नमो अरिहंता - भाग 17 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

नमो अरिहंता - भाग 17

(17)

आनंद

**

धीरे-धीरे आनंद ने जाना कि उनका मूल वैराग्य में नहीं है। हम तो इसी संसार को सजाना-संवारना चाहते हैं। इसमें जो व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है, उसी को सम पर लाना चाहते हैं। तीर्थंकरों की चर्या की अनुभूतिकर उसका दिग्दर्शन जगत् को कराना चाहते हैं ताकि मिथ्यात्व मिटे! औैर इस भ्रम के मिटते ही प्रेम-अहिंसा स्वतः स्थापित हो जाएगी। सारी मारामारी मिट जाएगी।

कि तीर्थंकरों की शिक्षा को वे इस जग में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विज्ञान सम्मत तरीके से प्रसारित करना चाहते थे। वे सभ्यता के बीच अब कोई चारदीवारी और नक्शा नहीं चाहते थे। वे मनुष्य का मूल उत्स अहिंसा और प्रेम उसे याद दिला देना चाहते थे। और चाहते थे कि मनुष्य-मनुष्य के बीच से धर्म, जाति, लिंग, धन, ज्ञान, पद और यहाँ तक कि राष्ट्रीय वैषम्य की खाइयाँ मिट जायें।...

ऐसी कामना उनके चित्त में बराबर चक्कर काटती रहती।

एक दिन उन्होंने देखा कि यू.को. बैंक के सामने पंचमेरु मंदिर के बगल में एक कमरे के अतिरिक्त अधिकतर बहुत-सी जो खुली जगह है, उसमें एक मुनि रहा करते हैं। वे कालेकलूटे, लंबे और हड्डियों का ढाँचाभर हैं। वे बीमार हैं, शायद!

लगता है, उनका चौका लगाने वाला भी कोई स्थायी नहीं है! कोई-कोई श्रद्धालु श्रावक एक-दो दिन को आकर उनकी सेवा टहल कर जाता है। चौका आदि लगा जाता है। फिर फाँकाकशी की नौबत आ जाती है! नियम लेकर वे निकलते नहीं। और निकलें भी कहाँ? यहाँ आसपास के गाँवों में जैनी भी तो नहीं हैं।

मुनि और कहाँ जाएँ? पहाड़ के मंदिरों पर चौका का नाम नहीं। रात को कोई ठहरता भी नहीं है वहाँ, सिवा मंदिर नंबर 58 के जहाँ कि बहरे क्षुल्लक महाराज और मुनि पारस सागर इसलिए चौकीदारी करते हैं रात में ताकि मूलनायक मंदिर की सुरक्षा बनी रहे। उनका आहार-विहार तो नीचे त्यागीव्रती आश्रम में ही है। अब बचे नीचे के मंदिर और धर्मशालाएँ-सो, इनमें तो भैया जी, क्षेत्रीय साधुओं और पंडितों के अड्डे हैं! वहाँ इस बूढ़े को पूछने वाला कोई नहीं! इसलिए तीन लोक से मथुरा न्यारी की तर्ज पर बेचारे मुनि सद्धाम सागर कई सालों से यहीं डेरा डाले पड़े हैं और इसलिए भी पड़े हैं, क्योंकि मेनिन्जाइटिस के अटैक ने उन्हें अर्द्ध विक्षिप्त, अर्द्ध अंध, अर्द्ध बधिर, अर्द्ध मूक और लगभग शिथिलांग बना दिया है.

उनकी ऐसी दीन दशा देखकर आनंद का हृदय अत्यंत दया से भर गया था। यहाँ एक बार आकर फिर वे उन्हें छोड़कर झाँसी वाली धर्मशाला में न जा सके । बड़बड़ बाई के चौके में आहार हेतु भी जाना छोड़ दिया उन्होंने।...

सो, एक दिन मामाजी सोनागिरि में उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहीं आ पहुँचे।

आश्रम में एक कमरा और बहुत सारी खुली जगह थी। कमरे में एक तख़्त। तख़्त पर मोरपंखों की छीलन का बिछावन। जिसपर अर्द्ध चेतन अवस्था में वृद्ध मुनि की अत्यंत कृशकाया पसरी हुई। उनके हाथ-पाँव और पीठ में अनेक कौद पड़े हुए। पीप चुचवाते घाव। कराहते हैं मुनि रह-रहकर। बार-बार पेशाब और टट्टी की रट-सी लगाते!

औैर आनंद!

वे सेवा में तत्पर खड़े रहते हरदम।...

उनकी कटि पर एक श्वेत कोपीन और गले में वैसा ही दुपट्टा लिपटा हुआ।

यह क्षुल्लक दीक्षा उन्होंने स्वयं ली थी। किसी ने नहीं निकाली उनकी बिनौली। न किसी आचार्य ने उनके घुटे सिर पर सथिया निकालकर एक-एक लौंग रखकर 21 बार ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हम् नमः’ का जाप किया न उन्हें किसी श्रावक ने पीछी, कमंडल और शास्त्र का दान दिया।

कि उन्होंने इस आश्रम में आकर मुनि सद्धाम सागर के चरणों में झुककर, उन्हें श्रद्धा का नारियल भेंटकर अत्यंत सहज गति से स्वयं झुल्लक-दीक्षा ले ली थी!

और अपना नामकरण स्वतः कर लिया था- आनंद बिहारी से आनंद भूषण हो गये थे वे।...

आनंद का यह हुलिया देखकर, उन्हें गंधाते मुनि की सेवा में तल्लीन पाकर मामाजी ने अपना माथा पीट लिया। वे अपनी घृणा छुपा नहीं पाये-

‘धन्य हो महाराज! तुम्हारी लिखा-पढ़ी, हुश्यिारी धन्य हो! तुम्हारा साधुपना धन्य हो, खूब लीला रचायी प्रभो!’

मामाजी का यह व्यंग्यात्मक प्रणाम आनंद ने सहज भाव से लिया। शांत चित्त से बोले, ‘धर्म प्रत्येक व्यक्ति की निजी उपलब्धि है, अपनी-अपनी साधना से मिलता है!’

तब वहाँ बैठने से पहले ही मामाजी के तेवर चढ़ गये, ‘धर्म के बारे में तुम जानते ही क्या हो अभी? ये तो जूठन है जिसे तुम भूखे बंगाली की तरह खाने को झपट पड़े हो! ये भी जानते हो कि आदि-अनादि धर्म तो एक ही है, सनातन धर्म!

विश्वभर में और जितने भी धर्म हैं- उसी से निकले हैं, उसी की शाखा-प्रशाखाएँ हैं!’

आनंद चुप रह गये। मामाजी के काले और भ्रमर-काले कंबल पर कोई दूसरा रंग चढ़ाना चलनी में भैंस दुहना था। वे बोले, ‘बैठ लीजिये, आपका गुस्सा फिर भी कम है।’

मामाजी एक ओर उकडँ बैठ गये चटाई पर, नाक-भौं चढ़ाए! मानो कमरे की दुर्गंध असहनीय थी। वे इस तरह चटाई-फर्श पर नहीं तख़्त पर बैठने के आदी थे। किसी कमरे में नहीं, यह तख़्त पांडाल में होता। और मामाजी गावतकिये से टिककर कुप्पा से फूलकर बैठ जाते माला डलवाने। एक कौम के उद्धारक। भारतीय संस्कृति के महान् रक्षक। तब उन प्रशस्तियों के तुमुल घोष में उन्हें और कुछ नहीं सुन पड़ता। उस संघर्ष यानी पुनरुत्थान आंदोलन में उन्हें अपने स्वर्ग का द्वार खुलता नजर आता जो उनका अभीष्ट था। और मामाजी के इस मिथ्यात्व को मेट पाने की आनंद में तो क्या किसी खालिस पैगंबर में भी जरा-सी कुव्वत न थी।

फिर भी आनंद ने धीरज के साथ कहा, ‘सारे फासले बुराई के बीच हैं। भलाई के बीच कोई फासला नहीं है। जो मंदिर और चर्च, मस्जिद और गुरुद्वारे अलग-अलग खड़े दीखते हैं- और जो संप्रदाय और संगठनों में बँटे दिखाई पड़ते हैं, वे सब बुराई की देन हैं। साधु कभी किसी को नहीं लड़ाता। यदि आप महावीर से जुड़ गये तो राम-कृष्ण, मोहम्मद, ईसा, नानक से कट कैसे जाएँगे। ये कोई एक-दूसरे के दुश्मन थे क्या?’

मामाजी ने उन्हें अनसुना कर बात काटी, ‘तुम्हें पता है- जि भक्ती का व्यभिचार है सभी देवताओं के प्रति श्रद्धा-भक्ति, व्यभिचारिणी भक्ति है।’

आनंद को उनकी बुद्धि पर बड़ा तरस आया। वे खामोश रहे। मामाजी अपना चश्मा ऊपर खिसकाते हुए बोले, ‘धर्म के संबंध में सब जान लेने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता और रटन्त विद्या से कोई पंडित नहीं बन जाता। ऐसे ही होता तो सब के सब छात्र प्रोफेसर बन जाते और जे जैनी पंडित, मुल्ला, पादरी वगैरा असली पंडित बन जाते।...’

आनंद उनकी बात का विलग न मानते हुए फिर बोले, ‘हमसे पिछली सदियों में एक बड़ी भारी गलती हुई है, जो हमने इन सारे लोगों को अलौकिक बना दिया। राम-कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद को भगवान् या उसका पुत्र या अवतार बना दिया। तब हमने उनके चरित्र, उनकी शिक्षा-ज्ञान से प्रभावित हो उनसे श्रद्धा प्रकट कर, उनसे असीम प्रेम में ये भावुक बातें कह डाली थीं। हमें पता नहीं था कि हमारी भक्ति मनुष्य के लिए इतनी महँगी पड़ जाएगी!

दरअसल, ये इशारे भर हैं। इनकी पूजा नहीं करनी है!’

‘तुम्हारी तो बुद्धि फिर गई है,’ मामाजी उखड़ गये, ‘बहुत पढ़ लिया है तुमने, बड़े चिंतक बन गये हो- सो, एक तो राम-कृष्ण से मोहम्मद की तुलना करते हो, दूसरे उन्हें लौकिक बताकर विज्ञान बघारते हो, कल के लौंडे! तुम जानो क्या ऽ?’

क्रोध में उनकी वाणी काँप रही थी।

मुनि सद्धाम सागर भयभीत से होकर बैठने हुए। आनंद ने तुरंत उठकर उन्हें सहारा दिया। सिर पर तथा छाती पर हाथ फेरते हुए पुचकारते से बोले, ‘नहीं महाराज! कुछ नहीं, कोई बात नहीं है। लेटे रहो! पानी पिलाएँ?’

मुनि ने जैसे- बेहोशी में हाथ के इशारे से मना किया। उनकी पुतलियाँ भयातुर-सी चकमका रही थीं, पूछा ‘को है! का है?’

‘आप लेट जाओ!’ आनंद उन्हें सांत्वना देने लगे। उन्होंने हाथ से मना किया, यों ही ठीक है। तब आनंद ने उन्हें दीवार का सहारा पकड़ा दिया। मुनि नाक में लंबी-सी उँगली डालकर कुछ मैल-सा निकालने लगे। मामाजी ने अपना करम ठोका। पर इस प्रतिक्रिया से अप्रभावित आनंद फिर से चटाई पर बैठते हुए बोले, ‘धर्म संकल्प से उपलब्ध होता है, श्रम से, अपनी मेहनत से। मैं जन्मना ब्राह्मण था, पर ब्राह्मण हो पाया?’

‘नहीं तुम अब हो जाओगे ब्राह्मण!’ गोया मामाजी ने खिसियाकर आनंद के मुँह पर तमाचा जड़ दिया।

‘आप कुछ भी कहें इसे,’ आनंद स्थिर भाव से बोले, ‘मैं सत्य को माँगूँगा नहीं, उसे प्राप्त करूँगा। उसके लिए संघर्ष करूँगा। उसके लिए अपने विकारों से लड़ूँगा- बलिदान दूँगा, समर्पित हो जाऊँगा उसके निमित्त।’

अब बात टूट गई थी। अब मामाजी को कुछ कहने की हिम्मत न हो रही थी। अव्वल तो उन्होंने शुरू से ही अपनी नाक पर मक्खी न ठहरने दी, सो अब आनंद बिहारी को मना लेने का कोई मार्ग ही न बचा था।

कमरे की छत पर मई का सूरज पूरे तेज से चमक रहा था। बाहर की धूप देख कर आँखें तिलमिला जातीं। सद्धाम सागर गरमी से व्याकुल होकर छटपटा उठे थे। मेनिन्जाइटिस उन्हें एक अनोखी सौगात जो दे गया था, छाती में घबराहट! सो वे उथल-पुथल हो रहे थे।

आनंद बहसबाजी छोड़ उन्हें संभालने में लग गये, ‘नईं-नईं, प्च्चु-प्च्चु! का है, का है, का है घबराओ नईं। हिम्मत रखो। कहा गया है कि- जो अपने जीवन में कर्म करता हुआ रोता है और फल भोगता हुआ हँसता है- वह एक दिन परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।’

मामाजी के क्रोध का बुखार अब कुछ ठंडा पड़ गया था। वे बाहर चले गये कमरे से और कंधे पर जनेऊ ढूँढ़ते हुए पेशाब के लिए जगह तलाशने लगे।...

फिर निवृत्त होकर तथा टंकी के जल से कुल्ला कर थोड़ा-सा पानी पीकर यह सोचते हुए लौटे कि उखाड़ पछाड़ बेकार है। बाप का जूता बेटे के पाँव में आने लगे तो उसे बेटा नहीं समझना चाहिए। फिर उसे ताबेदारी में रख पाना असंभव है। हाथी के दाँत जो बाहर हो गये, सो हो गये। फिर वे भीतर होने से रहे। आनंद! हाथ से निकल चुके महाराज। बहुत कुछ पढ़ और गुन लिया है उन्होंने! अब उन्हें हराना, तर्क से पार पाना कठिन है उन पर। इसलिए क्यों न हम सीरा पोता देकर (पॉलिसी से) काम निकाल लें अपना! अभी कुछ खास नहीं बिगड़ा। क्या सुंदर गोला देह है? जरा भी झांई नहीं मरी उसकी। अभी उमर ही क्या है- तीस के हेरफेर में हैं! टनाटन एक लाख मिलेंगे! बी.ए. पास हैं। होशियार-प्रखरबुद्धि हैं। नौकरी तो लग ही जाएगी, आज नहीं तो कल। और नहीं, तो कोई चोखा-सा धंधा करेंगे। और अगर साधु-वैरागी, पंडित-वंडित ही बनेंगे तो सनातन धर्म के बनवा देंगे। सातोसाख में नाम हो जायेगा। कि- साब, कैलाशनारायन दीमानजी भी कोई हते! जिनका लड़का ऐसा नाम रोशन कर रहा है! और सब जगह छाती फुला-फुलाकर कहेंगे हम भी, ‘वे मसहूर पंडिज्जी, वेदांती, भागवती पंडित... अरे वो तो हमारा खास भनेजा है।’ ऐसे ही बुद्धि के तेज, बढ़िया बोलने वाले रहे तो हम तो काशी पढ़ाइ कें शंकराचार की गद्दी की लेन में लगाइ देंगे।...

लेकिन मंसूबों से भरे मामाजी जब कमरे में वापस पहुँचे तब आनंद बिहारी सद्धाम सागर की टट्टी साफ कर रहे थे।

मामाजी का जी घिना गया।

और यह देखकर कि मुनि तो खुद ही मचलते हुए टट्टी को अपने हाथ से पकड़े ले रहे हैं! वे खुद अपना तख़्त साफ करने को हाथ चला रहे हैं और इस छीना झपटी में मल बिखर रहा है इधर-उधर... मामाजी नाक मूँदकर बाहर भाग खड़े हुए। पर किसी बीमार कुत्ते-सी करुण कराह उनका पीछा नहीं छोड़ रही थी, ‘ऐ भइया- ऐ बैरीऽ मोको ले लेउ! ऐ- भगवान् बैरी तोको सौगंद है- जो तू असल बाप का है तो मुझे अभी ले जाऽ!’

मुनि मूर्च्छित होकर एक ओर गिर पड़े। आनंद ने तत्परता से उन्हें साफ किया। फिर अपनी शुद्धि कर मामाजी से सहज भाव से बोले, ‘यहाँ धूप की तड़प है, अंदर बैठ लीजिये।’

मामाजी का क्रोध, उनकी घृणा शिखर पर थी पर परिस्थितिवश पी गये। चुपचाप आनंद के पीछे कमरे में आकर पूर्ववत् चटाई पर बैठ लिये।

आनंद पहले की भाँति निर्विघ्न, प्रसन्न मुख दीख रहे थे। वे अर्द्ध पद्मासन में बैठ रहे। मामाजी ने समझाइशी लहजे में कहा-

‘तुम्हें सूझी क्या थी! जे कोई उमर है तुम्हाई साधू होने की?’

आनंद ने एक क्षण के लिए आँखें मूँदीं और बोले, ‘धार्मिक होना हो तो अंतिम दिन की प्रतीक्षा न करें। हमारे यहाँ लोग बुढ़ापे में वैराग्य की ओर जाते हैं। तब बचता ही क्या है छोड़ने के लिए! इंद्रियाँ स्वतः शिथिल पड़ जाती हैं! संसार खुद छोड़ देता है हमें। इसलिए धार्मिक होना हो तो जब शक्तियाँ परिपूर्ण हों और जब जिजीविषा से लबालब भरे हों तब यह दुस्साहस करें, तब ही कूद पडें़ तो ही कूदना है।’

तब उनकी बातें ही ऐसी थीं कि मामाजी शून्य होने लगे। अब वे कुछ समझा पाने की स्थिति में न रहे थे, बल्कि एक नई जिज्ञासा पैदा हो गई थी उनके भीतर यह जानने की कि ‘सब धर्मों का मूल क्या है?’

आनंद बोले, ‘धर्म का मूल मुक्ति है। बस एक ही बंधन है, जिससे मुक्त होना है और वह बंधन है ‘मैं’ का! अपने अहंभाव का।’

गोया आनंद अब फ्लो में थे-

‘और ये मुक्ति उन सांसारिक बंधनों से है जो एक स्वतंत्र जन्म लिए शिशु पर हम आरंभ से ही थोपते चले आते हैं। नाहक बाँध देते हैं कतरा-कतरा तमाम अंध बंधनों में- जाति, धर्म, लिंग, भाषा, समाज और राष्ट्र के अपार बंधनों में। इतने असंख्य-घुरगाँठ बंधनों में कि जो खुलते ही नहीं! कि उसकी आत्मा छटपटा-छटपटा कर उन्हीं की अभ्यस्त हो जाती है। उन्हें यथार्थ मानकर उन्हीं का पोषण कर उठती है। औैर आश्चर्य कि इन बंधनों के संस्कारों को हम अपने श्रेष्ठ धार्मिक संस्कार, श्रेष्ठ सामाजिक संस्कार, श्रेष्ठ राष्ट्रीयता आदि के नाम से गौरवान्वित कर और घना मकड़ी-सा जाला बुनते चले जाते हैं।

सो, धर्म बुढ़ापे की सजा नहीं है, जवानी का दुस्साहस है।

सतत् जागरूक रहकर अपनी समस्त क्रियाओं में यह बोध रखते हुए कि मेरा ‘मैं’ तो हावी नहीं है मुझ पर! उसी को शनैः-शनैः विसर्जित करते जाना, मुक्त हो जाना है एक दिन।’

मामाजी ने पहलू बदला। मुनि खर्राटे भर रहे थे। और आनंद मानो खुद से बतिया उठे हैं- कि अतीत में हमने बड़ी-बड़ी बातें कही हैं सृष्टि की, सृष्टि निर्माण की, परमात्मा की, स्वर्ग-नर्क की। इन बातों का मुक्ति से- सत्य से भला क्या वास्ता है? बल्कि यों तो सत्य को, मुक्ति को हमने और भी बादलों की ओट में कर दिया, क्योंकि जितने मत-मतान्तर, उतने संप्रदाय! इस मार्ग से नहीं, इससे आओ! अरे- वह तो पंडागिरी है, भाई!’

और महसूस किया मामाजी ने, वे खरी-खरी कह रहे हैं।

सद्धाम सागर सो रहे हैं।

जाना है मामाजी को भी अब।

अब आनंद को नहीं ले जा पाएँगे वे। नहीं, उनमें इतना धीरज कहाँ है? और भला वे अपने मार्ग को, अपने मत को इतनी आसानी से छोड़ देंगे!

इसलिए, न्यारा पूत पड़ोसी दाखिल। बेटा, जियो तो अपने भाग, मरो तो अपने! जन्म के साथी हैं, कर्म के नहीं।

सो, उन्होंने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि ये रही प्रीति की चिट्ठी! उन्होंने अपनी बंडी की भीतरी जेब में जतन से घड़ी बनाकर रखी हुई प्रीति की चिट्ठी उन्हें पकड़ाते हुए कहा, ‘आखिर वो भी जैन है और जैनियों के बारे में तुम से ज्यादा जानती है। इसे शांत मूड में पढ़ना और सोचना।’

फिर वे जाते-जाते अपना झोला संभालकर बोले, ‘हमारा तो विचार है कि तुम लौटि आओ, फिर जो भगवान् की मरजी।’

मामाजी के आने और चले जाने का आनंद पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा था। क्षण भर के लिए अम्मा की सुध जरूर आई, पर भाइयों के बारे में कोई खास जिज्ञासा न हुई। बाद में देर रात तक आनंद सोचते रहे थे कि जब वे गर्भ में आए होंगे, तब अम्मा को सब कुछ भरा-भरा-सा लग उठा होगा! वे पूर्वानुभवों को याद करती हुईं अपने अकेलेपन में आनंद से बतियाती होंगी। उन्हें चुमकारती होंगी। कि जब पेट जित्ते ब्रह्मांड में वे सैर और सैलगट्टी करते होंगे, तब अम्मा उनकी एक-एक गुदगुदी पर हजार बार बलि जाती होंगी!

फिर जब वे बाहर आए होंगे- तो अम्मा का पेट खाली होकर भी जैसे भर-सा गया होगा। कि वे लगातार उनकी प्रगति पर बहुत बारीक नजर रखे रही होंगी। उनकी नयी-नयी हरकतों से उनकी बढ़त देखती रही होंगी! कि वे डेढ़ महीने के होकर अम्मा को पहचानने लगे हैं कि, नहीं! दो महीने के होते-होते अम्मा को देखकर मुस्कराने लगे हैं, कि नहीं! अब अपना सिर संभालकर आवाजों की दिशा समझने लगे हैं, कि नहीं! कि अब चार महीने के होकर करवट बदलकर चीजें को पकड़ना सीखने लगे हैं, कि नहीं! कि अब उठने की कोशिश करते हैं- अब तकिये के सहारे बैठ जाते हैं- अब छह महीने के तो हो गये इनके दाँत निकलने लगे, कि नहीं! अब घुटनों के बल चल उठे! अब जरा-सा सहारा पकड़कर खड़े होने लगे। और अब! अब तो बिना सहारे के चलने लगे हैं। वे खुद ताली पीटकर किलकती होंगी बच्चों की तरह। और आनंद हाथ में खिलौना लिए, नये सिखाड़ी की तरह हैंडल डगमगाते हुए से साइकिल-सी चलाकर डगमग-डगमग चल उठे हैं...

ऐसी कितनी यात्राएँ तय करायी होंगी अम्मा ने उन्हें! सर्दी, जुकाम, दस्त, उलटी से लेकर आई-फ्लू तक की। फिर सिखाने लगी होंगी- बेटे! छोटे ‘अ’ से अनार, बड़े ‘आ’ से आम!’

और तब इस निष्काम कर्म के बावजूद अम्मा निस्संदेह फल की इच्छा से बंध गई होंगी, जाने-अनजाने! यही तो संसार है! ये समूचा संसार हमारे चित्त का है, मानसिक है निरा भौतिक नहीं है- वह तो सपनों का भी है! महज वस्तुओं का होता तो पशु-पक्षी भी बंध जाते फल की इच्छा में। पर वहाँ ऐसा कुछ है ही नहीं। जैसा कि मनुष्य के संसार में है। विकट कर्मों का बंध।

इसी तरह सोच-विचारकर वे अम्मा की क्षीण-सी स्मृति से जल्द ही उबर गये। मामाजी ने जब उन्हें प्रीति का पत्र दिया था तो उसे उन्होंने एक ग्रंथ के नीचे दबाकर रख दिया था। उन दिनों वे जैनागम के अध्ययन में तल्लीन रहा करते थे। मामाजी ने उन्हें प्रीति का पत्र देकर और अम्मा की याद दिलाकर उन पर उपसर्ग ही तो किया था।...

उन्हें याद आया कि सेठ की दान में, कवि की पाठ में, शूरवीर की युद्धामंत्रण में, वेश्या की धनपति के समक्ष, विद्यार्थी की परीक्षा में, स्त्री की पर-पुरुष द्वारा भोग-याचना में और साधु की उपसर्ग के समय ही तो परीक्षा होती है।...

सो वे इस उपसर्ग का निवारण सहज रूप में कर लेना चाहते थे। वे जिनवाणी पर अखंड श्रद्धा जमा लेना चाहते थे, महज विश्वास नहीं, क्योंकि विश्वास तात्कालिक होता है और श्रद्धा दीर्घकालिक! श्रद्धा वही है, जो तत्त्व के प्रति हो और प्रतिकूल परिस्थिति में डिगे नहीं। फिर श्रद्धा तो पत्थर पर खींची गई लकीर है।...

अब उन्हें मुनियों के 28 मूल गुण पालने का अभ्यास करना था। एक कड़े अभ्यास के द्वारा वे देह के सुख-दुःख मिटा लेना चाहते थे। वे केवल एक चटाई जमीन पर बिछाकर पड़े रहते। उन्होंने जान लिया था कि मुनि अनेकों कठिन साधनों द्वारा जीवन का परम् कल्याण कर, कर्मों को समाप्त कर एक दिन कैवल्यज्ञान को प्राप्त होते हैं। तभी तो अनेकानेक दार्शनिकों, विद्वानों, पंडितों, ऋषि-मुनियों ने कहा है कि दिगंबर धर्म आदिनाथ से महावीर तक और महावीर से आज तक जो था, वही है। उसके त्याग-तप में कोई अंतर नहीं आया। इनकी प्रत्येक क्रिया में साधना है-

खड़े होकर भोजन करने में भोजन के प्रति गृद्ध-भाव का नाश हो जाता है और खड़े होकर आहार लेने के वक्त श्राविका जब निकट आती है साधु के, तब परीक्षण हो जाता है साधु के विकार का। साधु तो वही है जो पेट को चार भागों में बाँट ले! सो- एक में जल, एक में अन्न और दो भाग खाली रखे ताकि साधना दिन भर बिना आलस्य, बिना प्रमाद के चल सके।

जब कार्तिक में मयूर स्वतः पंख छोड़े तो उन्हें बटोर कर अग्रभाग की पीछी बना ले ताकि इन मुलायम पंखों से सूक्ष्म जीवों की भी रक्षा कर सके- शास्त्र उठाते-धरते वक्त, उठते-बैठते वक्त। बल्कि हर क्रिया में। सो, पीछी तो वीतरागता का प्रतीक है और उत्कृष्ट संयम का श्रेष्ठ उपकरण भी।

हरदम लकड़ी का एक कमंडल रखे, जिसमें शरीर शुद्धि हेतु प्रासुक जल भरा रहे।

शरीर का ममत्व घटाने, सौंदर्य मिटाने, आत्म-शक्ति बढ़ाने ही दाढ़ी-मूँछ और सिर का केशलोंच करते हैं! इस तरह अपने हाथों अपने ही शरीर के बाल उखाड़ना शरीर की उत्कृष्ट साधना शक्ति का इम्तिहान नहीं तो और क्या है?

पढ़ते-पढ़ते आनंद रोमांचित हो उठते। कहा है जैनाचार्यों ने- वस्त्र पहनने से मैला होता है, तब साबुन-सोड़ा आदि क्षार पदार्थों की आवश्यकता होती है उसे साफ करने के वास्ते। तब तो हिंसा भी होगी! नाश भी होगा संयम का! उनके फटने का डर भी तो बना रहेगा। और फटने पर दीनवृत्ति का जन्म कैसे न होगा? याचना के भाव से कैसे बचे रहेंगे। अनेक विकल्पों का सामना करना होगा। क्या वे विकल्प फिर साधना करने देंगे!

और उन्हें लगता कि बाहर का छोड़ना पहले जरूरी है और संपूर्ण छोड़ना जरूरी है नहीं तो ये एक लंगोटी ही मन को बहुत हिलगाए रखती है! अब और कुछ तो बचा नहीं, सो- मन बार-बार इसी पर जाता है कि इसको ज्यादा से ज्यादा सुंदर-साफ रखें। हद है।...

पर मन को तमाम खींच लेने के बावजूद किसी न किसी शास्त्र के नीचे रखा प्रीति का पत्र उन्हें रोज मिल जाता और वे उसे इसलिए नहीं फाड़ डालना चाहते थे कि फाड़ डालने में भी एक प्रकार की वैचारिक हिंसा थी। उसे तो पढ़कर अपने ज्ञान से उस माया को काटने पर ही दाँत में जो कुछ फँस गया है, वह निकल पाएगा। नहीं तो यह जीभ वहीं लगी रहेगी।

सो- आनंद ने एक दिन निर्लिप्त भाव से वह पत्र खोल ही लिया!

प्रीति ने बिना किसी सम्बोधन के सपाट लहजे में लिखा था-

‘यह कितनी अद्भुत् बात है कि पृथ्वी निरंतर घूम रही है, मैं विस्मित हूँ, आश्चर्यचकित हूँ और किसी भी क्षण यह विस्मयकारी घटना भूलती नहीं! फिर जिस तरह यह दृश्य जगत् प्रतिक्षण गतिवान है- अगणित पिंड अनंत यात्राओं पर निकल पड़े हैं! मैं सोऊँ कैसे? यह करके तो असंख्य तारे गतिहीनता को प्राप्त हो गये हैं- निष्क्रिय हो रहे हैं।

आनंद! महान् आश्चर्य! आदिकाल से आदमी यह जानता रहा है, फिर भी जड़ हो गया है! रुक गया है- एक घर में, एक मंदिर में, एक पंथ में। कहाँ सो गया उसका प्राकृत ज्ञान? क्या उसे होश नहीं रहा कि इस गतिशील ग्रह पर वह गतिहीनता को कैसे प्राप्त हो सकता है। जो विचार हवा के मानिंद हैं, उन्हीं को वह रोक देना चाहता है। एक घेरे में कैद कर लेना चाहता है खुद को और खुद ही प्रकृति के सहज क्रम को भंग करने के लिए, परिभ्रमण से, आवागमन से मुक्ति के लिए साधनारत् है। यानी रुका है! जीवनभर रुका रहता है। कि जीते जी उसने जीवन को मृत्यु में तब्दील कर लिया है, क्यों? यह मुक्ति जड़ता नहीं है क्या! एक स्थायी जड़ता है आनंद, यह तुम्हारी मुक्ति! उसका पथ अवसर्प का है, उत्पसर्प का नहीं।

मैं जानती हूँ कि तुम अनभिज्ञ नहीं हो, वर्तमान में मंगलग्रह से समग्र जीवन की मुक्ति हो गई है। किसी चाँद पर जीवन उपजा ही नहीं, आज पूछना चाहती हूँ कि- क्या यह अच्छा है? और तुम्हारे करने से तो सारे संसार की मुक्ति होने से रही। मुक्ति तो इस ग्रह की एक दिन स्वतः हो जाएगी। हमारा यह नील ग्रह सदा-सर्वदा के लिए नहीं है। जब तक सूरज में ताप है- तभी तक जीवन है जब तक वह लाल राक्षस तारे में बदल कर धरती को नहीं निगल लेता, तभी तक यह सभ्यता है। सो, मुक्ति तो इस ग्रह की एक दिन स्वतः हो जानी है- यह तो एक प्राकृत क्रम है। इसे मनुष्य का प्रयास नहीं रोक सकेगा। न उसके उदय को, न अस्त को।

और आनंद! यह कितना विरोधाभास है कि प्रकृति का सारा संघर्ष उद्भव और विकास को लेकर है। किंतु विकासोपरांत विरोधी क्रियाएँ आरंभ हो जाती हैं और सब कुछ पराभव को प्राप्त होकर नष्ट होकर जड़ता को प्राप्त हो जाता है। पर अफसोस कि मनुष्य तो एक चेतन शक्ति है। वह केवल शरीर और दृश्य जगत् को ही नहीं- अपनी ज्ञानमयी प्रभा से ब्रह्मांड की गति को भी निरख पा रहा है। जानते हुए भी कि हवा, प्रकाश स्थिर नहीं, जड़तर पदार्थ भी प्रवाहमान हैं, जल का प्रत्येक कण गतिज ऊर्जा से लबरेज है, आदमी रुक जाना चाहता है। प्रकृति के क्रम के विरुद्ध, जीवन के विरुद्ध हाथ धोकर पीछे पड़ा है।’

(क्रमशः)