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सर्कस - फ़िल्म समीक्षा

विलियम शेक्सपियर के कॉमेडी ऑफ अररर्स को आधार बनाकर जाने दुनिया में अब तक कितनी फिल्में बनी हैं। ये उसी सीरीज की अगली फिल्म हैं। देखने पर जो कॉमेडी कम और गुस्सा ज्यादा दिलाती हैं। इस तरह की फिल्मों में जो कन्फ्यूजन होता हैं। असल में वहीं कॉमेडी हैं। लेकिन समस्या तब पैदा हो जाती हैं। जब उस कन्फ्यूजन को ही हर सीन में दिखाया जाने लगें। और जो एक्टर्स हैं। उन पर एक्टिंग ना हों, तब लगता हैं। कि काश मैंने पैसे खर्च ना किये होते।

कहानी बच्चों की अदला बदली से शुरू होती हैं। लेकिन अबकी बार मकसद अच्छी भावना हैं। आधे घण्टे बाद कंफ्यूजन शुरू होता हैं। और लास्ट तक दिमाग को खाली कर देता हैं। और अंत में ज्ञान, अनाथालयों के ऊपर, अरे भाई जब ज्ञान ही देना था तो डॉक्यूमेंट्री बनाते, लेकिन इन्होंने फ़िल्म बनाई। और जब तुम लोग जगह-जगज कहते घूम रहे हो कि ये फ़िल्म हमने क्रू मेंबर का घर चलें इसलिए बनाई हैं। तो भैया खुद ही देखो ना घर बैठकर, जनता को परेशान क्यों कर रहे हो, लेकिन इन्हें पता हैं। कि इन्होंने क्या बवासीर बनाया हैं। और ये बवासीर ऐसा हैं। कि थिएटर में बैठने नहीं देगा।

एक्टिंग के नाम पर रणवीर सिंह सलमान वाले फॉर्मूले पर हैं। हर फिल्म में सीधा बनना, पिछली फिल्म जाएसभाई जोरदार में जो एक्टिंग की, वो इसमें सीधी कॉपी कर दी, वरुण शर्मा पर तो कुछ आता ही नहीं, ये बन्दा हर जगह एक जैसा हैं। चाहे कैमरे के पीछे, चाहे आगे, जैकलीन की एक्टिंग के बारें में क्या कहे। पर एक अच्छी बात हैं। कि पूरी फिल्म में 20 मिनट का रोल हैं। वो भी सिंगल फ्रेम में नहीं हैं। वहाँ बाकी बहुत एक्टर्स होते हैं। इसलिए वो बर्दाश्त हो जाती हैं। पूजा हेगड़े ठीक लगी हैं। वो सुंदर भी दिखी हैं। और अच्छा खासा रोल भी हैं। और एक्टिंग भी ठीक थी। इसके बाद बाकी करैक्टर इन चारों के सपोर्टिंग एक्टर की तरह रहें हैं। इसलिए वो अपनी पहचान नहीं छोड़ पाते, और ऊपर से हर सीन में एक ही चीज़ कर रहे हैं। जैसे संजय मिश्रा का करैक्टर जब भी स्क्रीन पर आएगा। अपने बाल नोचने का मन करता हैं।

कॉमेडी फिल्मों में किस तरह के संवाद होने चाहिए। ये आजकल सब कपिल शर्मा शो देखकर ही लिख रहे हैं। तो इस फ़िल्म में कपिल के शो के डायलॉग का ही रूपांतरण हैं।

फ़िल्म में 1960 का दशक दिखाया हैं। लेकिन असल में वो स्टार वार्स को फेल कर रहा हैं। ऐसी- ऐसी लोकेशन दिखाई हैं। कि स्विट्जरलैंड देश खुद में आग लगाले कि भारत में ये सब कब हुआ। अब तो हमारा टूरिज्म खत्म हो जाएगा। ऊटी में स्वीडन देश जैसी मिनी ट्रैन सड़क पर चल रही हैं। 1960 में, उसके बाद सब लोग इंग्लिश, हिंदी, तमिल, तेलगु सारी भाषा जानते हैं। चलो यहाँ तक ठीक हैं। लेकिन क्या असल मे 1960 में दक्षिण भारत ऐसा था, वहां दरअसल 60 के दशक में भाषाई आधार पर विभाजन के लिए आंदोलन हो रहे थे। लोग धरनों पर बैठे थे। लेकिन इस फ़िल्म में सब कुछ बड़ा रोमांटिक था। एक इन लोगों को किसने बता रखा हैं। कि 50-60 के दशक में भारत में लड़कियां मिनी स्कर्ट पहनती थी। मुझे एक ऐसी जगह दिखा बॉलीवुड की फिल्मों के अलावा जहाँ ये सब था। ये पूरी फिल्म एक बम्बईया फ़िल्म हैं। जो हर पर्दे के आगे और सेट बनाकर बनाई गई हैं। इसका वास्तविकता से कुछ भी लेना-देना नहीं हैं। दरअसल रोहित शेट्टी दूसरा करन जौहर हैं। जो ये फालतू की चीज़ दिखाता हैं। परवरिश क्या होती हैं। इस फ़िल्म में बड़ा ज्ञान हैं। अरे भाई जितनी अमीरी इस फ़िल्म में तुमने दिखाई हैं। ऐसे इस देश में बहुत कम लोग हैं। तो फ़िल्म वो बनाओ जो असल में हो फालतू मत बनाओ क्योंकि ये तरीका जनता ने फ्लॉप कर दिया हैं। और ये तय हैं। कि इस फ़िल्म को कोई देखने नहीं जाने वाला, तो आप लोग भी मत जाना, बकवास हैं। बिल्कुल।


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