अंशिता को यह भी पता था कि अंजलि ने उसे बड़ा करने में अपनी पूरी ज़िंदगी खपा दी। अपनी ख़ुद की माँ के साथ बिताया एक भी पल अंशिता को याद नहीं था; लेकिन अंजलि के साथ बिताया हर पल उसके ज़ेहन में अंकित था। बड़ी होकर वह भली-भांति यह समझती थी कि अंजलि ने कितना बड़ा त्याग किया है। वह चाहतीं तो ख़ुद भी माँ बन सकती थीं, अपने ख़ुद के बच्चे की माँ, उनका अपना खून; लेकिन बच्चे को जन्म देने का सुख उसके कारण ही उन्हें नहीं मिल पाया। उसका जीवन तो अंजलि ने एक लहलहाते वृक्ष की तरह हरा भरा कर दिया; लेकिन उनका ख़ुद का जीवन एक ऐसा वृक्ष है जिस पर कभी कोई पत्ता, कोई फूल ना खिल सका। उनके जीवन में पतझड़ ऐसा आया कि कभी गया ही नहीं।
उसे अंजलि सच में भगवान की तरह लगती थी, जिसकी मन ही मन अंशिता पूजा करती थी। उसके और अंजलि के जीवन के अनुभवों से उसके मन में हमेशा ये विचार आता था कि काश ऐसे बच्चों को जिनकी माँ बचपन में ही उन्हें छोड़कर भगवान के पास चली गई हों, उन्हें अंजलि जैसी ही कोई माँ मिल जाए तो उनका जीवन सच में खुश हाल हो जाए।
आज अंशिता का जन्मदिन था। अंजलि ने उसका मन पसंद खाना बनाया था। अंजलि ने चोरी-चोरी उसके लिए जो स्वेटर बनाया था वह उपहार स्वरूप अंशिता को देते हुए उसका माथा चूमा और उसे जन्मदिन की बधाई दी।
अंशिता ने स्वेटर पहन कर देखा और ख़ुश होते हुए कहा, "थैंक यू मम्मा, कितना सुंदर स्वेटर है।"
सौरभ ने पूछा, "अरे अंजलि यह तुमने कब बनाया?"
तभी अंशिता ने कहा, "हाँ पापा मुझे भी पता ही नहीं चला। पापा आप मेरे लिए क्या लाये हो?"
सौरभ ने ख़ुश होते हुए कहा, "मैं तुम्हारे लिए एक बहुत ही अच्छा जीवन साथी लाने वाला हूँ। कल लड़के वाले तुम्हें देखने के लिए आने वाले हैं।"
इन्हीं प्यार भरे पलों के बीच में अंशिता के मोबाइल की घंटी बजी।
यह फ़ोन बैंक में काम कर रहे उसके एक साथी का था। अंशिता ने बुदबुदाते हुए फ़ोन उठाया, “अरे यह हिमांशु अभी फ़ोन क्यों कर रहा है? ज़रूर खुशखबर होगी।”
सौरभ और अंजलि दोनों वहाँ से अपने कमरे में जाने लगे।
अंशिता ने ख़ुश होते हुए पूछा, “हेलो हिमांशु, लड़का या लड़की जल्दी बताओ …”
किंतु हिमांशु की तरफ़ से कुछ सिसकियों की आवाज़ आ रही थी। अंशिता घबरा गई उसने घबराते हुए पूछा, “क्या हुआ हिमांशु? तुम रो क्यों रहे हो?”
अंशिता के यह शब्द सुनते ही अंजलि और सौरभ ने मुड़कर देखा। अंशिता के घबराए हुए चेहरे और आवाज़ को सुनकर उन्हें लगा ज़रूर कोई अशुभ समाचार है। वह अंशिता की तरफ़ देखकर इंतज़ार करने लगे कि उसकी बात ख़त्म हो तो वह कुछ पूछ सकें कि क्या हो गया।
उधर से फ़ोन पर हिमांशु की आवाज़ आई, “अंशिता मैं …मैं …”
“हाँ कहो ना हिमांशु …”
“अंशिता मेरी पत्नी …”
“क्या हुआ सपना को …?”
“अंशिता तुम तो जानती हो वह प्रेगनेंट थी।”
“हाँ-हाँ हिमांशु जानती हूँ।”
“उसने दो बेटियों को जन्म दिया और उसी दौरान उसकी मृत्यु …,” कहते हुए हिमांशु फफक कर रो पड़ा।
अंशिता यह सुनकर सन्न रह गई। मोबाइल उसके हाथों से छूट कर ज़मीन पर आ गिरा। उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
अंजलि ने पूछा क्या हुआ, “अंशिता?”
“मम्मा हिमांशु वह मेरा कलीग है ना …”
“हाँ बेटा जानती हूँ मैं उसे …”
“उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई है।”
“क्या …? यह क्या कह रही हो? तुमने बताया था कि उसकी पत्नी प्रेगनेंट है।”
“हाँ मम्मा उसने दो बेटियों को जन्म दिया परंतु डॉक्टर उसका जीवन ना बचा पाए।”
सौरभ ने कहा, “अंशिता बेटा तुम्हें तो तुरंत वहाँ पहुँचना चाहिए।”
“हाँ पापा…”
“बेटा चलो मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ।”
“हाँ पापा मैं कार नहीं चला पाऊँगी।”
सपना भी अंशिता की बहुत अच्छी सहेली थी वह सब कई बार साथ में घूमने, मूवी देखने, होटल में खाने जाया करते थे।
अंजलि और सौरभ दोनों ही अंशिता को हिमांशु के घर छोड़ने निकले। कार में बैठी अंशिता किसी शांत नदी की तरह एकदम मौन थी । थोड़ी-थोड़ी देर में अपनी डबडबाई आँखों के आँसुओं को अपनी ओढ़नी से पोंछ लेती। शायद मन में हिमांशु और उसकी पत्नी सपना के विषय में सोचने से ज़्यादा वह उन दोनों बच्चियों के लिए चिंतित थी। धीरे-धीरे वे हिमांशु के घर पहुँच गए।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः