नमो अरिहंता - भाग 21 - (अंतिम भाग) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नमो अरिहंता - भाग 21 - (अंतिम भाग)

(21)

अंत

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मानसून की पहली बारिश ने गर्मी के माथे पर पानी की पट्टी चढ़ा दी सो, लू-लपट तो कब की मर गई अब सड़ी गर्मी से भी निजात मिल उठी थी। सोनागिरि का समूचा वातावरण इसलिए सुखमय था कि वह विंध्याचल की पूँछ वाली पहाड़ियों पर बसा है। वहाँ न पानी भरा रह पाता है गड्ढों में और न कीचड़ की किचपिच मचती है। ताल-तलैयाँ भी नहीं हैं नजदीक सो मेंढकों की टर्राहट से भी वास्ता नहीं पड़ता साँझ घिरते ही। और भूमि पहाड़ी होने से बेवजह की खरपतवार से भी बची रहती है धरती।...

ऐसे सुखमय माहौल में आषाढ़ी अष्टह्निका पर्व आ चुका था। कालाग्रुप ऑफ कम्पनीज की ओर से नंगानंग दिगंबर जैन मंदिर कमेटी को कह दिया गया था कि इसी आषाढ़ी अष्टह्निका में श्री सिद्धचक्र विधान का आयोजन हमारी ओर से रखा जावे। पूरी व्यवस्था रखें। सो कमेटी ने रेलवे मुख्यालय को पत्र भेज दिया कि दिनांक 3 जुलाई से 10 जुलाई तक श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र में श्री सिद्धचक्र विधान का आयोजन किया जा रहा है। इस पूजा विधान में देशभर से जैन धर्मावलंबियों के आगमन को ध्यान में रखते हुए अनुरोध किया जाता है कि दिल्ली-बंबई लाइन की प्रमुख मेल एवं एक्सप्रेस गाड़ियों की सोनागिरि रेलवे स्टेशन पर स्टॉप की व्यवस्था कराने का कष्ट करें।’ और कमेटी ने नंगानंग मंदिर की सजावट का ठेका झाँसी के एक प्रसिद्ध ठेके दार को दे दिया था।

कमेटी ने अपनी धर्मशाला के अतिरिक्त झाँसी, ग्वालियर, भिंड, मुरैना वालों की धर्मशालाएँ भी बुक करा रखी थीं। कमेटी ने दतिया के ठेके दार को चार और नए पानी-प्वाइंट लगाने को कह रखा था।

कमेटी ने सभी धर्मशालाओं में सौ-सौ, दो-दोसौ जनानी-मर्दानी धोती, दुपट्टा और खाने के जरूरी बर्तन आदि बुक करा दिए थे और कपड़े तथा बर्तन धोने का ठेका भी दे दिया था जो सोनागिरि के ग्रामीणों ने ही लिया। कि इस काम का ठेका कोई बाहरी ठेके दार भी लेता तो वह भी इन्हीं ग्रामीणों को लगाता सो अपनी औकात पहचान कर यह काम सोनागिरि वासियों ने कब का शुरू कर दिया है।

अच्छा है, अच्छा है! होते रहें नित नये आयोजन, काम तो मिलता है! वे खैर मनाते हैं अपनी रोजी-रोटी की। मनौती माँगते हैं देवताओं से कि हे भोले बाबा, देवी मैया नईं-नईं! हे चंद्रप्रभू ऽ! महावीर बाबा! बानियों को कह दो, प्रेरणा कर दो

वे विधान और पंच कल्याण तो कराते ही रहें इस सिद्धक्षेत्र में! बानियों के मेले से हजार तरह की आमदनी हमें! हजार हाथ को रुजगार। और क्या है गरीब का सहारा आज की मेहँगाइ में? आज के ज़माने में! जब राजा कोई है नहीं, लूटमार चल रही है जनता के लोकतंत्र में! गरीब प्रजा के हिमायती, धन खजाने से निकालकर खुद लूट रहे हैं-ठेके दार, अफसर, दलाल और नेता बन बनकर। ससुर अगले जनम कूकरा हुइ हैं!’

बस, सिनाउल के गरीब के मन का तूफान तो दूध के झाग की तरह ठहरा! बैठ जाता है पानी के एक छींटे में।...

नंगानंग मंदिर में ऐन आषाढ़ सुदी अष्टमी के दिन प्रातः सात-छप्पन से ही मंत्र-ध्वनियों का घमासान मच उठा। रोहतक (हरियाणा) और कुचामन सिटी (राजस्थान) के पंडितों ने सिद्धचक्र विधान का माँड़ना माँड़कर चौकी पर एक खूबसूरत-सी ड्राइंग बना दी है। फिर भारी मंत्रेच्चार के मध्य यंत्र का अभिषेक प्रासुक जल से कर दिया गया है। अब जाप अर्थात् महामंत्र की आवृत्ति शुरू हो रही है। अग्रपंक्ति में गंगापुरसिटी का काला परिवार, गोहद का सेठ परिवार, दिल्ली-बंबई के धनपति और पंडितगण बैठे हैं। सब हाथों में माला लिए हैं, जिनमें मैनासुंदरी यानी अंजलि प्रमुख है! वे सब महामंत्र का सामूहिक उच्चारण कर उठे हैं।...

आज पूरा हॉल धनी-मानी जैन समाज से भरा है। ये सारे धन्नासेठ कमेटी के प्रचार पर बहुत दूर-दूर से आए हैं हॉल पीली साड़ियों, सफेद धोतियों और पीले दुपट्टों से जगमगा रहा है। उनके हाथों की मालाओं में सौ-सौ गुरिये हैं। प्रत्येक गुरिया महामंत्र की प्रत्येक आवृत्ति पर खिसक रहा है। यह माला 7 से 10 बार तक फेरी जा सकती है। पहला दिन है- कम-से-कम दस जाप तो देने होंगे! उसके बाद पूजा यानी अर्घों की आवृत्ति आरंभ होगी। पहला दिन है, सो नियमानुसार आठ अर्घ देने होंगे और फिर प्रतिदिन गुणात्मक गति से बढ़ते जाएँगे अर्घ। तभी तो आठवें दिन जाकर एक हजार चौबीस अर्घ दिए जा सकेंगे।

और आठवें दिन ही तो माणिकचंद्र काला रोग से मुक्त होगा। उसका कोढ़ दूर हो जायेगा। वर्ण सुवर्ण-सा दमक उठेगा। तब नवें दिन हवन होगा और खूब बड़ी ज्यौनार दी जावेगी। लेकिन इस समवेत सियारों-सी हुवाँ-हुवाँ से प्रीति को घबराहट-सी हो रही है। दहशत-सी व्याप गई है उसके भीतर। सबसे पीछे बैठी है तब भी! वह तो हर्गिज नहीं आती, भले कालाग्रुप ऑफ कम्पनीज का पर्यटन रथ ‘अमलतास’ आधा भरकर गंगापुरसिटी से गोहद आ गया था और उस लक्जरी बस में अंजलि के माइके के लिए आधी सीटें रिजर्श्व थीं। तिसमें भी साली सो आधी घरवाली के लिहाज यानी मान से प्रीति के निमित्त वीडियो सेट के करीब वाली सीट आरक्षित थी।...

किंतु वह इसलिए नहीं आयी!

उसे तो आनंद से मिलने की आकांक्षा खींच लाई है।...

मामाजी ने कहा था कि यू.को. बैंक के सामने बूढ़े मुनि के आश्रम में रहते हैं वे। क्षुल्लक बाबा हो गये हैं।

सो, प्रीति का चित्त कल से वहीं लगा है। यह बात अलग कि वो धर्मशाला और मंदिर में सब लोगों की उपस्थिति के कारण अब तक निकल नहीं पाई है। पर उसे अपनी हर उठती-गिरती श्वास के साथ यह बात याद है! और सब गौण है।

मुख्य बात है आनंद से मिलना।

अब वह जा सकती है। अब सारे अफीमी जाप में बिंधे हैं।

फिर पूजा में खप जाएँगे।

इस मौके का लाभ उठा सकती है वह।

और पाँव जैसे स्वतः ही बाहर निकल पड़े हैं।

नित्य शौचक्रिया और शरीर शुद्धि के उपरांत आनंद पहाड़ पर चले जाते हैं मूलनायक प्रतिमा के दर्शनार्थ। किंतु तीन-चार दिन से वृद्ध मुनि कुछ ज्यादा ही घबरा रहे हैं। उन्हें इतनी वेदना होती है कि यूरोप या अमेरिका में होते तो डॉक्टर से धीमी मृत्यु का इंजेक्शन ले लेते और दो-तीन दिन में इस जर्जर काया के बंध से मुक्ति पा जाते। पर यहाँ तो समाधिपूर्वक मरण हेतु 12 वर्ष की समय-सीमा की उत्कृष्ट संल्लेखना का नियम था। मध्यम में छह साल से छत्तीस दिन तक की संल्लेखना ली जा सकती थी और सघन संल्लेखना का विचार 48 मिनट का माना गया है।

इस अंतिम समय में णमोकार मंत्र द्वारा समाधि दिलाई जाती है। आचार्य ससंघ आ जाते हैं। गणिनी, आर्यिका, मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएँ सभी निकट आ जाते हैं। रात-रात भर जागरण चलता रहता है। किंतु इस अभागे मुनि सद्धाम सागर की संल्लेखना तो खंडित हो चुकी है दस वर्ष पूर्व ही! अब इस अंतिम समय में उनके निकट आनंद के सिवा कोई नहीं है और आनंद भी निरग्रंथ होकर आचार्य श्री द्वारा शास्त्र विधि से दीक्षित नहीं हैं।

न रहें! अब मुनि सद्धाम सागर को ही इतना संज्ञान कहाँ है? वे तो दिन-रात छटपटाते हैं, तड़पते हैं रेत पर पड़ी मछली की तरह। तख़्त पर बिछे मोरपंखों की छीलन पर पड़े़-पड़े उनकी पीठ में कौद (शैया घाव) पड़ गये हैं। यहीं टट्टी-पेशाब करते हैं, यहीं चम्मच से घोल सरीखा एकाध घूँट आहार ले लेते हैं। शरीर में उलटी सूजन आ गई है- पाँवों की ओर से कि उनके प्राण जैसे घट में आ गये हैं। आँखें निकली पड़ रही हैं-पीड़ा से!

आनंद का मन नहीं है उन्हें छोड़कर जाने का। किंतु आदत है या कि चर्या मुताबिक मूलनायक प्रतिमा के दर्शन की लालसा और मन है कि गवाही नहीं दे रहा...।

फिर अनिर्णय की स्थिति में अंतत उनके पग बढ़ जाते हैं पहाड़ की ओर।

पहाड़ पर बारिश के प्रभाव से मौसम सुखद हो गया है। मंदिरों के कलश हृदय में श्रद्धामयी प्रफुल्लता का संचार किये हैं। दर्शनार्थियों के यत्र-तत्र समूहों को पार करते वे हड़बड़ी में तेजी से बढ़ जाते हैं मंदिर नंबर 57 की ओर जहाँ चंद्रप्रभु का अर्घ निवेदित किया जा रहा है। और आनंद सरपट सीढ़ियाँ चढ़े चले जाते हैं। उनकी तेजी से ध्वनित हो रहा है कि आज उन्हें सम्यक् दर्शन-लाभ मिल नहीं पायेगा। हालाँकि वे भी अनभिज्ञ नहीं हैं इससे लेकिन कहिये कि एक रूटीन है- वे रोक नहीं पा रहे हैं खुद को, जबकि मन वृद्ध मुनि के पास रखा है।

तभी क्षेत्रपाल के चबूतरे के पास जहाँ दायें बाजू पुराने कोट के लिए मार्ग है और नीचे घाटी तथा सोन तलैया दिखती है, उन्हें प्रीति के दर्शन हो जाते हैं।

ठिठक जाते हैं आनंद। प्रीति ने भी पहली बार किसी साधु को इस तरह प्रणाम किया है- दोनों हाथ पुट बंद कमल के आकार में जोड़कर, घुटने और मस्तक धरती पर टेक कर संपूर्ण शास्त्र विधि से पंचांग प्रणाम। आनंद के हृदय में एक लहर-सी उठी और शरीर पुलकित हो गया। उन्हें रोमांच हो आया था। अपने हाथ की पीछी को प्रीति के सिर से छुआकर आशीर्वाद दिया। पर आशीर्वाद कुछ नहीं दे पाये आनंद! बस, परंपरा निभायी।

प्रीति ने उनकी धवल देह को-बलिष्ठ भुजाओं, उन्नत वक्ष-स्थल, चंदन की शाखाओं-सी सुंदर जंघाओं और पिंडलियों सहित सुंदर युगल पदों को देखा। देखा उनकी कटि के श्वेत कोपीन को, जनेऊ की तरह कंधे से कांख तक पड़े श्वेत दुपट्टे को और चिरपरिचित मुखमंडल को निर्निमेष ताकती रह गई।

सहसा ही उसे श्रद्धा के प्रति मनु की जिज्ञासा याद हो आई- कौन हो तुम वसंत के दूत, विरस पतझड़ में अति सुकुमार! घन तिमिर में चपला-सी रेख, तपन में शीतल-मंद बयार!

‘कब आईं!?’ आनंद ने सन्नाटा तोड़ा। वे जहाँ के तहाँ एक शिलाखंड पर बैठ गये।

‘कब!’ प्रीति ने खुद से कहा।

आनंद ने देखा कि चेहरे पर खिले फूल अब मुरझा गये हैं। तभी भक्तों की एक टोली उन्हें प्रणाम कर गुजर गई और उसे यंत्रवत् पीछी डुलाकर आशीर्वाद दे दिया उन्होंने। फिर विस्मित-सी जड़वत् प्रीति को झकझोरा, ‘यह तो एक पड़ाव है जीवन अनंत है। मुसाफिर हैं हम सब! बिछुड़ जायेंगे कल। कोई भ्रम न पालो। तजो मोह तत्क्षण।’

‘क्यों? ऐसा क्यों किया आपने! क्यों धर लिया यह वेश।’ वह होश में आ गई।

आनंद ने पहलू बदला और ध्यान की मुद्रा में आ गये-

‘प्रीति!’ वे प्रकृतिस्थ से बोले, ‘जीवन का उद्देश्य इतना-सा नहीं था यह तो धरोहर है, मुझ पर ऋण है- मात-पिता और ऋषियों का।’

वह एकटक निहार उठी।

तनिक खामोशी के बाद फिर कहा आनंद ने, ‘जीवन छोटा, सफर बड़ा है! इस जन्म में सब कुछ तो नहीं, ऋषि ऋण का थोड़ा-बहुत चुकारा करूँ! यह सोचकर यह वेश धरा है।’

‘पर मैं क्या करूँ?’ वह भावुक थी। उसकी तड़प बोल रही थी-मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे! विह्वल हो आई प्रीति, आँखों में प्रेमाश्रु झलक उठे।

आनंद द्रवित न हुए। कठोर नहीं, संयमित बने रहे। मृदु स्वर में बोले, ‘बड़ी विषम परिस्थिति है आज। यह संक्रमण का युग है। कोई संस्था अपने मूलरूप में नहीं रही। न परिवार, न समाज, न धर्म, न राजनीति। मूल्य गिर गये-छल-प्रपंच, आडंबर के सिवा अब कुछ भी नहीं है यहाँ!’

‘तो क्या तुम एक विषाक्त समुद्र को, उसके सड़ते जल को, उस अथाह सागर के उथले से कोने को इस छोटे से जीवन में साफ करके पार पा लोगे? कि इस कचरे के हिमालय को एवरेस्ट तक इसी जीवन में सुथरा कर लोगे!’ प्रीति अपने स्वभाव के अनुरूप चिढ़ गई थी।

‘नहीं!’ आनंद ने अतिशय शांत मुद्रा में कहा, ‘मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं है। पर असंख्य लोगों ने जो शुरूआत की है अतीतकाल से, मैं बस उसी कतार में शामिल हुआ हूँ।’

‘तुम्हीं क्यों?’ प्रीति का चेहरा तमतमा रहा था।

‘इसलिए कि मेरी चेतना मुझे विवश करती है इसके लिए। अज्ञान की परत हट गई है उस पर से। इस अनंत यात्रा में यह जीवन तो क्षणांश है।... जैसे- पानी का बुलबुला! मैं इसे इतराने नहीं दूँगा।’

‘तब मैं क्या करूँ!’ वह दीन हो आयी।

कुछ देर को हवा थम गई, जैसे।

सूरज ढक लिया था सफेद बादलों ने। पहाड़ के नीचे भूखंड पर कहीं धूप, कहीं छाया मंडरा रही थी। और क्षुल्लक श्री आनंद भूषण ने अपना पहला उपदेश दिया-

‘मैं नहीं कहता आज कि तुम मिथवादी बनो। दशलक्षण धर्म पालो। सोलह स्वर्ग और सात नर्कों के अभिप्राय से कर्मों को विलुप्त करो। कठोर तप करो। ग्यारह व्रत लो। मंदिरों को दान दो। जीर्णोद्धार कराओ। पंचकल्याणक कराओ। विधान कराओ। चौका लगवाओ। ग्रंथ छपवाओ। नहीं, ये कुछ भी नहीं। अगर कुछ कर सको तो इतना ही करो कि सम्यक् चिंतन करो कि-क्यों बढ़ गये हम मूल्यहीनता की ओर। कैसे आ गई यह गिरावट। आज राजनीति में अपराध और धर्म-क्षेत्र में ग्लैमर, ढोंग, प्रदर्शनप्रियता क्यों बढ़ गई! सामाजिक प्रतिष्ठा के मानदंड क्यों बदल गये हैं! क्यों रह गये अच्छे लोग मुट्ठी भर।’

आनंद की चिंता अत्यंत गंभीर थी। प्रीति का ध्यान केंद्रित हो गया। फिर जब वे उठकर चल दिये तो भंग हुआ, वह विवशता-वश छटपटाकर रह गई। सीने में कुछ फूट कर बहने लगा। मानो साँझ घिर आई थी पहाड़ पर।

उसने सुना है- ब्रह्मांड में कुछ काले छिद्र होते हैं, जो स्वयं तो कुछ नहीं होते लेकिन उनमें गुरुत्वाकर्षण इतना जबर्दस्त होता है कि आसपास की चीजें को उनका केंद्रक आश्चर्यजनक रूप से उनके भीतर खींच लेता है! फिर वे उस द्रव्यभूत को प्राक्भूत (एन्टी-मैटर) में बदल देते हैं... यहाँ तक कि उन्हें दिक्काल से प्राक्काल (एन्टी-टाइम) में फेंक देते हैं!

थोड़ी देर में उसकी आँखें डबडबा आईं और उसे लगा कि उसे सचमुच ब्रह्मांड के किसी काले छिद्र ने अपने भीतर खींच लिया है! कि अब शायद ही कभी पुनर्स्थापित हो सकेगी!

उसका प्राण बेहद घबड़ा उठा।

आनंद ने आसमान की ओर देखा। काले घटाटोप बादल दिन को रात करने पर आमादा हो आए थे। अभी पहर भर पहले जब दिन निकला था, कितना चमकदार और हँसता इठलाता-सा था और अब किसी भी क्षण झमाझम पानी बरस सकता था। आनंद तेजी से मंदिर नंबर 57 की ओर बढ़ गये। फिर वे जब पहाड़ से उतरकर आश्रम में पहुँचे तो जैसे धरती ही फट गई थी। मुनि सद्धाम सागर का हंस उड़ गया था।

यह महज संयोग ही था जो उनकी अनुपस्थिति में मुनि के प्राण पखेरू उड़ गये! ऐसे बीमार तो वे कितने दिनों से थे।

आश्रम में बड़ी विचित्र गहमा-गहमी थी। मुनि की पार्थिव देह पर्यक में दर्शनार्थ रखी थी।

आनंद को पिता की मृत्यु का स्मरण हो आया किंतु रोने का कोई विधान न था। न कोई मातम-पुरसी की जा सकती थी। अंत्येष्टि की तैयारियाँ चल रही थीं।

समाज जुड़ गया है।

इन दिनों यहाँ एक चिरगाँव का श्रावक चौका लगा रहा था। दसवीं प्रतिमाधारी था वह। उम्र यही कोई 55-60 के आसपास। बड़ा भक्त जीव था। आनंद और मुनि दोनों की ही सेवा में तत्पर रहता था। खाद्यान्न उसके घर से आ जाता था। भविष्य में उसका विचार यहाँ धर्मशाला और मंदिर बनवाने का था। फिलहाल टीनशेड डाल कर रह रहा था। उसी ने बताया-

‘महाराजजी, आप चले तो स्वामीजी इतने घबराए, इतने घबराए कि क्या कहें! हाथों के इशारे करें, तुम्हें बुलाने को, कहीं प्राण तुम में अटक कर रह गये! कोई दौड़ कर आचार्य को बुला लाया। वे पढ़ें णमोकार मंत्र उनके कान में और स्वामीजी आपकी गैल पर टकटकी लगाएँ। मुँह से तो कुछ न कह पायं पर घबड़ाएँ सो घबड़ाएँ! आँखें निकली पड़ें। घबड़ाहट में मरे जायं प्राण ऐसे फँसे थे तुम में! आचार्यजी मंत्र पढ़ें सो न सुनें। इशाड़ा करें तुम्हारी तरफ जोन दिशा तुम गये रहे। तब हम समझे! तब झूठमूट ऊ के कान में जि कही कि हम आनंद भूषण हैं!

वे देखें हमारी ओर और कछू समझि न पाएँ तब आचार्यजी ने कहा, जोर से बोलो! तब हम भारी जोर से कहे-चिल्लाइ के, हम हैं ऽ आनंद भूषण ऽ!

अंयं! मुनि महाराज के कंठ से कढ़ा। हमारी ओर टुकुर-टुकुर ताकैं! और हम सिर पर हाथ फेर झूठ-ई विश्वास दिलाया सो झट्टई प्रान कढ़ गये स्वामी के ।’

व्रती जैसे अपने मौन में रोया। आनंद काँप कर रह गये। वे जैसे आत्मालोचना कर उठे-

अगर प्रीति न मिल जाती तो उन्हें विलंब काहे होता!

अगर आज दर्शन को न जाते!

तब दोनों बातों के प्रति होश संभाला। कि एक तो जो प्रश्न किताबों से उठता है, सो मुर्दा है, किंतु जो जीवन से उठता है, वही जीवित है अर्थात् संसार को छोड़ कर नहीं भागना है। उसे कंधे से उतारना है, सो सम्यक् दर्शन मूर्ति से उपलब्ध नहीं हो सकेगा। किसी की शरण में जाने से काम नहीं चलेगा अब। बल्कि मेरे भीतर जो प्रसुप्त और सोया हुआ है, उसी को जगाना पड़ेगा। तभी बनेगी समदृष्टि।

और दूसरी बात यह कि मेरा निरंतर बाहर होना मेरा बंधन है। उस बाहर से आए हुए प्रभाव को विसर्जित किए बगैर निर्जरा कहाँ! पर के बंधन में निरंतर चिंतन, चिंता और जो भीतर है, उसे भुला बैठा हूँ।...

बाहर समाज जुड़ गया था। मुनि को कंधा देने, अंत्येष्टि सामग्री देने और अग्नि ले जाने वालों की बोलियाँ लग उठीं।

कहा जा रहा था कि मुनि सद्धाम सागर का समाधिपूर्वक मरण हुआ है। हमारे बीच उनका पार्थिव शरीर धरा है। हमें अंत्येष्टि का मौका मिला है, ये हमारा सौभाग्य का विषय है। सज्जनो, अपने मात-पिता का क्रियाकर्म तो दुनिया करती है, वह तो लोकाचार है, किंतु मुनि की अंत्येष्टि का मौका मिले, ये बड़े भाग्य की बात है। मुनि महाराज ने 12 वर्ष की उत्कृष्ट संल्लेखना ली थी। कठोर तप से आत्मज्ञान को उपलब्ध होकर उनका समाधिपूर्वक मरण हुआ है।

यद्यपि मोक्ष नहीं हुआ। इस पंचमकाल में किसी का मोक्ष नहीं होना। पर इसका अर्थ यह नहीं कि मोक्ष मार्ग बंद है! भाइयो, जिस प्रकार णमोकार मंत्र कभी विलुप्त नहीं होता। मध्यलोक के विनाश के बाद भी वह किसी-न-किसी लोक में बना रहता है। तीनों कालों में बना रहता है। उसी प्रकार मोक्ष मार्ग बंद नहीं है। यह बात अलग है कि आज इस पंचमकाल में इस भोगभूमि से मोक्ष नहीं मिले तो विदेह क्षेत्र से मिलेगा। जैसे यहाँ से इलाहाबाद की गाड़ी डायरेक्ट नहीं मिलती तो हम इलाहाबाद नहीं पहुँच सकते? क्या इलाहाबाद जाने का मार्ग बंद है? ऐसा नहीं है। हम यहाँ से झाँसी या कानपुर जाकर फिर वहाँ से दूसरी गाड़ी पकड़कर जिस प्रकार इलाहाबाद जा सकते हैं, वैसे ही जीव इस पंचमकाल में इस भोग भूमि में निरग्रंथ होकर, दीक्षा लेकर, चारित्र पालकर समाधिपूर्वक मरण उपरांत विदेह क्षेत्र में जाकर, वहाँ से आत्मसाधना कर केवलज्ञान को उपलब्ध होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

मुनि महाराज सद्धाम सागरजी के जीव के लिए अब वह मार्ग खुल गया है।

उनके पार्थिव शरीर को अग्नि में समर्पित करने हेतु आप बोलियों में बढ़-चढ़ कर भाग लें। यह धन-धाम-धरा किसी के साथ नहीं जानी सज्जनो। आप निर्लोभ होकर इस कार्यक्रम में भाग लें। और ऊँची से ऊँची बोली लगाकर श्रेष्ठ श्रावकों में कंधा देने, सामग्री देने तथा अग्नि ले जाने का अवसर प्राप्त करें।...

इस सारी प्रक्रिया में आनंद एक सच्चे साधु की तरह कतई अलिप्त से मूक दृष्टा बने रहे।

पालकी सजाई गई और मुनि को उस विमान में पर्यक में ही बिठा लिया गया। बोली में जीत गये धनपतियों ने पालकी ढोने अपने आदमी लगा दिए।

पहाड़ की तलहटी में नियत भूमि पर जाकर मंत्रेच्चार के मध्य जमीन की शुद्धि तीन गुणा की जाकर तथा उस पर त्रिकोण बना कर स्वस्तिक बना लिया गया।

जिन्होंने सामग्री देने की बोली जीत ली थी उनके आदमियों ने इस सिद्ध भूमि पर त्रिकोण में चंदन की लकड़ी और नारियल के गोलों में मुनि को पूर दिया, पाट दिया। फिर जिन्होंने अग्नि ले जाने की बोली जीती थी, उनके आदमियों ने घी और कपूर मिलाकर जला दिया। इस तरह देह विलीन हो गई पंचभूत में और मुनि सद्धाम सागर रह गये अल्पकालिक स्मृति में। उनका जीव विदेह भूमि में पहुँच गया था।

लौट कर आनंद ने एक और कविता को जन्म दिया-

काश! कुएँ की छत कच्ची हो

उससे जुड़ी हो नदी

और मैं बह जाऊँ...

काश! सागर से उठे मानसून

बादल बन जाऊँ मैं

धरती के पेड़ करें आकर्षित

और झमाझम बरस पड़ूँ...

काश! कोई पूछे तो बताऊँ कि-

पदार्थ को किसने दिया गुरुत्वाकर्षण

और जीव को चेतना!

**

(समाप्त)