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प्रेमशास्त्र - (भाग-६)

उद्धव के गुरु बृहस्पति ने उन्हें बताया था कि कृष्ण रूप में तुम्हारे छोटे भाई भगवान विष्णु का अवतार हैं। यह जानते हुए भी कि श्रीकृष्ण भगवान के पूर्णवातर है फिर भी उद्धवजी को श्रीकृष्‍ण के शारीरिक रूप से उन्हें कोई मोह नहीं था। उनके अंतरमन में भी कहीं न कहीं ज्ञान का अहंकार छिपा हुआ था और वे निराकर परब्रह्म की उपासना को ही सच्चा मार्ग मानते थे। उनकी दृष्‍टि में ज्ञान ही महत्वपूर्ण था। यह बात श्रीकृष्ण अच्छे से जानते थे इसीलिए उन्होंने उद्धवजी को ही अपना संदेशवाहक चुना।

गोपियों के प्रश्न सुनकर उद्धवजी ने कहा - हे ब्रजबालाओ ! तुम अपने मन को स्थिर करो । स्थिर मन वालों को निराकार परब्रह्म की दिव्य अनुभूति होती है फिर मन मे कोई संशय नहीं रहता ।

उद्धवजी के वचनों को सुनकर एक गोपी बोली - जिनका मन पहले से ही एकाग्र हो उन्हें आपके इस योग ज्ञान की क्या आवश्यकता है..? यह तो वही बात हुई कि रोगी न होने पर भी औषधि दे देकर उपचार कर दिया।

दूसरी गोपी समर्थन करते हुए कहने लगी - " जी उद्धवजी हम सबके मन कृष्ण के प्रेम में स्थिर है।
यदि आप प्रेम का संदेश लाएं है तो सुनाइये ज्ञान की बातें हमे समझ नहीं आती।"

उद्धवजी कहने लगें - यहीं तो हम आपको समझाने आए है । प्रेम जाल से स्वयं को मुक्त करके आप सभी परब्रह्म का आश्रय ले। निस्संदेह आपके सारे कष्ट मिट जाएंगे ।

आश्चर्य से एक गोपी ने कहा - कृष्ण विरह अग्नि से जलती हम सब गोपियों के कष्ट भी मिट जाएंगे ?

"अवश्य मिटेंगे" - आत्मविश्वास से उद्धवजी ने कहा।

सभी गोपी उद्धवजी से कहती है - तो उद्धवजी चलिए राधा के पास । यदि राधा आपके योग को आपके ज्ञान को स्वीकार लेंगी तो अब सब भी वही करेंगी जो आप कह रहे है।

उद्धवजी ने प्रसन्नता से कहा - कहाँ है राधा ? मैं भी उनके दर्शन करना चाहता हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं बीतता जिसमे माधव उनका नाम न लेते हो।

गोपियां कहने लगी आइए हमारे साथ । उद्धव जी उत्सुकता से गोपियों के पीछे जाने लगें ।

गोपियां उद्धवजी को यमुनातट के पास ले गई। उद्धवजी ने देखा एक स्त्री जो साक्षात माँ लक्ष्मी स्वरूप है , पेड़ के सहारे पीठ टिकाएं खड़ी हुई थी। वह अपलक यमुना नदी को निहार रही थी।उनकी कजरारी बड़ी-बड़ी आँखे जिनमें मोतियों से अश्रु चमक रहे थे किंतु एक भी अश्रु आँख से झलक नहीं रहा था। उनका सुंदर सुकोमल मुख ऐसा लग रहा था जैसे मुरझाया कोई सुंदर पुष्प हो। उनकी बिखरीं अलकावली हवा के झोंके से कभी उनके मुख पर आती कभी पीछे हट जाती।उनके रोम रोम से कृष्ण का नाम सुनाई दे रहा था। उद्धवजी समझ ही नहीं पाए की उनके सामने श्रीराधा है या साक्षात प्रेम की देवी। वह राधा जी को देखकर एक पल के लिए अपना ज्ञान भूल गए।

एक गोपी राधाजी से बोली - राधा ! ये उद्धवजी है। कान्हा ने इन्हें हमें योग सीखाने के लिए भेजा है।

राधा जी ने उद्धवजी को देखा फिर यमुनानदी कि ओर मुख करते हुए मधुर वचनों से बोली - कृष्ण को ढलते सूरज के साथ हमारा हालचाल तो मिल जाता है न उद्धवजी..?

उद्धव आश्चर्यचकित से राधाजी को देखने लगें वह सोचने लगे - तो क्या संध्या के समय माधव वृंदावन कि ओर मुख किये इसीलिए खड़े रहते है ? और वह उदासी जो उनके मुखमंडल पर छाई रहती है वह भी...नहीं..नहीं यह सम्भव नहीं है।

शेष अगलें भाग में....

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