ममता की परीक्षा - 117 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 117



मेज पर रखे काँच के बड़े से पेपरवेट को लापरवाही से मेज पर घूमाते हुए दरोगा विजय ने कनखियों से सेठ जमनादास की तरफ देखा, मानो ताड़ना चाह रहा हो कि उसके इस बिंदास अंदाज का उनपर क्या असर हो रहा है, लेकिन सेठ जमनादास भी कम घाघ नहीं थे। लापरवाही से कुर्सी पर पहलू बदलते हुए बोले, "तुम्हारा ये लट्टू घूमानेवाला खेल हो गया हो तो अब कुछ काम की बात भी हो जाए ? ...या फिर मैं ही अपना काम कर लूँ ?"

हल्का सा कहकहा लगाते हुए दरोगा विजय बोला, "आप बिलकुल कर सकते हैं साहब अपना काम। मेरी क्या औकात है जो आप पैसेवालों की मर्जी के खिलाफ कुछ कर पाउँ ? आप जिस केस की बात कर रहे हैं न साहब ...मेरी पूरी कोशिश थी उन तीनों दरिंदों को उनके अंजाम तक पहुँचाने की, लेकिन पैसे की ताकत के आगे हार गया। उस प्यारी सी बच्ची का मासूम चेहरा आज भी मुझे जब जब याद आता है, तब तब मेरी आँखों से नींद उड़ जाती है। मेरी आत्मा मुझे कचोटती है कि मैं चाहकर भी उसे इंसाफ क्यों नहीं दिलवा सका ? लेकिन क्या करता ?.. वह सेठानी शायद आप जानते हों उसे, सेठ गोपालदास अग्रवाल की धर्मपत्नी ! अपना नाम शायद सुशीलादेवी बताया था उसने। अपने पैसे का जोर दिखाकर वह मुझे तो नहीं खरीद सकी, लेकिन उस समय यहाँ के कमिश्नर श्रीवास्तव जी शायद पहले ही उसके हाथों बिके हुए थे। उनका एक फोन कॉल आते ही सरकारी अस्पताल का डॉक्टर जिसने पोस्टमार्टम किया था अपनी रिपोर्ट में लिख दिया कि बलात्कार हुआ, लेकिन जिस्म पर कोई खरोंच या जख्म के निशान नहीं मिले। इतना ही नहीं उसने लड़की को बलात्कार का अभ्यस्त भी बता दिया, जिसका फायदा उस मरियल से दिखनेवाले वकील ने उठाया और जज साहब को समझाने में सफल रहा कि यह बलात्कार नहीं बल्कि लड़की की मर्जी से हुए सहवास का मामला है। इतना ही नहीं, उल्टे उस लड़की के चरित्र पर ही सवाल खड़े कर दिया था उसने। मेरे पास कुछ करने का रास्ता ही नहीं बचा था। कमिश्नर साहब का दबाव मुझपर भी कम नहीं था लेकिन मैंने फिर भी इंसानियत का ही साथ दिया होता अगर इन पैसेवालों ने मुझे कानूनी दाँवपेंच में इस कदर न जकड़ लिया होता। मैं कमिश्नर साहब के आदेश के विपरीत चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया तो उसकी वजह मात्र इतनी ही थी कि मैं जानता था कि सारे साक्ष्य उस लड़की के खिलाफ जाएंगे और मेरी मदद के बावजूद उस लड़की को इंसाफ नहीं मिल पायेगा। मेरी दलीलें मात्र संदेह पैदा कर सकती थीं। कोई पुख्ता सबूत नहीं बन पातीं और ऐसे में उन शहरी छोरों का बाइज्जत बरी हो जाना तय था। काफी दूर तक सोच समझकर मैंने भी हथियार डाल दिये थे इन रईसों और पहुँचवालों के सामने और उनकी मनमानी हो जाने दिया।" कहते हुए दरोगा विजय आवेशित हो गया था। उसकी सांसें तेज तेज चलने लगी थीं।

उसकी निगाहें जमनादास पर ही टिकी हुई थी जो निर्विकार भाव से उसकी पूरी बात तन्मयता से सुन रहे थे। उसकी नजर बगल में ही बैठे अमर और बिरजू पर ठहर गई और अपनी धीर गंभीर आवाज में उसने आगे कहना शुरू किया, "लेकिन कहते हैं न सब दिन एक समान नहीं होते, घूरे के भी दिन फिरते हैं। उन नराधमों को बाइज्जत बरी करने के दूसरे ही दिन मुझे खबर मिली कि उनकी हैवानियत की शिकार वह बदनसीब लड़की खुद का अपमान सहन नहीं कर सकी और उसने कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर लिया। सुनकर मेरा दिल खून के आँसू रो पड़ा था और मैं तुरंत हरकत में आ गया। हालाँकि गाँवों में यदाकदा आत्महत्या की ऐसी घटनाएं होती रहती हैं लेकिन सूचना होने के बावजूद हम गाँववालों की जिंदगी में दखल देने से अक्सर बचने का प्रयास करते हैं क्योंकि गाँववालों की मान्यताओं के विपरीत ही कानून की धाराओं का प्रावधान है। कानून का पालन करवाने के चक्कर में कई बार हमें गाँववालों के भारी विरोध का सामना करना पड़ता है।..और यहाँ भी ऐसा ही हुआ, लेकिन इस बार तो मेरी मंशा ही कुछ और थी।
गाँववालों के लाख विरोध के बावजूद मैंने उस बदनसीब लड़की के शव को अपने कब्जे में लिया और पोस्टमार्टम के लिए शहर के अस्पताल में ले गया। इस बार अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके मैंने अनाम मृतक कहकर उस मासूम का शव परीक्षण करवाया। ऊपर के अधिकारियों को भी वास्तविकता की भनक नहीं लगने दिया और जब शव परीक्षण की रिपोर्ट आ गई तब उसकी रिपोर्ट में मृतक का नाम बसंती दर्ज कर दिया। रिपोर्ट के साथ ही उसकी उस समय की तस्वीर भी फाइल में सुरक्षित कर लिया। इस सबके पीछे मेरी यही सोच थी कि लड़की का नाम जानकर शव परीक्षण करने वाला डॉक्टर कहीं इसकी खबर कमिश्नर श्रीवास्तव को न कर दे जिनके कहने पर उसने पिछली बार झूठी रिपोर्ट बनाई थी। श्रीवास्तव को बसंती की आत्महत्या से अंजान बनाए रखना मेरे लिए उनके दबाव से बचे रहने का एकमात्र उपाय था।"
कहते हुए वह एक पल को रुका, गहरी साँस ली और कुर्सी से उठकर मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

अमर के चेहरे पर उत्सुकता के भाव थे और बिरजू का चेहरा क्रोध की ज्यादती से तना हुआ था। उसका खून उबल रहा था लेकिन सामने अमर और जमनादास जैसे बड़ों की उपस्थिति को महसूस कर उसने खुद पर काबू पाया हुआ था। अमर शव परीक्षण में आने वाले नतीजे को जानने के लिए बेकरार था, जबकि जमनादास का दिमाग कहीं और ही विचर रहा था। वह दरोगा विजय द्वारा यह सब कहानी उन्हें क्यों सुनाई जा रही है इसका जवाब तलाश करने की भरसक कोशिश कर रहे थे, लेकिन खुद को यह पता कर पाने में असमर्थ पा रहे थे। तीनों के दिमाग में अलग अलग विषय को लेकर उथलपुथल मची हुई थी।

बाहर जाकर दरवाजे के कोने से पान की पिक थूक कर दरोगा विजय अभी अपना आसन ग्रहण करने जा ही रहा था कि तभी अमर अचानक पूछ बैठा, "सर, क्या मैं जान सकता हूँ कि इस बार शव परीक्षण की रिपोर्ट में क्या लिखा गया था ?"
उसकी तरफ देखते हुए दरोगा विजय मंद मंद मुस्कुराते हुए बोला, "फिर बच्चों जैसी बात... ! कहा था न पहले ही कि ये तुम्हारी अलमारी में रखी हुई धोती नहीं जिसे जब मन चाहा निकाला और पहन लिया। यह सरकारी कार्य है जो एक नियम के दायरे में किया जाता है। ये सभी गोपनीय दस्तावेजों की श्रेणी में आते हैं और हमें इसके बारे में किसी से चर्चा करने पर भी पाबंदी है।"

कुछ पल की खामोशी के बाद उसने शेठ जमनादास की तरफ देखते हुए कहना शुरू किया, "लेकिन अब सोच रहा हूँ कि क्यों न कुछ पाबंदियों को मैं भी तोड़कर देखूँ। जब हमारे वरिष्ठ अधिकारी चंद कागज के टुकड़ों के लिए अपना इमान नीलाम कर सकते हैं तो इंसानियत की खातिर मैं क्यों नहीं ?"
कहने के बाद उसने मेज पर रखी घंटी पर जोर से हाथ मारा।

घंटी की टनटनाहट पूरे दफ्तर की शांति भंग कर गई और कमरे के बाहर खड़ा एक सिपाही भागकर कमरे में पहुँचा। थुलथुल बदन का वह सिपाही ढंग से सलूट भी न कर सका, बस अपनी दायीं हथेली उलटकर माथे से लगाते हुए दरोगा का अभिवादन कर खड़ा हो गया।

उसे देखकर दरोगा ने कहा, "राम सिंह ! देखो पीछे रेकॉर्डरूम में बसंती बलात्कार कांड की फाइल होगी। वह फाइल ले आओ जरा जल्दी से।"

"ठीक है साहब !" कहकर उसे सलाम कर रामसिंह उस कमरे के बगल में स्थित कमरे में चला गया जहाँ से रेकॉर्डरूम में जाने का रास्ता था। सभी जरूरी दस्तावेज घटना के समय व उनके क्रम अनुसार इसी कमरे में रखे जाते थे।

क्रमशः