गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन
से कहा है:-
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।(2/3)।
अर्थात हे पार्थ कायर मत बनो। यह तुम्हें शोभा नहीं देता है, हे
! परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।
संघर्ष का नाम
ही जिंदगी है। जीवन पथ पर वही आगे बढ़ते हैं जिनमें चलने का साहस हो।विजयश्री उन्हीं
को वरण करती है,जिन्होंने किसी कार्य का निश्चय किया हो और उसकी ओर पहला कदम बढ़ाया
हो।मनुष्य प्रायः किसी काम की शुरुआत में ही उसे असंभव और कठिन जानकर हतोत्साहित हो
जाता है।अब अगर वह चुने गए पथ पर आगे बढ़ता भी है तो राह में आने वाली छोटी-छोटी चुनौतियां
और परेशानियों से विचलित हो जाता है।ऐसे में वह हिम्मत हार जाता है। यह स्थिति ऐसी
ही है जैसे कोई युद्ध के मैदान में उतरने से पहले ही हथियार डाल दे या खेल के मैदान
में उतरने से पहले ही अपने प्रतिद्वंद्वी को वाक ओवर दे दे।
हमारे रोजमर्रा
के जीवन में आने वाली कठिनाइयां और अड़चनें वास्त हैं।आज की परिस्थितियों में हर क्षण एक मनोवैज्ञानिक युद्ध है।इसमें वही व्यक्ति जीतता
है जो दृढ़ निश्चय वाला हो।जिसका मनोबल उच्च हो और जो छोटी-मोटी परेशानियों से विचलित
हुए बिना अपने मुख्य लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रख सके।
भगवान कृष्ण इस श्लोक
में एक श्रेष्ठ परामर्शदाता और मार्गदर्शक गुरु के रूप में उपस्थित होते हैं। वास्तव
में अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में हथियार रखने के बाद भगवान कृष्ण उनके मन का संशय
और भ्रम दूर करने का प्रयत्न शुरू करते हैं। एक सर्वश्रेष्ठ परामर्शदाता वही होता है
जो भगवान कृष्ण की तरह दुविधा में पड़े हुए व्यक्ति के मन की बात जानने की कोशिश करे
और उसे तर्कों द्वारा पूरी तरह संतुष्ट करे न कि अपनी कोई बात उस पर थोप दे। यही कारण
है कि युद्ध भूमि में उतरने का सीधे आदेश देने के स्थान पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन
के प्रश्नों का उत्तर देने की शुरुआत कर दी।
जब अर्जुन युद्ध के मैदान
में उतरने वाले हैं तो वह अपने संदेह और भ्रम को हृदय में रखकर पहला बाण भी नहीं चला
पाएंगे। यही कारण है कि सर्वप्रथम भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की चेष्टा को उनके साहस
के विलोम शब्द कायरता की आलोच्य स्थिति से जोड़ दिया कि इस समय में ऐसा मोह प्राप्त
होने पर अर्जुन कभी भी अपने इस निर्णय को न्याय संगत नहीं ठहरा पाएंगे ।अतः उन्हें
इस निर्णय पर दृढ़ होने से पूर्व एक बार भगवान कृष्ण की बात अवश्य सुननी चाहिए और अर्जुन
ने ऐसा किया भी।
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कोई सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य
चांद पर भी जा सकता है। मनुष्य की दृढ़ इच्छाशक्ति से यह संभव हुआ था और अपोलो-11 मिशन
के अंतर्गत 21 जुलाई 1969 को तमाम किवदंतियों और दंतकथाओं से आगे जाकर नील आर्मस्ट्रांग
के रूप में पहला मानव सचमुच चांद पर जा पहुंचा था।वास्तव में मनुष्य चाहे तो क्या नहीं
कर सकता है।
नफ़स अम्बालवी के शब्दों
में:-
उसे गुमां है कि मेरी उड़ान कुछ कम है,
मुझे यकीं है कि ये आसमां कुछ कम है।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय