ऊद्धव जी का रथ नन्दभवन के सामने रुका । रथ के पीछे ग्वालबालों का हुजूम था। ऊद्धव नन्दभवन में प्रवेश कर गए । नन्दबाबा ने ऊद्धव को ठीक वैसे ही गले से लगाया जैसे वो अपने कन्हैया को लगाया करतें थें। ऊद्धव की सारी थकान मिट गई। माता यशोदा ने भी प्रेम से ऊद्धव के सर पर हाथ फेरते हुए नन्द जी की ओर देखते हुए कहा - ये अपने कान्हा जैसा दिखता हैं न ?
ऊद्धव व नन्द जी मुस्कुरा दिए । नंद जी ऊद्धव से बतियाने लगें माता यशोदा रसोईघर चलीं गई।
ब्रज में अफवाह फैल गईं कि नन्दनन्दन लौट आएं हैं । यह खबर सुनते ही ब्रजवासियों के मन पुलकित हो उठें। वह रात सबने आँखों में अनगिनत सपनें लिए काटी। गोपांगनाओ की उत्कंठा बढ़ती ही जाती उन्हें तो अब बस भोर का इंतज़ार था।
वृदांवन की भोर वाक़ई जादुई थीं । मन को मोहने वाली। ऊद्धव जी यमुना की ओर चल पड़े। घाट कुंज लताओ से पटे हुए थे। घाट पर गायों को बांधने के खूंटे गढ़े हुए थें । घाट के किनारें अशोक , कदम्ब , अमलताश के वृक्ष कतार में लगें हुए सुंदर जान पड़ते थे मानो घाट पर प्रवेश द्वार पर रखवाले तन के खड़े हो। गेंदा , चमेली , जूही की खुशबू हवाओं के झोंको के साथ पूरे वातावरण को महका रहीं थीं। ऊद्धव विस्मित दृष्टि से इधर-उधर देख रहें थें। वृदांवन हैं तो बहुत प्यारा । माधव सच ही कहते हैं कि मथुरा कभी वृंदावन नहीं बन सकता। तभी ऊद्धव जी एकाएक रुक गए उन्होंने देखा ब्रजांगनाओं का झुंड उनके सामने खड़ा हैं जो उन्हें आश्चर्यजनक निगाहों से तांक रहा था। कुछ एक गोपियां उनके पीछे भी थीं , जो शायद ऊद्धव का पीछा काफ़ी दूर से कर रहीं थीं औऱ जिसके कारण उनकी सांस तेज गति से चल रहीं थीं। ऊद्धव गोपियों से घिर गए। एक गोपी दूसरी गोपी की ओर देखकर बोली - ये बिल्कुल हमारे कान्हा जैसा नहीं दिखता ..वहीं रंग-रूप , चाल , हावभाव , वहीं वेशभूषा ..?
दूसरी गोपी - ना , ये हमारे कान्हा जैसा नहीं हो सकता , न तो इनके सर पर मोरमुकुट हैं औऱ न ही हाथों में बंशी । तभी पीछे से एक गोपी बोली - ऐ भैया ! तुमको हमारे कान्हा ने भेजा हैं न ?
ऊद्धव के मन में अब तक सभी गोपियां गवार ग्वालन ही थीं जिनके प्रेम में उनके माधव इतने विकल हुए जा रहें थें। ऊद्धव ने कहा - हाँ , हमें यहाँ माधव ने भेजा हैं आप सबके लिए एक पत्र भी लिख भेजा हैं। जैसे ही ऊद्धव जी ने कमरबंद से पत्र निकाला ..हवा के झोकों सी गोपियां कब आई कब पत्र उनके हाथों चला गया। कब पत्र टुकड़े - टुकड़े हो गया ऊद्धव जी को पता ही नहीं चला।
ऊद्धव को इतना गुस्सा शायद पहली बार ही आया हों । ब्रह्मज्ञान को इन गोपियों ने टुकड़े - टुकड़े कर दिया। ये हैं इनका प्रेम , इन लोगो के लिए माधव इतने चिंतित हो रहें थे..? माधव के शब्द ऊद्धव के कानों में गूंजने लगें - मेरी गोपियों को आपसे अच्छा गुरु कौन मिलेगा ..?
ऊद्धव की नजरें यहाँ - वहाँ गोपियों को ढूंढने लगीं। ऊद्धव ने देखा गोपियां पत्र के अपने- अपने हिस्से को लिए बैठी हैं , उसे निहार रहीं हैं। कोई उसे माथे से लगाती तो कोई सीने से। कोई आँखों से लगाती तो कोई होठों से। सभी पत्र के टुकड़े ऊद्धव जी को देतें हुए बोली - तनिक इसे पढ़कर सुना दो न ऊद्धव जी , हमारे कान्हा ने क्या लिखा हैं हमारे लिए..? ऊद्धव ने टुकड़ो को देखा - पत्र के अक्षर किसी के काजल से मिल गए तो किसी के टुकड़े के अक्षर लाली से मिट गए। किसी के आंसुओं से कान्हा के लिखें अक्षर धूल गए।
ऊद्धव जी झुंझलाकर बोलें - ब्रह्मज्ञान , जो कान्हा ने आप सबके लिए लिखा था उसे आप सब ने फाड़ दिया।
एक गोपी हैरत से पूछती हैं - तो क्या कान्हा ने हम सबके लिए ज्ञान लिख भेजा था ?
ऊद्धव ने कहा - हाँ ।
दूसरी गोपी - कान्हा ने हम सबके नाम नहीं लिखें ? हमारी खैरखबर भी नहीं पूछी..?
ललिता बोली - क्या उन्होंने राधा का नाम भी नहीं लिखा..?
ऊद्धवजी बोलें - हाँ उन्होंने किसी का भी नाम नहीं लिखा। उन्होंने तो आप सबके लिए यहीं सन्देश दिया था कि आप उनसे मन हटा कर निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करों।
गोपी ऊद्धव से बोली - ऊद्धव जी हमारे पास एक ही मन हैं , जो हम कान्हा के श्रीचरणों में सौप चूंकि। अब निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करने के लिए दूजा मन कहाँ से लाए..?
एक ने कहा - ऊद्धव जी ! ये निर्गुण ब्रह्म कैसा दिखता हैं ? कहाँ रहता हैं ? उनके माता - पिता कौन हैं ? वह कैसे बोलते हैं , चलते हैं ? हम उनमें ध्यान कैसे लगाए ?
उद्धवजी कुछ समझ नहीं पाए कि क्या उत्तर दें। प्रेम से ज्ञान हार रहा था। उदार स्वभाव के ऊद्धव ठगे हुए से गोपीयों को देखते रहें ।
शेष अगले भाग में .....