषधि के समान मणिमय 20,000 सीढ़ियों की रचना थी कि जो योजनों विस्तार लिये था, जिसकी प्रांगण भूमि नीलमणि निर्मित थी! वह मानस्तंभ, जिसे देख दुरभिमानी, मिथ्या दृष्टि लोगों का मान गलित हो जाये।...
तब आगे सेठानी ने बताया, ‘भगवान् के समवशरण में आये जीवों के मनोविकार स्वतः नष्ट हो जाते हैं। सब लड़ाई भूलकर आपस में प्रेम भाव से रहने लगते हैं। अंधा देखने लग जाता है, लंगड़ा चलने लग जाता है, कोढ़ी जैसे महारोगी का शरीर भी व्याधि मुक्त हो जाता है। समवशरण में उत्तम धर्म कथा और उत्तम धर्म कार्य के सिवा अन्य कोई कार्य नहीं रहता।’
बाहर प्रवचन पंडाल में सुंदर मंच पर श्री 108 चारित्र चक्रवर्ती आचार्य कीर्तिसागर महाराज विराजमान थे। उनके दाईं ओर उन्हीं की ओर तिरछा मुख किये अपने आगे अपनी चौकियों पर अपनी-अपनी पीछियाँ धरे श्वेत साड़ी में हंसिनी मानिंद 3 माताजी विराजमान थीं। और आचार्यजी के बायें बाजू उन्हीं की ओर तिरछा मुख किये 4-4 की पंक्ति में तीन पंक्तियाँ बनाये सर्व प्रथम पंक्ति में मुनिगण, दूसरी में ऐलक और तीसरी में क्षुल्लक साधु विराजमान थे।
इस विशालकाय भव्यमंच के सामने की भूमि फर्श और सफेदी से इंच-इंच ढकी हुई। पंडाल में स्टीरियो और अनेक पेडस्टल पेन लगे हुए। सभा मंडप में अपार जन-समुद्र! इस चकाचौंध में छुद्र से आनंद सेठ परिवार के पीछे सिकुड़ कर बैठ गये।
स्तुतिगान के बाद आचार्य श्री बोले, ‘प्रिय आत्मन! आज आप इस भव में हुए चतुर्दश कुलकरों की कथा सुनेंगे।’
हॉल में सन्नाटा छा गया। आनंद अपनी साँसें तक गिन सकते थे। प्रवचन आरंभ हुआ-
‘सुषुमा-दुषुमा नामक तीसरे काल में पल्य का आठवाँ भाग प्रमाण समय जब शेष रह गया, तब स्वर्ण समान कांति वाले प्रतिश्रुति कुलकर उत्पन्न हुए। उनकी आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण थी। उनका शरीर अठारह सौ धनुष ऊँचा था और उनकी देवी स्वयंप्रभा थीं।’
वे थोड़े रुके फिर बोले, ‘स्मरण रहे कि प्रथम कुलकर का काल इस अवसर्पणी कल्पकाल का सुखमा-दुखमा नामक काल था।’
आचार्यजी का यह ध्यातव्य वक्तव्य मंचस्थ साधु-आर्यिका समुदाय और अग्र पंक्ति में उपस्थित प्रबुद्ध श्रोताओं ने समवेत स्वर में इस तरह दोहराया मानो पहली कक्षा के विद्यार्थी हों! तब आचार्य श्री आगे बोले-
‘उनके समय में ज्योतिरांग कल्पवृक्षों का प्रकाश कुछ मंद पड़ गया था। सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी से दिखाई पड़ने लगे थे। पहले-पहल वे आषाढ़ की पूर्णिमा को दिखते। यह उस समय के लिये एक अद्भुत घटना थी, कि उससे पहले कभी ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के महान् प्रकाश के कारण सूर्य-चंद्र आकाश में दिखाई नहीं देते थे! इस कारण उस समय के स्त्री-पुरुष पहली बार सूर्य-चंद्र को देखकर अत्यंत भयभीत हुए, कि यह क्या भयानक चीज दिख रही है! क्या कोई भयानक उत्पात होने वाला है!
तब प्रतिश्रुति नामक प्रथम कुलकर ने अपने विशेष ज्ञान से जानकर लोगों को समझाया कि ये आकाश में सूर्य-चंद्र नामक दो ज्योतिषी देवों के प्रभामय विमान
हैं ये सदा रहते हैं। पहले ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के तेजस्वी प्रकाश से दिखलाई नहीं देते थे। किंतु अब कल्पवृक्षों का प्रकाश फीका हो जाने से ये दिखाई देने लगे हैं। तुमको इनसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। ये तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं करेंगे।’
अग्रपंक्ति से एक प्रबुद्ध श्रोता ने उठकर जयकारा दिया,
‘बोल्ल महावीर भगवान् की ऽऽ’
‘जय ऽऽ!’ समूचा सभा मंडल एकाएक गूँज उठा।
तब आचार्य श्री सिद्धों का स्मरण कर पुनः बोले, ‘प्रतिश्रुति का निधन हो जाने पर तृतीय काल में पल्य का जब अस्सीवाँ भाग शेष रह गया तब दूसरे कुलकर सन्मति उत्पन्न हुए। उनका शरीर 1300 धनुष ऊँचा था और आयु पल्य के 1/7 भाग प्रमाण थी। उनका शरीर सोने के समान कांति वाला था। उनकी स्त्री का नाम यश्वती था।
उनके समय में ज्योतिरांग कल्पवृक्ष प्रायः नष्ट हो गये। अतः उनका प्रकाश बहुत फीका हो जाने से ग्रह-नक्षत्र-तारे भी दिखाई देने लगे, जिन्हें पहले के स्त्री-पुरुषों ने कभी नहीं देखा था। इसलिये लोग इन्हें देखकर बहुत घबराये, कि यह क्या है! क्या उपद्रव होने वाला है? तब सन्मति कुलकर ने अपने विशिष्ट ज्ञान से जानकर जनता को समझाया कि सूर्य-चंद्रमा के समान ये भी ज्योतिषी देवों के विमान हैं। ये सदा आकाश में रहते हैं। पहले कल्पवृक्षों के तेजस्वी प्रकाश के कारण दिखाई न देते थे। अब उनकी ज्योति बहुत फीकी पड़ जाने से दिखाई पड़ रहे हैं। ये तारे तुम्हारी कोई हानि नहीं करेंगे।
सन्मति की विश्वासजनक बात सुनकर लोगों का भ्रम दूर हुआ और उन्होंने सन्मति का बहुत आदर सत्कार किया।’
‘बोल्ल श्री 108 चारित्र चक्रवर्ती आचार्य कीर्तिसागर महाराज की ऽऽ’
‘जय ऽऽ’
‘आचार्य संघ की ऽऽ’
‘जय ऽऽ’
‘सभी सिद्धों की ऽऽ’
‘जय ऽऽ’
सभा स्थल हजारों मानव कंठों के तीक्ष्ण स्वर से आतंकित-सा हो उठा। आसपास के पेड़ों के पंछी फड़-फड़ाकर उड़ने लगे। और निर्बाध आचार्य श्री आगे बोले-
‘सन्मति की मृत्यु हो जाने पर पल्य के आठ सौ वें भाग बीत जाने पर तीसरे कुलकर क्षेमंकर उत्पन्न हुए। उनकी आयु 1/1000 पल्य थी। उनका शरीर आठ सौ धनुष ऊँचा था। उनका रंग सोने जैसा था। उनकी स्त्री का नाम सुनंरा था।
उनके समय में सिंह-बाघ आदि जानवर दुष्ट प्रकृति के हो गये। उनकी भयानक आकृति देखकर उस समय के स्त्री-पुरुष भयभीत हुए। तब क्षेमंकर कुलकर ने समझाया कि अब काल दोष से ये पशु सौम्य शांत स्वभाव के नहीं रहे। इस कारण आप पहले की तरह इनका विश्वास न करें। इनके साथ क्रीड़ा न करें। इनसे सावधान रहें क्षेमंकर की यह बात सुनकर स्त्री-पुरुष सचेत और सावधान हो गये।
क्षेमंकर कुलकर के स्वर्ग चले जाने पर पल्य के आठ हजारवें भाग बीत जाने पर चौथे कुलकर क्षेमंधर नामक मनु हुए। उनका शरीर 775 धनुष ऊँचा था।
और उनकी आयु पल्य के दस हजारवें भाग प्रमाण थी। उनकी स्त्री का नाम विमला था।’
आनंद को बोरियत होने लगी। यूँ तो वे काफी देर से पहलू बदल रहे थे, पर अब कंधे पर जनेऊ टटोलते हुए उठ खड़े हुए और स्त्री-पुरुषों के बीच से रास्ता बनाते हुए पंडाल से बाहर जाने लगे। आचार्य श्री का प्रवचन तब भी उनके कानों में पड़ रहा था-
‘क्षेमंधर मनु ने लोगों को डंडा आदि से हिंसक जीवों से बचने का उपाय बताया
तथा दीपक जाति के कल्पवृक्ष की हानि हो जाने से दीपोद्योत करने का उपाय भी बतलाया।’
पंडाल से दूर आनंद बेशरम की झाड़ियों में आ बैठे थे। आज वे कुर्ता-पायजामा पहन कर आये थे। पर माइक यहाँ भी सुनायी पड़ रहा था ‘पाँचवें कुलकर सीमंधर उत्पन्न हुए। उनकी देवी का नाम.’ किंतु अब वे पहले की तरह दत्तचित्त भाव से न सुन पा रहे थे आचार्य श्री का प्रवचन, इसलिये टुकड़ों में ‘यशोधरा जिनकी देवी का नाम था वे छठे कुलकर लोगों के लड़ाई-झगड़े हेतु सुलहकारी साबित हुए, कि जिन्होंने लोगों को साझा परिवार की सीमा बतलाई और उनके बाद सातवें ‘विमल वाहन’ ने लोगों को हाथी-घोड़े पर सवारी करना सिखलाया।’
आनंद ज्यों-ज्यों सभा मंडप के करीब आते जाते थे, त्यों-त्यों प्रवचन तीखा होता जाता था। किंतु वे अचानक यह सुनकर दंग रह गये कि आठवें कुलकर के काल में माता-पिताओं के जीवित रहते बच्चे उत्पन्न होने लगे। मनु चक्षुष्मान ने ही लोगों को समझाया कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं। इनसे भयभीत न होओ। इनका प्रेम से पालन करो।...
फिर आनंद का ध्यान अग्रपंक्ति के निर्वस्त्र साधुओं यानी मुनियों पर चला गया, जो अपने आगे चौकियों पर अपनी-अपनी पीछी रखे बैठे थे। वे आचार्य की ओर टकटकी लगाये हुए हैं! आचार्य चौकी पर पद्मासन में विराजमान हैं व दोनों हथेलियाँ एक-दूसरे पर नाभि के नीचे जंघाओं पर रखे हुए हैं! आनंद प्रयास पूर्वक भी किसी को नग्न नहीं देख पाये। आचार्यजी की पसलियाँ जरूर दिख रही हैं। सिर के बाल छोटे-छोटे हैं-खिचड़ी से, और दाड़ी मूँछ के आगे कटोरा-सा माइक लगा है, पता नहीं कैसी है! वे बैठ गये। प्रवचन फिर से सुनाई पड़ने लगा, ‘उनकी देवी का नाम सत्या था। इनके समय में पानी खूब बरसने लगा था, जिससे 40 नदियाँ पैदा हो गईं।’
‘जैन धर्म की जय हो ऽऽ!’
‘आचार्य संघ की जय हो ऽऽ!’
कोलाहल फिर मचने लगा। और टुकड़ा-टुकड़ा आनंद ने सुना कि- मरुदेव का निधन हो जाने पर दस करोड़ से भाजित पल्य समान समय बीत जाने पर प्रसेनजित नामक तेरहवें कुलकर हुए, जिन्होंने प्रसूत बच्चे के ऊपर की जरायु को निकालने का उपदेश दिया। उसके 80 लाख करोड़वें भाग पल्य बीत जाने के बाद चौदहवें कुलकर नाभिराय उत्पन्न हुए, जिनका शरीर 525 धनुष ऊँचा था। उनके समय तक बच्चों की नाभि के साथ लगा हुआ नाल आने लगा था। उन्होंने लोगों को उस नाल के काटने की विधि बतलाई। इनके समय में भोजनांग कल्प वृक्ष भी नष्ट हो गये थे, इसलिये उन्होंने फलों को खाने, ईख को पेलकर उसका रस पीने तथा धान्य को पकाकर खाने की विधि बतलाई थी। इसलिये उस समय के लोग उन्हें ‘इक्ष्वाकुहस मनु’ सार्थक नाम से भी कहने लगे। ताकि इक्ष्वाकुवंश चालू हुआ। इन्हीं के पुत्र राजा इक्ष्वाकु श्री ऋषभनाथ हुए, जो कि हमारे प्रथम तीर्थंकर कहलाये।’
आनंद को जैसे करंट-सा लग गया, ‘यह क्या झमेला है!’ उन्होंने सेठानी के मुख की ओर देखा जो कि अधमुँदे नेत्रों से मंच की ओर ताकती भाव-विभोर होकर आचार्य श्री का प्रवचन सुन रही थीं। और उन्होंने कुछ कहना उचित न समझा। तिलमिलाये से पंडाल से उठकर बाहर चले आये।
इस वक्त उनके भीतर गीता का एक श्लोक मचलते समुद्र की तरह ठाठें मार रहा था कि जिसे वे चिल्लाकर सभा मंडप के जन-समुद्र में और उसके तट आचार्य मंच तक फेंक देना चाहते थे ताकि सेठानी सुन लें! हरवंश पुराण का रचयिता सुन ले! आचार्य, मुनि, आर्यिकाएँ और सारा धर्मप्राण जैनसमुदाय सुन ले! वह श्लोक था-
‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान हम व्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मुनि रिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।’
आनंद का मुँह लाल पड़ गया था, गोया अपमान में दग्ध था उनका सारा गात। वे मंडप से बाहर श्लोक का अर्थ चीख-चीखकर कर उठे-
अर्थात्-मैंने, इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था; सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। और सन्निपातिक से आनंद जिनालय के चारों ओर फैली धर्मशालाओं की सूनी गलियों में घूम-घूम कर यह श्लोक जोर-जोर से अपने कंठ से उच्चारित करने लगे, क्योंकि- वे जान गये थे कि चौदहवें कुलकर नाभिराय को इच्छा पूर्ति कराने के कारण लोग उन्हें इक्ष्वाकुहस कहने लगे थे, कि जिनसे इक्ष्वाकुवंश का सूत्रपात हुआ था, कि जिनके पुत्र ऋषभनाथ हुए जो कि जैनों के आदि देव हैं! प्रथम तीर्थंकर हैं। इन्हीं प्रथम इक्ष्वाकु राजा से नाभिराय मनु ने कृष्ण का ज्ञान कर्म संन्यास योग कहा था।...
और ये सब कहते हैं कि कृष्ण ने अंत समय में मुनि दीक्षा ले ली थी।.....
आनंद बौखला गये थे गोया! जीवन में पहली बार इतने मर्माहत हुए थे। चोट खाये साँप की तरह फनफनाते फिरते रहे इधर-उधर।
फिर प्रवचन उपरांत सेठजी को उन्हें ढूँढ़ना पड़ा था। उस समय तक वे पूरी तरह गुमसुम हो चुके थे। रास्ते में जीप में प्रीति ने पूछा था, ‘आनंद! कहाँ निकल गये थे तुम’
सेठानी भरी हुई बैठी थीं, बोलीं, ‘पंडितों को दूसरों का धर्म सुहाता थोड़े ही है!’
‘सारे धर्म बकवास हैं,’ आनंद यकायक उखड़ पड़े, ‘सारे पुराण अपने नायक को आदिदेव, जगत् सृष्टा और नियंता निरूपित करते हैं। जैसे सारा ज्ञान उन्हीं से सृजित हुआ! उसके पहले तो दुनिया में कुछ था ही नहीं, बाद में भी नहीं होने वाला उसी प्रारंभिक ज्ञान-विज्ञान के सहारे सारे ब्रह्मांड के क्रियाकलाप चलेंगे! और सृष्टि के आदि में जैसे सारे भूत समुदाय उससे उपजे थे, वैसे ही अंत में उसी में समा जायेंगे।’
प्रीति एक सुखद आश्चर्य से सराबोर थी, आनंद आज लाइन पर हैं! उसे उनका उखड़ना अच्छा लग रहा था।...
सेठानी चुप ही रहीं, आनंद के तेवर आज सचमुच बदले हुए थे।
सेठजी ने कहा, ‘अजी छोड़ो, व्यर्थ की तकरार में क्या धरा है! न तुम देख आये न हम? हमारे गुरु जो कहते हैं मान लेते हैं। धर्म तो श्रद्धा और विश्वास की चीज है। और मैं तो कहूँ-मानव धर्म सबसे बड़ा है जी! अपने करम किये जाओ, न किसी को सताओ, न किसी को ठगो-मूसो! यही पूजा है’
बात आई गई हो गई। पर तनाव सभी के मन में बदस्तूर बरकरार था। रात को आनंद ने बड़े आवेश में एक कविता लिखी-
‘वह कौन है, जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ और
तुम भी...
वह कहाँ है, कि जिसकी तलाश तुम्हें है- और
मुझे भी...
कहीं ऐसा न हो, कि वह कहीं हो ही नहीं!
सोचो....
यही तुम भी सोचो!
क्या बुरा है,
जो हमारा सदियों का जुनून उतर जाय!!’
सिहोनिया से लौटकर आनंद बिहारी दो-चार दिन तक सेठजी के घर नहीं गये। हेडमुनीम भेजता तब भी टाल जाते या फिर इधर-उधर होकर लौट आते। फोन से काम चला लेते।.....
आनंद से नहीं मिल पाने के कारण प्रीति काफी बेचैन हुई जा रही थी। वह एक भावुक और संवेदनशील लड़की जो ठहरी। और आनंद में उसकी आसक्ति जो हो गई थी! सो पूरी-पूरी मुसीबत थी उस बेचारी की इस तकरार में।...
सेठजी के यहाँ शाम का भोजन प्रायः 5 बजे ही निबट जाया करता। इसमें सब्जी और पराँठे बनते हरहमेश! रतालू तो सदा से निषिद्ध थे, जैसे! सेठानी ने आलू, मूली, अरबी और सकलकंदी भी छोड़ रखी थीं इसलिये घर में तोरई, लौकी, बैंगन, गोभी आदि की सब्जी ही आमतौर पर बना करती। प्रीति मूली के लिये बहुत जिद करती, तो पत्ते बना दिए जाते। और अगर वह चाहती तो अपने हाथ से भिंडी वगैरह बनाकर खा सकती थी। पर कद्दू तो उसे कभी अच्छा नहीं लगता और घर में दूसरे-चौथे दिन वही बन जाया करता।...
सो वह कद्दू का बहाना लेकर ही माँ पर बिगड़ गई उस दिन! कि उसने चौके से ऐसी थाली फैंकी, कि दरवाजा खुला होने कारण थाली आँगन पार करती हुई हॉल के फर्श पर आ गिरी लगभग उड़ती हुई सी। हालाँकि यह कोई उड़न तश्तरी न थी, पर इसकी पॉलिश की चमक से सेठजी की आँखें चौंधिया गईं। उसकी झनझनाहट से वे मानो सहम-से गये। यह थाली फर्श पर गिरकर टेबिल के पैरों से टकराई तो झट से उससे पराँठे और सब्जी की कटोरी यूं निकली, जैसे किसी यान के दुर्घटना ग्रस्त हो जाने पर उसके यात्री छतरियों सहित और बिना छतरियों के भी धड़ाम से कूद पड़ते हैं।...
सेठजी धक् से रह गये। वे वहीं बैठे भोजन ग्रहण कर रहे थे।
फिर जैसे यान के गिरते ही हड़कंप मच जाता है- सेठानी धमधमाती हुई बीच दरवाजे में आ खड़ी हुईं, ‘देखो ऽऽ’ देखो-अपनी लाड़ली के हाल देखो कितनी बिगड़ गई हें जे! गुस्सा में एकदम लाल भभूका है जाती हेंगी। कागज-किताबें, कपड़ा-लत्ता जो हाथ में पड़ि जायँ, फाड़-चीड़ कें चिंदी-चिंदी कर फेंक देइंगी। कप-गिलास. चीनी-काँच के तो बर्तन नईं रहि पाते घर में! हमने कही, इनके रंग-ढंग बहुतई बिगड़ि गये हें अब तो’
खाने के दौरान किसी शिशु से गहरी नींद में खोये थे सेठ, जो अब अचानक आये भूचाल के कारण समूचे दहल-से गये थे। चीख-चिल्ला लेने के बाद हाँफती-काँपती सेठानी फर्श से पराँठे, कटोरी, थाली बीन उठी थीं।
इस प्रकरण को सेठ ने गंभीरता से लिया। हालाँकि उस वक्त उन्होंने कोई खुलासा नहीं किया। रहस्यपूर्वक प्रीति को बुलाकर डाँटा और समझाया सिर्फ! क्योंकि- उन्हें एक बार हेडमुनीम भी बता चुका था कि ‘यह-यह, यह है!’ सो वे अब, काफी सजग दिख रहे थे। समय रहते इसके इलाज की ठान ली थी उन्होंने।
उस रात प्रीति ने खाना नहीं खाया। रात में खाने का रिवाज ही कहाँ था? वह देर रात तक चुपचाप अपनी खाट पर पड़ी रोती रही। उसकी रुलाई महज माँ की चीख-चिल्लाहट या पिता के मौन क्रोध के कारण नहीं फूटी थी, बल्कि आनंद के विरह की खीज और पेट में कूदते चूहों का भी इसमें खासा हाथ था। गोकि वह एक स्वाभाविक रोग था जो उसकी वय की नवयौवनाओं को अक्सर हुआ करता है कि पहली ही नजर में अधिकतर वे किसी-न-किसी को अपने मन में बिठा लेती हैं और उसकी अनुपस्थिति में खिन्नमना बनी रहती हैं। तब उनका न तो किसी काम में, खाने-पीने में जी लगता है, न सहेलियों, मनोरंजन आदि में विशेष रुचि रहती है। और उनके सीने में लगभग एक दर्द-सा बना रहता है, जो किसी साधारण घटना विशेष के कारण अधपके फोड़े की तरह फूटकर, आँसू बनकर बह उठता है। इस मौके पर उनकी साँसें तेज धौंकनी की तरह भी चल उठती हैं या कभी-कभी इतनी नर्वसनैस आ जाती है कि नाड़ी गुम होने लगती है। तब घबराहट और बेचैनी में उन्हें, हा-प्रियतम! लव-माई लव (इस संबोधन का आशय व्यक्ति वाचक संज्ञा से है!) के सिवा और कुछ नहीं सूझता। इस प्रेम में आड़े आये लोग-माँ-बाप, स्वजन-परिजन सब काल के समान प्रतीत होते हैं। उनसे नफरत होने लगती है।
प्रीति की इस दशा के लिये मौखिक रूप से फिलहाल आनंद जिम्मेदार थे।
रात बड़ी मुश्किल से काटी उसने। सुबह अपनी मोपेड उठाई और पहुँच गई राइस मिल। हेडमुनीम था नहीं। आनंद एक बही की डुप्लीकेट कॉपी तैयार कर रहे थे।
आते ही उसने पीड़ा से मुस्कराकर कहा, ‘कैसे हो आनंद।’
आनंद कुछ बोल नहीं पाये! प्रीति अत्यंत अधैर्य थी, बोली, ‘इत्ते दिन से आये क्यों नहीं पता है, कल मम्मी-पापा से पंगा हो गया!’
‘क्यों? कैसे?’ आनंद ने सहज ही पूछा।
‘ऐसे ही’ प्रीति सफेदी पर लेट गई और सिर आनंद के घुटने पर रख दिया।
आनंद डरने लगे। उन्हें अजीब-सी घबराहट हो उठी। उस वक्त प्रीति का हृदय भी बेतरह धड़क रहा था और पंखा न चल रहा होता तो यह इंजन-सी घड़घड़ाहट आनंद भी सुन पाते। मगर वे अपना घुटना खिसकाने लगे।
तब प्रीति ने अपनी खोपड़ी का दबाव उस पर बढ़ा दिया और उनके मुख को अपने भावपूर्ण नेत्रों से ताकती हुई रुंधे कंठ से बोली, ‘आप नहीं समझते मैं आपको, आई मीन, लव।’
जैसे कोई विस्फोट हुआ हो! आनंद उठकर खड़े हो गये। उनका गला घरघरा गया! कि यक-ब-यक उससे निकला, ‘विषयेन्द्रिय संयोगाधत्तग्रेऽमृतोपम् परिणामे विषमिव!’
‘क्या हुआ तुम्हें!’ प्रीति भी खड़ी हो गई थी। आनंद कुछ नहीं बोल सके। उनका शरीर एक विचित्र कंपन से भर उठा था कि उन तरंगों में गूँज रही थी कृष्ण की वही अमर वाणी- जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है!
प्रीति हतवाक् खड़ी थी। फिर धीरे-धीरे उसे रोना आ गया। कि शायद! आनंद ने मुझे स्वीकार नहीं किया। कि वे कभी मुझे स्वीकार न करेंगे। कि उन्होंने मेरे प्रेम को ठुकरा दिया है।
और आनंद सोच रहे थे कि बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाशक होने से विषय और इंद्रियों से होने वाला सुख परिणाम में विष के समान भयंकर होता है। इस मायाजाल से वे सदा-सदा दूर रहेंगे। कोसों दूर। कोऽहं को ममधर्म का चिंतवन करते हुए आत्मसाधना में लीन।...
तब एक गहरी और असहनीय चोट खाकर प्रीति तेजी से ऐसे चली गई वहाँ से, जैसे- कोई बीच बाजार रपट कर गिर पड़ने पर बिजली-की-सी फुरती से उठता है और चला जाता है। पर बाद में सारी देह कसकती है! न जाने किस-किस ने देख लिया होगा! कि इज्जत-आबरू चली जाने की आशंका देर तक सालती रहती है मन को। चित्त वहीं लगा रहता है, मानस पटल पर उससे संबंधित प्रत्येक शब्द हिज्जे-हिज्जे होकर अपने व्यापक-विराट अर्थों में प्रकट होता रहता है सदा! प्रीति, हो सकता है जान दे दे या नहीं तो, इसे भूल नहीं पायेगी कभी। अपमान की पीड़ा में उसका सारा गात जल रहा था।
और संयोगवश इसके कोई दो-तीन दिन बाद ही हेडमुनीम ने आनंद का हिसाब कर दिया।
और वे एक बार फिर लश्कर चले आये।
तब आनंद ने समझा कि उन्हें प्रीति ने निकलवा दिया है और प्रीति ने समझा कि आनंद उसे ठुकरा कर सदा-सर्वदा को उससे दूर चले गये हैं।
(क्रमशः)