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प्रेमशास्त्र - (भाग-३)

वैद्य आ गए औऱ उपचार शुरू हुआ। तरह-तरह की जड़ीबूटियां दी गई फ़िर भी श्रीकृष्ण पर कोई असर नहीं हुआ। वो तो ऐसे लग रहें थे मानों गहरी निद्रा में सो रहें हो। मथुरावासी के तो मानो प्राण ही सुख गए। मथुरा की प्रजा जिन्हें भगवान मानकर पूजती थीं आज उन्हीं के लिए भगवान से प्राथर्ना कर रहीं थीं।

वसुदेव जी ने उद्धव से कहा - तुम तो कृष्ण के सखा व शिष्य भी हो , सदैव कृष्ण के साथ रहतें हों । तुम ही बताओं कृष्ण को क्या हुआ हैं ?

ऊद्धव को खुद कुछ समझ नहीं आ रहा था वो तो ठगे से श्रीकृष्ण की औऱ देखें जा रहें थें।

रात से सुबह हो गई लेकिन श्रीकृष्ण की मूर्छा नहीं टूटी ऊद्धव श्रीकृष्ण के चरणों पर अपना सर रखकर रोने लगें । तभी श्रीकृष्ण ने हौले से अपनी पलकें उठाई । सूर्य सी चमकने वाली आँखों में अब गहरी उदासी छाई हुई थीं। ऊद्धव श्रीकृष्ण के समीप गए औऱ अधीर होकर बोलें माधव आप ठीक तो हैं न ?

धीमें स्वर में श्रीकृष्ण बोलें - ये जड़ीबूटियां , वैद्य मेरा उपचार नहीं कर पाएंगे ऊद्धव । मेरा उपचार मैं जानता हूँ।

ऊद्धव कहने लगें - बताओं न माधव किस उपचार से आप स्वस्थ होंगे ? मैं अभी किए देता हुँ ।

श्रीकृष्ण मुस्कुराकर बोलें - किसी अथाह प्रेम करने वाले के चरणों की धूल मेरे सर पर मल दो ऊद्धव । चाहो तो अपने ही चरणों की धूल मेरे मस्तक पर लगा दो। मैं शीघ्र स्वस्थ हो जाऊँगा।

ऊद्धव यह सुनकर घबरा गए । वह एक दम से खड़े हो गए औऱ कहने लगें ,, नहीं..नहीं...माधव ऐसा अनर्थ हमसे न हो पाएगा । मैं कैसे अपने गुरु के माथे पर अपने चरणों की धूल लगा दूँ..? मैं तो आपके श्रीचरणों का सेवक हुँ।

श्रीकृष्ण धीमें स्वर में बोलें - सोच लो ऊद्धव ! दूजा कोई उपचार नहीं हैं जो मुझें स्वस्थ कर सकेगा।

ऊद्धव बोलें - माधव ! ऐसा करने पर मैं नर्कवासी बनूँगा। मैं यह नहीं कर सकता ,, मैं तो ऐसा सोच भीं नहीं सकता। ऊद्धव कृष्ण से बोलें - मैं इतंजाम करके जल्दी ही आता हूँ । ऊद्धव कक्ष से तेज गति से बाहर निकल गए। ऊद्धव को मथुरा में कोई ऐसा नहीं मिला जो अपनी चरण धुली देने को राजी हुआ। सबने यहीं कहा - अपनी चरण धुली श्रीकृष्ण के माथे पर चढ़ाना तो बिल्कुल वैसा हैं जैसे नरक की सीढ़ी चढ़ना। हम तो यह अनर्थ नहीं कर सकेंगे ऊद्धव जी।

ऊद्धव उदास होकर महल लौट आएं। श्रीकृष्ण ने कहा - क्या हुआ ऊद्धव ?

ऊद्धव दुःखी स्वर में बोलें - यहाँ तो कोई भी अपनी चरण धुली देने को राजी नहीं हुआ माधव ।

श्रीकृष्ण अपने दोनों हाथों के बल पर उठें औऱ तकिए की टेक लेकर बैठ गए। एक दिन में ही बहुत कमजोर हो गए थे वो। श्रीकृष्ण ने ऊद्धव से कहा - मैंने कहा था न ऊद्धव मथुरा क़भी वृदांवन नहीं बन सकता । यहाँ लोग सम्मान देतें हैं , मुझें श्रीकृष्ण कहते हैं । एक काम करों ऊद्धव वृंदावन चले जाओ । वहाँ मेरा उपचार मिल जायेगा , वहाँ तुम्हें किसी न किसी के चरणों की धुली अवश्य मिल जाएगी।

शेष अगले भाग में.....


क्या उद्धवजी को ब्रजरज मिल पाएंगी।

जानने के लिए पढ़ते रहे प्रेमशास्त्र।

धन्यवाद।


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