कुत्ते फ़िल्म समीक्षा Jitin Tyagi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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कुत्ते फ़िल्म समीक्षा

पापा मेरा फ़िल्म मेकिंग का कोर्स पूरा हो गया। अब मैं भी फ़िल्म बनाऊंगा।

बेटा किस तरह की फ़िल्म बनानी हैं।

पापा वो नहीं पता, लेकिन कुएन्टीन टेरिनटिनो की तरह बनानी हैं। जैसे वो अपनी फिल्म में चैप्टर वगैरह करके दिखाते हैं।

बहुत अच्छे बेटा, तो पकड़ लो कैमरा और कहानी ये रही इस पर ही बनालें। क्योंकि मैं इस पर ही बनाने वाला था।

ठीक हैं। पापा

जबरदस्ती की एक और फ़िल्म, क्यों बनाई गई किसी को मालूम नहीं, बस इसलिए बना दी क्योंकि माल फूंकते-फूंकते अमेरिका में डायरेक्टर बनने का कोर्स पूरा हो गया था। इस फ़िल्म की भाषा मे कहूँ तो चू$#@या किस्म की फ़िल्म हैं। एक नंबर की

कहानी; हलचल, फिर हेरा फेरी, धमाल, ढोल, सूटकेस, इन फिल्मों में जिस तरह पैसे के पीछे सब लोग लगे होते हैं। एक-दूसरे से जुड़े हुए लेकिन लोगों को पता नहीं होता कि जुड़े हुए हैं। वो लास्ट में पता चलता हैं। ऐसे ही इस फ़िल्म में पैसे के पीछे हैं। बस अंतर इतना हैं। कि उन फिल्मों में कॉमेडी हैं। इसमें वो सब हैं। जो नहीं होना चाहिए। जैसे कि; नक्सलवाद, गालियां, पुलिस, राजनीति, अंडरवर्ल्ड, बड़ा गुंडा, छोटा गुंडा, ड्रग्स, जाली हथियार, पर क्या जरूरत थी इन सबकी केवल इसलिए कि हमारी शक्ल अच्छी नहीं हैं। तो एक्टर नहीं बन सकते, इसलिए डायरेक्टर बनना हैं। और जनता का चू$#@या काटना हैं।

एक्टिंग; इस फ़िल्म का लीड हीरो अर्जुन कपूर हैं। "मेरे पर कुछ नहीं आता" इस लाइन को अगर इंसान बनाया जाए तो वो इन्सान अर्जुन कपूर होगा। भाई क्यों कर रहा हैं। तू फिल्में जब तेरे पर नहीं हो रही एक्टिंग, कहीं कोई प्रोपर्टी का ऑफिस खोल लें और आराम से ज़िंदगी जी, लेकिन नहीं इसे फ़िल्म बनानी हैं। और फिर पब्लिक को धमकाना हैं। पूरी फिल्म में इंसान की शक्ल में जानवर लगा हैं। ऐसा लगेगा कि किसी दूसरे ग्रह से इसे छोड़ दिया गया हैं। पृथ्वी पर, और ये बन्दा भौचक्का हैं। कि मैं कहाँ आ गया।

नसरूदीन का बहुत छोटा सा रोल हैं। पांच मिनट का जो अपने संवादों से अर्जुन कपूर को अपनी एक्टिंग करने के लिए प्रेरित कर रहा हैं। तब्बू फ़िल्म में जबरदस्ती हैं। ऊप्पर से हर सीन में गाली दे रही हैं। क्यों, तेरे पर नार्मल बात तो की नही जा सकी आजतक किसी फिल्म में, ऊप्पर से तू चिल्ला-चिल्ला कर गली दे रही हैं। माल गैंग का सरदार अनुराग कश्यप भी हैं। उसके जो भी सीन हैं। उनमें वो मा$रच$द ही केवल बोल रहा हैं। कोकणा सेन नक्सली हैं। जो क्यों हैं। ये फ़िल्म के अंत तक पूछते रहोगे, राधिका मदान फ़िल्म में सेक्स के लिए हैं। ताकि ठरकी लोगों को थिएटर तक खिंचा जा सकें। लेकिन इस सेक्स सीन से अच्छा रोज अखबार में लिंग की लंबाई कैसे बढ़ाएं ये ऐड ज्यादा इरोटिक तरीक़े से आ जाते हैं। और एक एक्टर हैं। कुमुद मिश्रा जो इस तरह की फिल्मों में लिए ही जाते हैं। रोने के लिए, हर फिल्म में एक जैसा रोल बाकी आप लोग जानते ही हैं। कि मिश्रा साहब एक्टिंग कैसी करते हैं।

संवाद; संवाद के नाम पर केवल गालियां हैं। और टाइम पास के लिए उल्टी-सीधी गड़ी हुई कहानियां जिन्हें सुनने को बिल्कुल भी मन नहीं करता, लगता हैं।, ये क्यों ऐसी बात कर रहे हैं। जिसका कोई तुक नहीं, लेकिन हद जब हो जाती हैं। जब जबरदस्ती इन कहानियों से तालमेल बैठाया जाता हैं।


अंतिम बात यह हैं। कि ये फ़िल्म एक बकवास फ़िल्म हैं। जो केवल पुलिस वालों को नीचा दिखाने के लिए बनाई गई हैं। और नक्सलियों को अच्छा दिखाने के लिए, कि वो कितने हमदर्द हर चीज़ को समझने वाले, अपने हक़ के लिए लड़ने वालें, और देश को गलत हाथों से निकालकर सही हाथों में देने वाले। फ़िल्म का पहला सीन; इसमें पहले कोकणा सेन कुमुद मिश्रा से एक से एक डॉयलोग बोलती हैं। कि नक्सली क्या हैं। वो क्या चाहता हैं। उसके लिए आज़दी का मतलब क्या हैं। और पुलिस वाले सरकार के कुत्ते हैं।

फिर उसी सीन के अंदर चलती बात में एक पुलिस वाला एक नेता के साथ आता हैं। कोंकणा सेन के साथ सेक्स करने, जिसके बाद कोकणा सेन बिल्कुल डर जाती हैं। उसे खुद का नारी होना असहाय लगता हैं। लेकिन सेक्स करने वाला पुलिस वाला बिल्कुल तरस नहीं खाता और कुमुद मिश्रा को पिटता हैं। और फिर पूरा थाना कोकणा सेन का रेप करता हैं। फिर अगले दिन कोंकणा सेन सबको इंक़लाब जिंदाबाद कहते हुए मार देती हैं। वाह क्या सीन हैं। क्या सोचा होगा इसे लिखने में, या फिर कोई सस्ता नशा किया होगा। पर इस तरह के सीनों की भरमार हैं। जैसे एक सीन में अर्जुन कपूर एक काल गर्ल के साथ सेक्स कर रहा होता हैं। और अगले सीन में हनुमान जी की पूजा करता हैं। और फिर अगले सीन में हत्या, इस तरह की चीजों से डायरेक्टर क्या दिखाना चाहता हैं। कि तू बहुत अच्छी फिल्म बना रहा हैं। और हद तो तब हैं। जब इंटरवल के बाद लवस्टोरी चालू हो जाती हैं। एक स्लो गाना आता हैं। ऐसा लगता हैं। कि फ़िल्म का मैन प्लाट यहीं हैं। लेकिन फिर पता चलता हैं। अच्छा डायरेक्टर को सेट पर कमर से नीचे की इच्छाओं को सुकून देना था और जिसका एक ही तरीका हैं। किसी फीमेल आर्टिस्ट के कपड़े उतारना तो बस राधिका मदान के उतार दिए। असल मे इस फ़िल्म में स्त्री एक ऑब्जेक्ट हैं। मर्द हर चीज़ का शिकारी, और बाकी चीज़ें केवल पैसा लूटने का साधन; तो इस फ़िल्म को ना देखों तो ही अच्छा हैं। क्योंकि ये वो सरदर्द हैं। जो जल्दी जाता नहीं हैं।