दार्शनिक दृष्टि - भाग -4 - विचारधारा बिट्टू श्री दार्शनिक द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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दार्शनिक दृष्टि - भाग -4 - विचारधारा

अधिकतर ऐसा होता है की जो भी कार्य आरंभ होता है अथवा किया जाता उसमे कुछ न कुछ समस्या आती है। उस समस्या का कोई न कोई समाधान भी होता है। यह समाधान अधिकतर परिस्थितियों में वास्तविक कार्य रेखा से भिन्न अथवा विपरित होता है। ठीक वैसे ही समाधान की खोज और कार्य सरल करने हेतु व्यक्ति को विचार का बदलाव लाना आवश्यक हो जाता है।

जब कभी समाज अथवा संगठन अथवा देश अथवा कोई समुदाय में कोई बदलाव आता है अथवा लाया जाता है तो उसके लिए कोई न कोई नियम और मर्यादा सुनिश्चित करी जाती है।

किसी भी समुदाय, समाज और देश का सुचारू संचालन सुनिश्चित करने के लिए वहां अनुशासन जरूरी होता है। अनुशासन के लिए प्रशासन द्वारा कोई न कोई नियम, न्याय व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था, नियमो से मुक्ति का समय अथवा दिन आदि सुनिश्चित करे जाते है। जब यह नियम आदि समाज के विकास और लोगो के विकास व समान्य इच्छाओं को अवरुद्ध करने है तब इन नियमो में पुन: बदलाव की आवश्यकता आती है। अधितर यह इच्छाएं पारिवारिक अथवा व्यक्तिगत स्तर पर निर्माण लेती है। जिसकी वजह देश के प्रशासन के नियम आदि का दबाव समाज के प्रशासन और समाज के प्रशासन का परिवार के प्रशासन और परिवार के प्रशासन का परिवार के व्यक्तियों पर पड़ता ही है। जब देश, समाज अथवा समुदाय के युवाओं (एक साथ अधिक लोग) की इच्छा के अनुरूप प्रशासन बदलाव नहीं लाता है और विकास व समान्य इच्छाओं की पूर्ति अधूरी रहने लगती है तब यह युवा लोग एक साथ जुड़ते चले जाते है (स्कूल और कॉलेज मुख्य स्थान है) और अपनी समस्या का अन्य मार्ग प्रशासन के नियमो और मर्यादा से बचाते हुए अथवा संगठन की शक्ति अधिक हो तो प्रशासन के विरुद्ध भी खोजते है।

जब की यह नियम और मर्यादा सब के लिए एक समान ही होते है और उस नियम व मर्यादाओं को जेल रहे युवाओं की इच्छाओं / समस्या का आधार भी तकरीबन एक जैसा ही होता है, तो उनका उपाय भी तकरीबन एक जैसा ही होता है। वे पुराने विचार की मर्यादाओं को अनावश्यक समझ कर अपनी इच्छाओं के अनुरूप के नियमो को समर्थन देने लगते है। यह एक तरह के विचार को मिला समर्थन तथा उन नए विचारों का अमलीकरण जिसे प्रशासन को एक अथवा दूसरे तरीके से मान्यता देनी ही पड़ती है। जब समाज, देश अथवा समुदाय के सारे लोग एक अथवा दूसरी तरह से इन नए विचारों वाले युवाओं अथवा लोगो से प्रभावित होने लगते है, तो उन्हे लोग नई पीढ़ी को सोच कहते है। जब यह सोच अथवा विचार स्वीकार्य रूप से फैलने लगता है तब यह विचार के एक बहाव जैसा हो जाता है। जो एक तरह से स्वयं ही निर्मित होता है। विचार के इस बहाव को धारा कहा जाता है, जो की एक से दूसरे समाज में अथवा एक से दूसरे परिवार में अथवा एक से दूसरे विस्तार में आगे बढ़ता जाता है। यहां प्रशासन विस्तृत नही होता है केवल विचार होता है। जिसका अमलीकरण समुदाय, परिवार, देश आदि अपनी आवश्यक्ता के अनुरूप करते है। और उसमे प्रशासन के हस्तक्षेप की अधिक आवश्यक्ता नहीं रहती है। यह विचारधारा है।

कभी कभी यह विचारधारा अविवेकी होने के कारण एक अथवा अधिक जगहों पर आतंकिरूप भी लेती है। तब प्रशासन बल पूर्वक इसे रोकता है अथवा नष्ट करता है अथवा प्रशासन स्वयं नष्ट हो जाता है। कभी कभी संपूर्ण समुदाय अथवा देश अथवा समाज भी नष्ट हो जाता है।

इस समस्या से बचने के लिए यह आवश्यक होता है की प्रशासन किसी भी सोच अथवा विचार को ध्यान में रखते हुए समय समय पर अपने अनुशासन में बदलाव किया करे। यदि आवश्यक्ता हो तो प्रशासकों का भी बदलाव जरूरी हो जाता है।

कभी कभी किसी कारण वश एक ही देश, समुदाय, समाज अथवा परिवार में एक से अधिक विचारधारा एक साथ बनने लगती है। तब अनुशासन कठिन होने लगता है। ऐसे में सारी विचारधारा में से जो भी यथा योग्य विचार अमली हो पाए उन सब विचारों का अमलीकरण आवश्यक हो जाता है, अथवा कुछ बदलाव लाकर के बाकी विचारों को वहीं दबा देना आवश्यक हो जाता है अथवा विभाजन आवश्यक हो जाता है।
- बिट्टू श्री दार्शनिक

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