अब तक आपने पढ़ा श्रीकृष्ण मूर्छित हो जाते है और विशेषज्ञ वैध भी उनका उपचार नहीं कर पाते हैं तब लीलाधर भगवान कृष्ण एक नई लीला रचते है।
भगवान उद्धव से कहते हैं यदि किसी अथाह प्रेम करने वाले की चरण रज उनके मस्तक पर लगा दी जाए तो वह स्वस्थ हो जाएंगे ।
अब आगें...
मैं अपनी हाल ख़बर लिख देता हूँ तुम मेरी चिट्ठी लेकर चले जाओ। श्रीकृष्ण चिट्टी लिखने के लिए जैसे ही खड़े हुए उनके पैर लड़खड़ा गए , ऊद्धव ने उन्हें सम्भाला औऱ चौकी तक ले गए। श्रीकृष्ण ने दो चिट्ठियां लिखी औऱ ऊद्धव को देतें हुए कहा - ऊद्धव ये एक चिट्ठी मेरी मैया औऱ बाबा की हैं औऱ ये दूसरी मेरी गोपीयों की। अपनी हाल खबर के साथ मैंने योगज्ञान भी लिख दिया हैं । आप मेरे उपचार हेतु वृदांवन जा ही रहें हैं तो इसी बहाने गोपियों को समझा भी देना। आपसे अच्छा गुरु उन्हें औऱ कौन मिलेगा भला। आप उन्हें समझाएंगे तो वो समझ भी जाएंगी औऱ उनके समझने से मेरे मन की दशा भी ठीक हो जाएगी। गोपियों का प्रेम ही मेरे प्रेम को जीवित रखता हैं।
ऊद्धव सोचने लगें - किसी का प्रेम किसी के प्रेम को कैसे जीवित रख सकता हैं । प्रेम जाल में उलझ रहें हैं माधव । यदि मेरे वृंदावन जानें से उनका मोह भंग होता हैं तो यहीं सही । कैसे भी हो बस माधव स्वस्थ हो जाए ।
उद्धव ने श्रीकृष्ण से दोनों चिट्ठियां ली औऱ चल पड़े वृंदावन की ओर। स्वयं श्रीकृष्ण उन्हें द्वार तक छोड़ने गए। श्रीकृष्ण के मुख पर वहीं जानी पहचानी सी टेढ़ी मुस्कुराहट थीं ।
बृहस्पति के शिष्य उद्धव एक नया पाठ सीखने चल पड़े । कई शास्त्रों के ज्ञाता अब प्रेमशास्त्र को पहली बार सीखेंगे ।
देवगुरु बृहस्पति के शिष्य उद्धव साक्षात ज्ञान की प्रतिमूर्ति थे। जब कोई व्यक्ति अपने जीवन के अल्प समय में ही अत्यधिक ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसके अंदर क्षणिक अहंकार होना स्वाभाविक है।कृष्ण संदीपनी ऋषि के गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके मथुरा आए थे। उद्धव से उन्हें बड़ा प्रेम था। जिससे प्रेम हो उसके अंदर अहंकार कृष्ण कैसे रहने देते..?
मथुरा में ऊद्धव ज्ञान की प्रतिमूर्ति थे , योग , ज्ञान , ध्यान सबमें उनसे ऊपर कृष्ण ही तो थें।उन्ही श्रीकृष्ण की गोपांगनाओ के लिए ऐसी प्रेम विहलता देखकर ऊद्धव हैरान थें। कहाँ आचार - विचार , ज्ञान गुणों में भिन्न ये ग्वालिन वनचरी..कहाँ योगेश्वर कृष्ण। प्रेम को रुकावट मानने वाले ऊद्धव के मन की गति रथ के घोड़ो की गति से कही अधिक तीव्र थीं । सोच - विचार करतें हुए ही उनका रथ वृन्दावन की सीमा तक जा पहुँचा। रथ यमुना के किनारें दौड़ता हुआ तेज़ी से वृदांवन की औऱ बढ़ रहा था।
ढलता सूरज पेड़ों की झुरमुट से झाँक रहा था। दूर उपवनों से मोरों के चिहुकने की आवाज़ आ रही थीं। जंगलों से लौटते ग्वालों की हँसी- ठिठोली के साथ गायों के गले में बंधी घण्टियों की मधुर ध्वनि कर्णप्रिय थीं , गायों के खुर से उड़ती धूल का गुबार ऐसा लगता जैसे सावन का कोई मदमस्त बादल हो। जो पूरे ब्रज में रज की बारिश करके हर एक वस्तु को पवित्र कर देगा। ब्रजरज जहाँ ऊद्धव के माधव विहार किया करतें । गायों को लौटता हुआ देखकर उनके सुंदर सलोंने बछड़े उछल कूद कर रहें थे। हर घर से गायों के दुहने की आवाज़ आ रहीं थीं । हल्की ठंडी हवा चल रहीं थीं । हवा में वृदांवन की खुशबू घुल रहीं थीं । ऊद्धव ने गहरी श्वास ली मानो वृंदावन की खुशबू को अपने रोम - रोम में समेट लेना चाहते हो। वृदांवन हैं तो बहुत सुंदर , माधव ने जैसा बताया था यह बिल्कुल वैसा ही हैं।
शेष अगलें भाग में.....