उद्धवजी राधाजी से कहने लगे - पूरे ब्रजमंडल को दुःख में क्यो डूबो रखा है आपने ? अब माधव कभी लौटकर नहीं आएंगे ...
राधाजी धीमे स्वर में किंतु आत्मविश्वास से बोली - "लौटकर तो वह आते है उद्धवजी जो कही जाते है। कृष्ण तो कही गए ही नहीं। क्या आपको यहाँ कृष्ण दिखाई नही देतें ?"
उद्धवजी यहाँ-वहाँ देखने लगते हैं तो क्या देखते है - हर जगह सिर्फ़ कृष्ण ही है । कृष्ण के सिवा कुछ है ही नहीं। कही पेड़ पर बंशी बजाते हुए , कही गाये चराते हुए , कही गोप ग्वालों के साथ हँसी-ठिठोली करते हुए तो कही गोप बालाओं की मटकियों से माखन खाते हुए ऐसी अनेक लीला करते कृष्ण उद्धवजी को दिखाई देने लगे।
उद्धवजी ने जब राधाजी को देखा तो उनके साथ भी कृष्ण मुस्कुराते हुए दिखे। उद्धवजी को स्वयं का भी ध्यान नहीं रहा। वह ब्रजभूमि को साष्टांग प्रणाम करके ब्रजरज में लौट लगाने लगें। उद्धवजी समझ गए कि ब्रज के कण-कण में कृष्ण बसें है । बड़े - बड़े ऋषि-मुनि , महात्मा भी करोड़ो वर्षों के तप के बाद वह स्थान नहीं पाते जो इन ग्वालिनों ने कृष्ण से प्रेम करके पा लिया। कितना सरल और सहज है यह 'प्रेमशास्त्र' जिसमे स्वयं को अपने प्रियतम के श्रीचरणों में समर्पित कर देना होता है।
ज्ञान से निःसन्देह हम परम् तत्व को जान पाते हैं , किंतु परमात्मा को पाने के लिए , उनका कृपापात्र बनने के लिए तो प्रेम ही पर्याप्त है। जो मनुष्य प्रेम की पाठशाला में बैठ जाता है। वह सहज रूप से ही परमात्मा को प्राप्त कर परमानंद की अनुभूति कर लेता है। आज वही अनुभूति परम् ज्ञानी श्रीकृष्ण के प्रिय उद्धवजी को हुई थीं। वह वृंदावन आए तो गोपीयों को ज्ञान देने के लिए पर जब प्रेम रस में डूबी हुई गोपिकाओं व प्रेम की साक्षात मूर्ति स्वरूप श्रीराधा रानी से उद्धवजी का साक्षात्कार हुआ तब उन्हें श्रीकृष्ण जो निराला रूप अनुभव हुआ वह कभी श्रीकृष्ण के सानिध्य में भी अनुभव न हो सका था। उद्धव ज्ञान के द्वारा निर्गुण ब्रह्म को पूजते थे। जब उनके हृदय में प्रेमानकुर प्रस्फुटित हुआ तो वही निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप में प्राप्त हो गए। इसके लिए उद्धवजी को कोई विशेष शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं हुई।
उद्धव कई दिनों तक वृंदावन में ही रहे।
जब तक भी वे वृंदावन में रहे तब तक श्रीकृष्ण चरित का रसास्वादन करते रहें। वह जहां भी जाते वहाँ कृष्ण की चर्चा होने लगती। इन दिनों उद्धवजी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के विषय मे न जाने कितनी ही लीलाओ को जाना। बृजवासी तो अब तक हर कण में श्रीकृष्ण को ही देखते हैं। उन्हें हर जगह में नटखट बाल गोपाल की छबि दिखाई देती है। श्रीकृष्ण का मथुरागमन तो सभी को स्वप्न ही जान पड़ता है। उनके प्राणप्रिय तो आज भी वृंदावन में ही बसते है।
--------समाप्त--------
श्रीराधे रानी सरकार के श्री चरणों मे बारम्बार नमन....
मैंने यह रचना भागवत कथा श्रवण के आधार पर लिखी है । संवाद उसी आधार पर लिखें गए है। रचना में लिखी बात को प्रामाणिक न माना जाए । प्रामाणिक तथ्य सिर्फ़ ग्रंथो में ही है। रचना को कृष्ण प्रेम का अमृत पान समझकर पढ़े।