दार्शनिक दृष्टि - भाग -8 - समुद्रमंथन भाग ३ (समुद्रमंथन का अंतिम भाग) बिट्टू श्री दार्शनिक द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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दार्शनिक दृष्टि - भाग -8 - समुद्रमंथन भाग ३ (समुद्रमंथन का अंतिम भाग)

दोस्तों ! हमने आगे के भाग में देखा की संसाधनों का भी व्यय होता है। फिर चाहे वह मानव संसाधन हो, धन हो, समय हो अथवा किसी वस्तु विशेष का हो।
दोस्तों,
जब किसी कार्य के लिए लोग एक साथ इकठ्ठा हो जाते है, तब वे हमेशा ही अपने अपने मत रखते है और कार्य के अमल में देर होती है। फिर जब वे जुड़ने को तैयार हो जाते है तब अपने अपने फायदे का हमेशा ही पूछते है। यह स्वाभाविक भी है।
कथा के अनुसार समुद्रमंथन के वक्त भी यह बात अवश्य हुई भी थी। कई सारे लोग दोस्तों ! हमने आगे के भाग में देखा की संसाधनों का भी व्यय होता है। फिर चाहे वह मानव संसाधन हो, धन हो, समय हो अथवा किसी वस्तु विशेष का हो।
दोस्तों,
जब किसी कार्य के लिए लोग एक साथ इकठ्ठा हो जाते है, तब वे हमेशा ही अपने अपने मत रखते है और कार्य के अमल में देर होती है। फिर जब वे जुड़ने को तैयार हो जाते है तब अपने अपने फायदे का हमेशा ही पूछते है। यह स्वाभाविक भी है।
कथा के अनुसार समुद्रमंथन के वक्त भी यह बात अवश्य हुई भी थी। कई सारे लोग एक दूसरे के साथ कार्य करने को राजी नहीं थे। चाहे किसी के चरित्र के मिथ्या अनुमान की वजह रही हो या आपसी बैर रहा हो। ठीक यही बात समाज में भी है, बड़े परिवारों में भी है ही। समुद्रमंथन का अंतिम फल श्री की प्राप्ति केवल तभी संभव हो पाई थी, जब सारे लोग उस एक कार्य में अंत तक बने रहे। वहां हर किसी को अपना अपना स्वार्थ दिखा था, जैसे की यश मिलने पर कोई यश ले कर कार्य को छोड़ देता, कोई सुवर्ण आदि की प्राप्ति पर कार्य छोड़ देता, कोई भोजन की प्राप्ति पर, कोई संसाधन की प्राप्ति पर, कोई हीरे मोती पा कर छोड़ ही देता। जब जब ऐसा हुआ तब तब श्री की प्राप्ति में देरी भी हुई और रूकावटे भी आई।
जब जब रूकावटे बहोत अधिक हुई है तब तब एक दूसरे के चरित्र अथवा कार्य को ठीक से न करने जैसे कई सारे लांछन लगाए। यह लांछन अथवा निंदा कार्य में सहकार न मिलने का बड़ा कारण बना था। यह बात संगठन के भीतर किसी विष से कम नहीं।
जब समुद्रमंथन में यह हुआ तो उसका प्रतिरूपण विष के घड़े से किया गया। जिसका पान महादेवने किया और कार्य पुन: आरंभ हुआ। अर्थात्, हर संस्था में जब जब आगे बढ़ते है, ज्यादा लोग जुड़ते है तो यह लांछन उड़ते ही है। जिसका स्वीकार केवल वहीं व्यक्ति करेगा जो महादेव की भांति ऐसी छोटी मोटी बातो को हटाकर काम आगे बढ़ाने की चाह रखता है।
इसके बाद समुद्रमंथन में कदाचित ही महादेव के योगदान का वर्णन है। जिसका अर्थ है की महादेव जैसा व्यक्ति लांछन का स्वीकार करके उस संस्था से विदा हो जाता है।
फिर अमृत के कलश की बात आती है, जिसका पान छल से देवताओं को करवाया गया और दानवों, राक्षसों को वंचित रखा गया। इसका स्पष्ट अर्थ है की लंबे वक्त तक वही उस संस्था से जुड़ा रहेगा जो इस संस्था के मालिक को हितकारी दिखेगा, अथवा लगेगा। अन्य लोग अपने हिस्से के लिए अन्याय और छल का प्रयोग करेंगे अथवा संचालन को बुराभला कहेंगे। संस्था के कार्य और कीर्ति को अवरुद्ध करेंगे। जैसा कि राहू/केतु ने करा था। यह राहु अथवा केतु हमेशा संचालक के नेक कार्य का बुरा फल दे पाने के प्रयास में उत्सुक रहते है।
अंत में जब समुद्र से कोई सुंदर कन्या उत्पन्न हुई। जिसने नारायण का वरण किया।
इसका तात्पर्य यह है की, जिस व्यक्ति के पास दृष्टिकोण, श्री प्राप्त करने का मार्ग, संसाधन, सामर्थ्य, साहस, शौर्य, समुद्र मंथन जैसे बड़े कार्य का मूल आधार बनने का धैर्य हो उसी को महालक्ष्मी मिलती है। जिसका चिन्ह सुंदर गुणवान कन्या है। इसका अर्थ है की स्त्री स्वयं लक्ष्मी नहीं होती है। किंतु स्त्री वहां जाना स्वीकार करती है जहां विश्वास, सहकार, सामर्थ्य, धैर्य जैसे गुणों से उत्पन्न महालक्ष्मी का पहले से ही निवास हो।

लक्ष्मी अथवा महालक्ष्मी को प्राप्त करने में यहां कोई किसी का नौकर नहीं बना था अथवा किसीने किसी की नौकरी नहीं करी थी।
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#दार्शनिक_दृष्टि
हमारे इस अध्याय को पढ़ने के लिए आपका बहोत धन्यवाद!
आप चाहे तो हमे अपना मत इंस्टाग्राम आईडी @bittushreedarshanik पर फोलो करे और जरूर बताएं।
हमारी नॉवेल आगे अपने मित्रो को अवश्य शेयर करें और रेट करना न भूले। धन्यवाद!

नई बात पर दार्शनिक की दृष्टि के साथ जल्द ही लौटेगा। तब तक यदि आपके कोई प्रश्न हो तो हमारे इंस्टाग्राम आईडी पर अवश्य पूछे। दूसरे के साथ कार्य करने को राजी नहीं थे। चाहे किसी के चरित्र के मिथ्या अनुमान की वजह रही हो या आपसी बैर रहा हो। ठीक यही बात समाज में भी है, बड़े परिवारों में भी है ही। समुद्रमंथन का अंतिम फल श्री की प्राप्ति केवल तभी संभव हो पाई थी, जब सारे लोग उस एक कार्य में अंत तक बने रहे। वहां हर किसी को अपना अपना स्वार्थ दिखा था, जैसे की यश मिलने पर कोई यश ले कर कार्य को छोड़ देता, कोई सुवर्ण आदि की प्राप्ति पर कार्य छोड़ देता, कोई भोजन की प्राप्ति पर, कोई संसाधन की प्राप्ति पर, कोई हीरे मोती पा कर छोड़ ही देता। जब जब ऐसा हुआ तब तब श्री की प्राप्ति में देरी भी हुई और रूकावटे भी आई।
जब जब रूकावटे बहोत अधिक हुई है तब तब एक दूसरे के चरित्र अथवा कार्य को ठीक से न करने जैसे कई सारे लांछन लगाए। यह लांछन अथवा निंदा कार्य में सहकार न मिलने का बड़ा कारण बना था। यह बात संगठन के भीतर किसी विष से कम नहीं।
जब समुद्रमंथन में यह हुआ तो उसका प्रतिरूपण विष के घड़े से किया गया। जिसका पान महादेवने किया और कार्य पुन: आरंभ हुआ। अर्थात्, हर संस्था में जब जब आगे बढ़ते है, ज्यादा लोग जुड़ते है तो यह लांछन उड़ते ही है। जिसका स्वीकार केवल वहीं व्यक्ति करेगा जो महादेव की भांति ऐसी छोटी मोटी बातो को हटाकर काम आगे बढ़ाने की चाह रखता है।
इसके बाद समुद्रमंथन में कदाचित ही महादेव के योगदान का वर्णन है। जिसका अर्थ है की महादेव जैसा व्यक्ति लांछन का स्वीकार करके उस संस्था से विदा हो जाता है।
फिर अमृत के कलश की बात आती है, जिसका पान छल से देवताओं को करवाया गया और दानवों, राक्षसों को वंचित रखा गया। इसका स्पष्ट अर्थ है की लंबे वक्त तक वही उस संस्था से जुड़ा रहेगा जो इस संस्था के मालिक को हितकारी दिखेगा, अथवा लगेगा। इस अमृतपान का एक और अर्थ यह है की जो कोई भी यहां जुड़ा है और श्री की प्राप्ती के बाद जो कोई भी संसार अथवा संस्था के लिए आवकार्य है वह हमेशा सकुशल रहे यह सुनिश्चित करा जायेगा। जिसका उदाहरण है की सरकार पेंशन देती है और प्राइवेट कंपनियां कर्मचारी को घर, संसाधन, जीवनबीमा आदि देते है। अन्य लोग अपने हिस्से के लिए अन्याय और छल का प्रयोग करेंगे अथवा संचालन को बुराभला कहेंगे। संस्था के कार्य और कीर्ति को अवरुद्ध करेंगे। जैसा कि राहू/केतु ने करा था। यह राहु अथवा केतु हमेशा संचालक के नेक कार्य का बुरा फल दे पाने के प्रयास में उत्सुक रहते है।
अंत में जब समुद्र से कोई सुंदर कन्या उत्पन्न हुई। जिसने नारायण का वरण किया।
इसका तात्पर्य यह है की, जिस व्यक्ति के पास दृष्टिकोण, श्री प्राप्त करने का मार्ग, संसाधन, सामर्थ्य, साहस, शौर्य, समुद्र मंथन जैसे बड़े कार्य का मूल आधार बनने का धैर्य हो उसी को महालक्ष्मी मिलती है। जिसका चिन्ह सुंदर गुणवान कन्या है। इसका अर्थ है की स्त्री स्वयं लक्ष्मी नहीं होती है। किंतु स्त्री वहां जाना स्वीकार करती है जहां विश्वास, सहकार, सामर्थ्य, धैर्य जैसे गुणों से उत्पन्न महालक्ष्मी का पहले से ही निवास हो।

लक्ष्मी अथवा महालक्ष्मी को प्राप्त करने में यहां कोई किसी का नौकर नहीं बना था अथवा किसीने किसी की नौकरी नहीं करी थी।
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#दार्शनिक_दृष्टि
हमारे इस अध्याय को पढ़ने के लिए आपका बहोत धन्यवाद!
आप चाहे तो हमे अपना मत इंस्टाग्राम आईडी @bittushreedarshanik पर फोलो करे और जरूर बताएं।
हमारी नॉवेल आगे अपने मित्रो को अवश्य शेयर करें और रेट करना न भूले। धन्यवाद!
नई बात पर दार्शनिक की दृष्टि के साथ जल्द ही लौटेगा। तब तक यदि आपके कोई प्रश्न हो तो हमारे इंस्टाग्राम आईडी पर अवश्य पूछे।